शनिवार, 5 मार्च 2022

जलमग्न सभ्यता और संस्कृति का साक्षी है बिलासपुर शहर - Dr.Rajesh K Chauhan

 

सांडु रे मदाना च झीला रा पाणी...



- डॉ.राजेश के चौहान 

कहलूर रियासत के चौंतीसवें शासक राजा दीपचंद ने सन् 1654 ईस्वी में अपनी राजधानी सुन्हाणी से व्यासपुर स्थानांतरित की थी। व्यासपुर में रंगनाथ, खनेश्वर, नर्वदेश्वर, गोपाल मंदिर, मुरली मनोहर मंदिर, बाह का ठाकुरद्वारा, ककड़ी का ठाकुरद्वारा, नालू का ठाकुरद्वारा, खनमुखेश्वर इत्यादि प्राचीन मंदिर और व्यास नामक गुफ़ा थी। इन मंदिरों में सबसे प्राचीन रंगनाथ मंदिर शिव को समर्पित था। कहा जाता है कि पुरातन काल में महर्षि वेद व्यास ने यहाँ सतलुज नदी के किनारे तपस्या की थी। ऐसी भी मान्यता है कि व्यास गुफ़ा में ही उन्होंने महाकाव्य महाभारत की रचना की थी। सम्भवतः इसी गुफ़ा के नाम पर इस स्थान का नाम व्यासपुर और फिर बिलासपुर पड़ा। राजा दीप चंद ने बिलासपुर में रंगमहल, धौलरा महल, रंगनाथ मंदिर के सामने धर्मशाला और देवमती मंदिर का निर्माण करवाया था। इस शहर ने राजसी शानो-शौक़त से लेकर आधुनिक बिलासपुर तक अनेक उतार चढ़ाव देखे हैं। 

लोग इसे डूबी हुई संस्कृति का शहर भी कहते हैं। यहां की सांस्कृतिक एवं पुरातात्विक धरोहर देश के विकास की ख़ातिर जल समाधि ले चुकी है। यह स्थल कभी उजाड़-वियावान हुआ करता था। इस शहर को चंदेल वंश के राजा दीपचंद ने अपनी राजधानी के रूप में विकसित किया था जो औरंगज़ेब का समकालीन था। कहलूर किले ने कई ऐतिहासिक बदलाव देखे हैं। यह रियासत स्वतंत्र होते हुए भी परोक्ष रूप में मुग़ल बादशाह के अधीनस्थ रियासतों में से एक थी। यहां के राजा मुग़लों को कर देकर अपनी सत्ता बनाए हुए थे। 

शुतुद्रि की निर्मल धारा के तट पर बसे इस सुरम्य शहर में सांडु का  मैदान आकर्षण का केन्द्र हुआ करता था जहां नगरवासी टहलने आया करते थे। कालांतर में 'गंभरी' (प्रसिद्ध लोक गायिका) के गिद्दे भी यहीं कहीं हुआ करते थे, मैदान टमकों से गुंजायमान रहता था, इर्द-गिर्द  बैलों की चौकड़ियां दृष्टिगोचर होती थीं। सायंकाल के समय सूर्य रश्मियां जल लहरियों पर बिछती हुई प्रतीत होती थीं। इस शहर की सुंदरता का वर्णन कई विदेशी यात्रियों ने अपने संस्मरणों में भी किया है। यहां बने मकानों की छतें टीन या घास की हुआ करती थीं। प्रत्येक हिन्दू घर के आंगन में तुलसी टियाला होता था। सतलुज नदी के तट पर प्राकृतिक जल स्रोतों पर जन-साधारण स्नान करते थे। शहर के एक छोर पर मुरली मनोहर का मंदिर था। राजा द्वारा आम जनता के लिए स्नानागार व पक्की बावड़ियां बनवाई गई थीं। पेयजल लोग पंचरुखी से भरकर लाया करते थे। शहर में उस समय बिजली नहीं हुआ करती थी। 

पुराने शहर में शिव को समर्पित भगवान रंगनाथ का मंदिर वास्तुकला व पुरातात्विक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण था। प्रतिहार शैली में निर्मित यह मंदिर लगभग आठवीं - नौवीं शताब्दी में बनाया गया था। इस परिसर में मुख्य मंदिर के अतिरिक्त चार अन्य लघु मंदिर थे। मुख्य मंदिर बाज़ार से लगभग पन्द्रह फ़ीट की ऊंचाई पर था। उसके सामने पत्थर से बनी नंदी की प्रतिमा स्थापित की गई थी। मंदिर तक पहुंचने के लिए पत्थर की सीढ़ियां थीं। इतिहासज्ञों के अनुसार चन्देल वंश की उन्चासवीं पीढ़ी में राजा ईलदेव ने रंगनाथ मंदिर की स्थापना की थी। अपने जीवन के अंतिम वर्ष उन्होंने अपनी भार्या विमलादेवी के साथ उत्तरी हिमालय में सतलुज नदी के किनारे व्यास गुफ़ा के निकट तपस्या में व्यतीत किए। वे शिव भक्त थे। अपने अंतिम क्षणों तक वह इसी मंदिर में शिव आराधना करते रहे। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनकी रानी विमला देवी भी वहीं सती हो गई। उनके पुत्र जयजयदेव ने अपने माता-पिता की याद में रंगनाथ का सुंदर मंदिर बनवाया और उसमें राजा ईलदेव तथा रानी विमलादेवी की मूर्तियां स्थापित करवाईं। तदुपरांत चंदेल वंशीय राजाओं की इस मंदिर के प्रति आस्था और गहरी हो गई। कालांतर में ईलदेव और विमला देवी की जगह शिव तथा पार्वती की मूर्तियां स्थापित करवाई गई। मान्यता है कि भगवान शिव के जलाभिषेक के बाद जल जब सतलुज नदी में मिलता था तो उस समय यहां बारिश होती थी।

रंगनाथ परिसर के समक्ष ऐतिहासिक सांडू मैदान में प्रसिद्ध नलवाड़ मेले का आयोजन किया जाता था। नलवाड़ी के अवसर पर रंगनाथ में नित्य आरती हुआ करती थी। स्थानीय लोगों द्वारा छिंज तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर भाग लिया जाता था। इस पशु मेले का आरम्भ सन् 1889 ई. में डब्ल्यू गोल्डस्टीन ने  किया था। यह मेला पशुओं के क्रय-विक्रय से संबंधित था जो वर्तमान में सांस्कृतिक मेले का रुप धारण कर चुका है। अब यह मेला लुहणु मैदान में आयोजित किया जाता है।

हंसती-खेलती इस नगरी को न जाने किसकी नज़र लगी और नौ अगस्त सन् 1961 को अपना अस्तित्व खोकर यह शहर भाखड़ा बांध के निर्माण के कारण बनी गोबिंदसागर झील में जलमग्न हो गया। इस झील ने बारह हज़ार परिवारों को बेघर करके उनके 354 गांवों को हमेशा के लिए अपने में समाहित कर लिया। इस दिन न केवल यह शहर डूबा बल्कि एक समृद्ध संस्कृति व इतिहास ने भी जल समाधि ली। 

पुराना नगर लगभग दो किलोमीटर की लंबाई में फैला था। गोहर, बांदलियो, छोटा बाज़ार, रंगनाथ तथा सांडु मैदान इसके प्रमुख अंग थे। आसे का नाला, नाले रा नौण, चामड़ू का कुंआ, चौंते का नौण, पंचरुखी, बावली आदि स्थलों पर सुबह-शाम रौनक रहती थी। सांडु मैदान के उत्तरी छोर पर बाबा बंगाली की गुमटी व संगमरमर की मूर्ति थी। मैदान की परिधि लगभग पांच किलोमीटर थी। रामलीला का मंचन गोहर बाज़ार में होता था। यहीं पर खाकीशाह की मजार बनी हुई थी। 

 गंगी और गिद्दों की ताल पर झूमते आम और लीची के बाग़, ऐतिहासिक सांडू मैदान, रंगनाथ, खनेश्वर, नर्वदेश्वर, गोपाल मंदिर, मुरली मनोहर मंदिर, बाह का ठाकुरद्वारा, ककड़ी का ठाकुरद्वारा, नालू का ठाकुरद्वारा, खनमुखेश्वर मन्दिर, रंगमहल तथा धौलरा महल के साथ सदियों पुराने कई स्मारक, पुरातन सांस्कृतिक धरोहरें और कई परंपराओं से सुसज्जित चंदेल वंश की कहलूर रियासत का इतिहास इस झील की गर्त में दफ़न कर दिया गया।

वक़्त के थपेड़ों का डटकर मुकाबला करने के पश्चात आज यह शहर फिर से गुलज़ार हो गया है। प्रदेश के अन्य शहरों की भान्ति आधुनिकता की चकाचौंध यहां भी दृष्टिगोचर है। यहां के मेहनतकश लोग जहां प्रगति पथ पर अग्रसर हैं वहीं अपनी सांस्कृतिक विरासत को भी संजोए रखने में प्रयासरत हैं। लुहणु मैदान में नलवाड़ी मेला आज भी सदियों पुरानी परम्परा का निर्वहन कर रहा है। किन्तु फिर भी जब मार्च महीने में गाद में डूबे खंडहर नज़र आने शुरु होते हैं तो स्थानीय लोगों के हृदय में 1961 की वह पीड़ा फिर से ताज़ा हो जाती है। डूबते सांडु को देखकर वेदित हृदय से उत्पन्न गीत की ये पंक्तियां -  "सांडु रे मदाना च झीला रा पाणी हुण से नलवाड़ी असां किती लाणी..." आज भी जनसाधारण की आंखों से आंसू छलका देती हैं।







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