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आवारा हूँ या बेसहारा? (एक बैल की कहानी ) - डॉ. राजेश चौहान Dr. Rajesh K Chauhan

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  आवारा हूँ या बेसहारा? (एक बैल की व्यथा) दोपहर का समय था। सूरज आग उगल रहा था। गर्म लू के थपेड़े हर किसी को छांव में दुबकने पर मजबूर कर रहे थे। सड़क किनारे उड़ती धूल और रास्ते पर दौड़ती गाड़ियों के शोर के बीच एक बूढ़ा बैल सड़क के किनारे धूल में पड़ा था। उसकी साँसें धीमी और भारी थीं, मानो हर सांस के साथ जीवन की लड़ाई लड़ रहा हो। उसका मरियल शरीर देखकर लग रहा था कि कई दिनों से उसे ठीक से खाना नहीं मिला। उसकी पसलियाँ बाहर झांक रही थीं, चमड़ी सूखकर हड्डियों से चिपक गई थी। शरीर पर जगह-जगह गहरे घाव थे कुछ पुराने तो कुछ ताज़े जिनसे हल्का-हल्का खून रिस रहा था। उसकी आँखों में एक अजीब-सी नमी थी। दर्द, लाचारी और भूख ने उसे तोड़ दिया था। कभी यह बैल खेतों को जोतता था, गांव के किसी किसान का सबसे भरोसेमंद साथी रहा होगा लेकिन अब बेबस होकर सड़क किनारे अपनी आखिरी घड़ियाँ गिन रहा था। इधर-उधर से गुजरती गाड़ियाँ अपनी रफ़्तार में थीं, कोई उसकी ओर ध्यान नहीं दे रहा था। कोई सहानुभूति नहीं, कोई रुककर उसकी हालत देखने वाला नहीं। शहर की इस तेज़ भागती दुनियां में उसके लिए कोई जगह नहीं बची थी। तभी, वहीं से गुज़र रहे...