अनुकरणीय संगीत शिक्षिका एवं कुशल प्रशासक : रेखा शर्मा - डॉ. राजेश चौहान ( Dr. Rajesh K Chauhan )

अनुकरणीय संगीत शिक्षिका एवं कुशल प्रशासक : रेखा शर्मा एक ऐसा नाम जिसे सुनते ही एक उजला, मुस्कुराता हुआ चेहरा आँखों के समक्ष दृष्टिगोचर होता है। यह केवल एक शिक्षिका का नाम नहीं, एक बड़ी सोच का नाम है। ऐसी सोच, जो मानती है कि शिक्षा किताबों से आगे भी जाती है और संगीत केवल कला नहीं बल्कि चरित्र का निर्माण भी करता है। यह एक विचार है, एक पद्धति है, एक मूल्य-व्यवस्था है। यह उस भरोसे का नाम है जो कहता है कि शिक्षा केवल परीक्षा पास करवाने का काम नहीं, जीवन गढ़ने की कला भी है। संगीत केवल सुरों का खेल नहीं, वह अनुशासन, संवेदना और स्वभाव का प्रशिक्षण भी है। यहां बात अनुकरणीय संगीत शिक्षिका एवं कुशल प्रशासक रेखा शर्मा की बात हो रही है जिन्होंने यह सिद्ध करके दिखाया है कि जब किसी शिक्षिका के हाथ में सितार की मिज़राब होती है और माथे पर जिम्मेदारी की बिंदी, तब विद्यालय केवल भवन नहीं रहता—वह एक विरासत बन जाता है। वहाँ हर सुबह प्रार्थना के शब्दों में किसी राग का उजाला उतर आता है। वहाँ हर कक्षा के द्वार पर हवा बदल जाती है—वह सीखने की हवा बनती है, मन को हल्का करती है और आँखों में चमक जगाती है। 
 5 नवम्बर 1967 को मण्डी शहर में जन्मी रेखा शर्मा अपने परिवार की सबसे छोटी संतान थीं। घर का संस्कार गहरा था। पिता श्री बंसीधर शर्मा हिमाचल प्रदेश सरकार में कानून सचिव और विधानसभा सचिव रहे। वे आचरण में गम्भीर,अनुशासित, सख्त,पर भीतर से बहुत स्नेही थे। उनकी उपस्थिति से घर में नियम, समय की पाबंदी और सार्वजनिक नैतिकता का भाव सहज आ गया था। माँ श्रीमती निर्मला शर्मा—1944 में हिन्दी प्रभाकर—उस समय में जब शिक्षित महिलाएँ बहुत कम मिलती थीं। माँ की पढ़ाई का असर सीधा बाल मन रेखा पर था—पढ़ना, सीखना और सीख को जीवन में उतारना, घर की हवा में यह सब सहज बहता था।
बड़ी बहनें भी शिक्षा और संगीत में आगे रहीं। मंजुला शर्मा संगीत प्राध्यापिका और आगे प्राचार्या बनीं। चन्द्रिका लखनपाल संगीत प्रवक्ता रहीं। परिवार में एक दिन पिता अपनी बड़ी बड़ी मृदुला शर्मा के लिए 163 रुपये का एक सितार घर लेकर आए। यह छोटा-सा प्रसंग सुनने में भले छोटा लगे पर इसका अर्थ बहुत बड़ा है। उस दिन से जैसे इनके घर में संगीत का कोई अदृश्य देवता आ गया। सितार की तारों ने घर की दीवारों को भी मुलायम बना दिया। रेखा ने बचपन से जैसे तय कर लिया कि इस आवाज़ को केवल सुनना नहीं, अपनाना है। फिर धीरे-धीरे, रोज़-रोज़, बिना शोर, बिना दिखावे के उनका अभ्यास शुरू हुआ। मूलतः ये हमीरपुर के बुढाण गाँव से हैं और इनका बचपन बिलासपुर शहर में बीता। परिवार का अनुभव और संसार का संघर्ष दोनों साथ-साथ मिले। पिता के असमय निधन ने घर पर एक बड़ा बोझ डाल दिया। यह ऐसा समय था जब बहुत-से लोग टूट जाते हैं। पर इनकी तपस्विनी मां नहीं टूटीं। उन्होंने भीतर से अपनी ताकत को फिर से इकट्ठा किया। दु:ख ने उन्हें रोका नहीं, सजग किया। समय के साथ रेखा के भीतर एक बात बैठ गई कि साधना ही सहारा है और संगीत ही वह सहारा है जिसे कहीं भी, कभी भी कोई छीन नहीं सकता। रेखा शर्मा ने हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से एम.ए. और एम.फिल. (वाद्य-संगीत) की शिक्षा ग्रहण की। इन्होंने प्रो.मंजुला शर्मा, प्रो.शुक्ला शर्मा, प्रो.नन्द लाल गर्ग, प्रो.भीमसेन शर्मा तथा डॉ. इंद्राणी चक्रवर्ती से सितार वादन की शिक्षा प्राप्त की है। एम.फिल. के लिए “हिमाचल प्रदेश के शास्त्रीय संगीत के प्रमुख कलाकार” विषय पर शोध प्रबंध प्रस्तुत किया। यह कोई केवल कागज़ भरने का काम नहीं था। यह बता रहा था कि रेखा शर्मा अपने साज़ को केवल बजाना नहीं जानतीं, उसकी पूजा करती हैं। वे जानती हैं कि संगीत का इतिहास, उसके घराने, उसके राग और उसके गुण सब मिलकर एक दृष्टि बनाते हैं। इसी दृष्टि के साथ वे आगे बढ़ीं। छात्र जीवन में उन्होंने अलग-अलग मंचों पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। राज्य-स्तर और राष्ट्रीय-स्तर पर युवा समारोहों में उनकी प्रस्तुतियाँ हुईं। एनसीसी में ‘सी’ सर्टिफिकेट लिया और अंडर ऑफिसर के रूप में जिम्मेदारी निभाई। यह सब उनके भीतर नेतृत्व की ईंटें जोड़ता गया— समय पर पहुँचना, टीम के साथ काम करना, लक्ष्य तय करना और उसे हासिल करना। रक्तदान जैसे कार्यों में भाग लिया। यह उनकी संवेदना को दिखाता है कि दूसरों की मदद करने में उन्हें आनंद आता है। वे हमेशा समुदाय के साथ खड़ी रहना चाहती हैं।
22 बार विजेता बनने का रिकॉर्ड 
रेखा शर्मा ने अपने शिक्षकीय जीवन की शुरुआत राजकीय कन्या वरिष्ठ माध्यमिक पाठशाला, धर्मशाला में संगीत प्रवक्ता के रूप में की। यहीं से उनके औपचारिक शिक्षण की यात्रा आरंभ हुई। इसके बाद जो कुछ भी हुआ वह केवल मेहनत या समय देने का परिणाम नहीं था बल्कि एक दिशा और उद्देश्य का विस्तार था। सितम्बर 1998 से लेकर 2021 तक, यानी पूरे 22 वर्षों तक, उन्होंने धर्मशाला में निष्ठा, अनुशासन और समर्पण के साथ अपनी सेवाएँ दीं। इन दो दशकों में विद्यालय ने 22 बार जिला स्तरीय और 20 बार राज्य स्तरीय सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं में प्रथम स्थान प्राप्त किया, जो हिमाचल के इतिहास में एक कीर्तिमान है। इन्होंने जनजातीय गद्दी नृत्य "नुआला" को अपने विद्यार्थियों के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुत किया और इस पर डॉक्यूमेंट्री भी तैयार की। धर्मशाला में उनका संगीत-कक्ष किसी मंदिर जैसा पवित्र माहौल लिए रहता था। सभी वाद्य-यंत्र अपनी जगह पर सजे रहते, चमकते रहते और उनकी देखभाल बच्चों के लिए एक जिम्मेदारी नहीं बल्कि सम्मान का कार्य होती। वे विद्यार्थियों को केवल सितार ही नहीं बल्कि सरोद, जलतरंग, तबला, बैंजो, नलतरंग, ढोलक, गिटार, कैसियो, संतूर, वायलिन और तार-शहनाई जैसे अनेक वाद्यों का प्रशिक्षण भी देतीं। यह विविधता दिखाती है कि वे संगीत को अलग-अलग हिस्सों में नहीं बल्कि एक समग्र कला के रूप में देखती थीं—जहाँ हर वाद्य एक ही सुरमय इंद्रधनुष का हिस्सा होता है। उनके प्रयासों से विद्यालय की प्रार्थना-सभाओं का रूप ही बदल गया। वहाँ केवल कार्यक्रम नहीं होते थे बल्कि भक्ति का भाव, देशभक्ति की प्रेरणा और विचारों की गहराई तीनों एक साथ महसूस होती। बच्चों की प्रस्तुतियाँ इतनी प्रभावशाली होतीं कि देखने वाले कहते, “ऐसा लगता है जैसे समय कुछ देर के लिए ठहर गया हो।” यह ठहराव शांति और आनंद का प्रतीक था। उनका घर भी एक छोटे गुरुकुल की तरह था। छुट्टियों में छात्राएँ वहाँ रुककर रियाज़ करतीं, अभ्यास करतीं, साथ में भोजन बनता, हँसी-मज़ाक होता और जब जरूरत पड़ती तो डाँट भी मिलती। वे छात्राओं से स्नेहपूर्ण लेकिन अनुशासित व्यवहार रखतीं। वे हमेशा कहतीं—“प्रेम का अर्थ नियमों को तोड़ना नहीं बल्कि उन्हें सहजता से समझाना है।” वे आर्थिक रूप से कमजोर छात्राओं की मदद के लिए स्वयं आगे आतीं—कभी किताबें खरीद देतीं, कभी वर्दी और कभी पैसे। यह सहायता केवल वस्तुओं की नहीं बल्कि आत्मविश्वास देने की थी। जब किसी छात्रा को यह विश्वास हो जाता कि “कोई है जो मेरे साथ है,” तो उसका प्रदर्शन भी निखर उठता। कर्तव्य निष्ठा के लिए समर्पित रेखा शर्मा ने अपने सेवा काल में अपने घर को संस्थान तथा अपने संस्थान को अपना घर समझा। उनके इसी समर्पण का परिणाम था कि आगे चलकर लगभग 30 छात्राएँ एम.फिल. और 15 छात्राएँ पीएच.डी. की उपाधि तक पहुँचीं। यह केवल आँकड़े नहीं हैं बल्कि वर्षों की मेहनत, मार्गदर्शन और मातृवत परवरिश का परिणाम है। उनकी कक्षा में केवल संगीत नहीं— धैर्य, आत्मविश्वास और संयम की सीख भी दी जाती है। 

विभिन्न संस्थाओं से प्राप्त सम्मान 
 शिक्षिका के रुप में लंबी यात्रा में रेखा शर्मा को समाज ने अनेक सम्मानों से नवाज़ा । 2006 में उन्हें रोटरी क्लब धर्मशाला द्वारा दिया गया ‘श्रेष्ठ अध्यापक सम्मान’—तिब्बती निर्वासित सरकार के प्रधानमंत्री और शिक्षाविद् डॉ. सामदोंग रिम्पोंच्छे के कर कमलों से प्राप्त हुआ। 2009 में ‘हिमाचल दिस वीक’ और ‘दिव्य हिमाचल’ द्वारा ‘टीचर्स ऑफ द ईयर’ (रनर-अप)। 2012 में धर्मशाला विद्यालय को “इंस्टिट्यूट ऑफ द ईयर” का सम्मान। प्रदेश स्कूल खेल संघ द्वारा 22 बार सम्मान। 'वूमेन पावर अवॉर्ड 2023' और अनेक संस्थागत,सामाजिक तथा सांस्कृतिक सम्मान मिले। 

रेखा शर्मा पर हो चुका है शोध कार्य 
ग़ौरतलब है कि रेखा शर्मा के व्यक्तित्व, कृतित्व एवं सांगीतिक योगदान पर हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला के संगीत विभाग में एम.फिल. उपाधि के लिए शोध कार्य संपन्न हो चुका है। यह शोध कार्य सत्र 2020-21 में डॉ. परमानंद बंसल के निर्देशन में शोधार्थी मीना कुमारी द्वारा पूर्ण किया गया। यह रेखा शर्मा के व्यक्तित्व- योगदान तथा सांगीतिक जीवन की एक उल्लेखनीय एवं विशेष उपलब्धि है। 

लेखन कार्य 
रेखा शर्मा अपने पति डॉ.सुरेश शर्मा के साथ हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग की जमा एक और दो कक्षाओं के लिए "सुर संगीत " नाम से संगीत की पुस्तक लिख चुकी हैं, जो हिमाचल प्रदेश स्कूल शिक्षा बोर्ड के द्वारा अनुमोदित है। इसके अतिरिक्त इनके विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में अनेक लेख प्रकाशित हो चुके हैं। परन्तु विडंबना है कि आज तक राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा विभाग या प्रदेश सरकार द्वारा उन्हें कोई बड़ा औपचारिक सम्मान नहीं दिया गया है। यह बात मन को चुभती है। रेखा शर्मा जी से जब सम्मान का ज़िक्र किया जाता है तो वे बड़े ही सरल और स्पष्ट शब्दों में कहती हैं कि, "मेहनत इतनी ख़ामोशी से करो कि सफलता शोर मचा दे। मैं किसी सम्मान के लिए काम नहीं करती, मेरा काम ही मेरा सम्मान है।” यह वाक्य बहुत सरल है परन्तु इसमें गीता का ज्ञान छुपा है—कर्म करना ही साधना है। फिर भी, राज्य, प्रशासन और शिक्षा विभाग का कर्तव्य है कि वे रेखा शर्मा जैसी प्रेरक शख्सियतों को औपचारिक रूप से पहचानें और सम्मान दें। इससे युवाओं का भरोसा बनता है। इससे समाज में ईमानदार काम की संस्कृति को ताकत मिलती है। 
  
प्रधानाचार्या के रूप में कार्य 
1 अप्रैल 2021 को रेखा शर्मा ज़िला बिलासपुर के पिछड़े क्षेत्र कोटधार में राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक पाठशाला, जेजवीं की प्रधानाचार्या बनीं। यह नया अध्याय था। एक पत्रकार ने पूछा —“एक संगीत-शिक्षिका प्रशासन कैसे संभालेगी?” उन्होंने कहा -"एक महिला भारत की प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बन कर देश को चला सकती हैं तो पाठशाला प्रशासन भी कोई मुश्किल काम नहीं है। ईमानदार प्रयास और मजबूत इरादा चाहिए।" उन्होंने प्रशासन को आदेश-पत्र नहीं बनाया, उसे एक जीवित प्रक्रिया की तरह अपनाया—जहाँ हर निर्णय के केंद्र में विद्यार्थी है, उनकी पढ़ाई है और उनका भविष्य है। एक वर्ष के अंदर स्कूल झण्डूता खंड में प्रथम हुआ और जिले की पाँच श्रेष्ठ पाठशालाओं में आया। लगभग तेरह लाख रुपये विकास के लिए जुटे। कक्षाओं में सीसीटीवी लगे—पारदर्शिता के साथ सुरक्षा भी बढ़ी। जल-व्यवस्था के लिए बड़े कूलर और टंकियाँ लगीं। विद्यालय परिसर में माँ सरस्वती का मंदिर स्थापित हुआ—यह केवल प्रतीकात्मक नहीं, यह एक याद दिलाना था कि शिक्षा पूजा है। शौचालयों के लिए स्वीकृतियाँ मिलीं। 10वीं और 12वीं के परिणाम शत-प्रतिशत रहे पहली बार पाठशाला में दो विद्यार्थी शिक्षा बोर्ड की मैरिट में दिखे। अभिभावक-शिक्षक मीटिंग अब केवल ‘एक कार्यक्रम’ नहीं, ‘एक साझेदारी’ बन गई। यह सब यह बताता है कि रेखा शर्मा प्रशासन को केवल कागज नहीं समझतीं, वह उसे जीवन में उतारती हैं—लोगों के साथ बैठकर, बात करके, समझकर और साथ लेकर।
शिक्षा में नवाचार का यह सिलसिला लगातार चलता रहा वर्ष 2024 में रेखा शर्मा का तबादला राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक पाठशाला डंगार में हुआ। यहां प्रधानाचार्य का पद लंबे समय से खाली रहा था। वे आईं, तो संस्थान ने जैसे चैन की साँस ली। उन्होंने योजनाएँ बनाईं, पर उससे ज्यादा ज़रूरी था उन्हें ज़मीन पर उतारा। स्पेस लैब ‘आर्यभट्ट’—यह बच्चों की जिज्ञासा का नया आकाश था। विज्ञान अब किताब की तस्वीरों से आगे बढ़कर प्रयोग-टेबल तक पहुँचा। भाषा लैब—अभिव्यक्ति के लिए मंच। बोलना, सुनना, पढ़ना और लिखना—सबका व्यवस्थित अभ्यास। हर्बल गार्डन—हल्दी, अदरक, अश्वगंधा—बंजर जमीन को उपजाऊ बनाना। बच्चों ने पौधों से परिचय किया, मिट्टी से दोस्ती की। मशरूम और अनेकों प्रकार की सब्जियाँ—मिड-डे मील में उपयोग। इसका अर्थ है—आत्मनिर्भरता, पोषण और सीख का सीधा संबंध। गिरे हुए सफेदे के पेड़ की लकड़ी—फर्नीचर और पार्क का साज-सज्जा। यह पर्यावरण का पाठ भी है और अर्थ-व्यवस्था का भी। प्रत्येक कक्षा के बाहर ‘ओपन लाइब्रेरी’—किताबें अब केवल ‘अलमारी’ में नहीं, बच्चों के हाथ में हैं। जब चाहें, बैठें और पढ़ें। नशा-विरोधी मुहिम—विद्यार्थियों के साथ दुकानों तक संदेश पहुँचना। यह स्कूल की दीवारों से बाहर समाज तक पहुँचने का काम है। “बैग-फ्री डे”—शुचिता, वातावरण और जिम्मेदारी की संस्कृति। अनुपस्थित बच्चों के घर निरंतर बात करना—यह बताता है कि प्रशासन का अर्थ केवल उपस्थिति रजिस्टर भरना नहीं, परिवार से संवाद करना भी है। इन सबका असर परिणामों में साफ दिखा। कई विद्यार्थी एमबीबीएस, नेवी, आर्मी तक पहुँचे। यह सब ‘हीरोइज़्म’ नहीं, ‘ह्यूमन’ काम है—जो रोज़ के छोटे-छोटे सुधारों से बनता है। अधिकारी आए, सराहना की और कहा कि ऐसे कामों को दूसरे स्कूलों में भी किया जाना चाहिए। यह प्रशंसा केवल शब्द नहीं, प्रोत्साहन है। रेखा शर्मा का नेतृत्व सादा है। वे कहती हैं, “जो है, उससे शुरू करते हैं।” उनकी भाषा में दिखावा नहीं, दिशा है। वे मानती हैं कि विद्यालय केवल पाठ्यक्रम का स्थान नहीं—यह जीवन सीखने का स्थान है। इसलिए वे ‘सुंदर’ को ‘सही’ के बराबर स्थान देती हैं। सुंदरता का अर्थ है—साफ-सफाई, अनुशासन, समय पर काम, और अपनी जगह की इज़्ज़त। यही कारण है कि उनका संगीत-कक्ष मंदिर जैसा लगता था और जेजवीं-डंगार में ओपन लाइब्रेरी, हर्बल गार्डन, स्पेस लैब और रिसाइक्लिंग—ये सब केवल क्रियाएँ नहीं, संस्कार हैं। वे बच्चों से सरल भाषा में बात करती हैं। वे बताती हैं कि सफलता केवल ट्रॉफी नहीं—वह एक शांत आत्मविश्वास भी है। हार केवल कम अंक नहीं—वह विनम्रता भी है जो हमें आगे बढ़ने की इच्छा देती है। वे कहती हैं—“पहले सुनो।” जो सुनना सीखता है, वही समझता है। जो समझता है, वही बदलता है। जो बदलता है, वही समाज को बदलने की दिशा दिखाता है। संगीत का पहला पाठ—सुनना है। जीवन का पहला पाठ भी—सुनना ही है। उनका मानना है यदि सरकारी विद्यालयों के सभी शिक्षक पूरी तन्मयता और ईमानदारी के साथ कार्य करें तो भारत को फिर से विश्वगुरु बनने से कोई नहीं रोक सकता। रेखा शर्मा इस वर्ष नवंबर माह में उनका सेवानिवृत्ति होने वाली हैं। सेवानिवृत्ति के पश्चात भी वह संगीत, शिक्षा और सामाजिक कार्यों से जुड़ी रहेंगी। कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि के बच्चों के लिए काम करना उनकी प्राथमिकता रहेगी। फीस में मदद, किताबें, वाद्य, मार्गदर्शन—जहाँ जो संभव होगा, वे आगे बढ़कर मदद करेंगी। अगर अवसर मिला, तो सामुदायिक संगीत-केंद्र, सप्ताहांत रियाज़ और ओपन रिकिटल जैसे छोटे-छोटे आयोजन करना चाहेंगी। मॉर्निंग असेंबली के लिए एक सरल, प्रभावी मॉडल स्कूलों के साथ साझा करना चाहेंगी। पर वे किसी योजना को अभी अंतिम रूप नहीं देतीं। वे चाहती हैं कि भविष्य की बातें धीरे-धीरे, ज़मीन की जरूरत के साथ तय हों। यही उनकी शैली है—कागज़ की नहीं, काम की। 
  
 परिवार का सहयोग है बहुत जरूरी
रेखा शर्मा का परिवार उनके काम की सबसे बड़ी ताकत है। रेखा शर्मा अपने पति बहुआयामी संगीतज्ञ, अभिनेता, शिक्षाविद्, लेखक, वक्ता तथा अभिनेता डॉ.सुरेश शर्मा को अपना रोल मॉडल, प्रेरक तथा प्रोत्साहक मानती हैं। उनके अनुसार डॉ. शर्मा एक कर्मठ, तथा कर्तव्यनिष्ठ एवं सैद्धांतिक व्यक्ति हैं जो संगीत ,समाज तथा संस्कृति के लिए सदैव समर्पित रहते हैं। वे हर कदम पर उनका साथ देते हैं। उनके बेटे सुरंजन सिंगापुर में विश्व की प्रतिष्ठित कम्पनी में प्रतिष्ठित फायनाशियल कन्सलटेंट कार्यरत हैं तथा अपनी मेहनत व प्रतिभा से परिवार का नाम रोशन कर रहे हैं। बेटी सुरनंदिनी का विवाह हो चुका है और वह भी अपने पति कानपुर मूल के तथा हरियाणा सरकार में ज़िला खाद्य आपूर्ति नियंत्रक अपार तिवारी के साथ जीवन में संतुलन, संस्कार और खुशहाली के साथ आगे बढ़ रही हैं। दोनों बच्चे अपने माता-पिता की तरह एक सुंदर और जिम्मेदार जीवन जी रहे हैं। इनके ससुर रूपलाल शर्मा, जो सेवानिवृत्त शिक्षक हैं और उनकी सास रामेश्वरी देवी, घर में गुरु-परंपरा के सजीव प्रतीक हैं। यह एक ऐसा परिवार है जहाँ बेटी और बहू का रिश्ता सम्मान, स्नेह और अपनापन से भरा हुआ है। रेखा शर्मा को पाक-कला में विशेष रुचि है, वे निवास "स्वराँगन" में पधारे अतिथि का सत्कार करना अपना सौभाग्य मानती हैं। उनका जीवन यह सिखाता है कि ‘विशेष’ दिखने के लिए ‘असामान्य’ बनना जरूरी नहीं। यदि सामान्य जीवन भी प्रेम, समर्पण और जिम्मेदारी से जिया जाए, तो वह दूसरों के लिए प्रेरणा बन सकता है।
रेखा शर्मा की दृष्टि में विद्यालय का अर्थ है—बच्चों का सर्वांगीण विकास। विकास का अर्थ केवल अंक अच्छे आना नहीं—शरीर, मन और आचरण का संतुलन बनना। इसलिए वे कक्षा के बाहर भी सीखने के अवसर बनाती हैं। ओपन लाइब्रेरी एक आदत बनाती है—जब चाहो पढ़ो। हर्बल गार्डन प्रकृति से जोड़ता है—मिट्टी से रिश्ता बनाओ। स्पेस लैब जिज्ञासा जगाती है—क्यों, कैसे, कब। नशा-विरोधी मुहिम समाज से संवाद बनाती है—स्कूल केवल दीवारों तक सीमित नहीं। गिरे पेड़ की लकड़ी से फर्नीचर बनाना—यह बताता है कि संसाधन सीमित हों, तो भी उपाय निकाला जा सकता है। यही वह दृष्टि है जो किसी भी सरकारी स्कूल को ‘नए सिरे से’ खड़ा कर सकती है। अपने सेवाकाल के दौरान तीन विद्यालयों में काम अलग-अलग था—क्योंकि संदर्भ अलग थे। पर मूल राग एक ही था—बच्चों का भला। धर्मशाला में कक्षा-मंदिर, रियाज़, मंच और रिकॉर्ड। जेजवीं में प्रशासन, संरचना, संवाद और परिणाम। डंगार में प्रयोग, प्रकृति, लैब और समुदाय। तीनों जगहों पर एक बात समान रही—इनका सादा, स्पष्ट और दयालु नेतृत्व। वे किसी पर हुक्म नहीं चलातीं, वे साथ लेकर चलती हैं। यही वजह है कि उनके आने के बाद लोग आगे बढ़ते हैं, जुड़ते हैं, और अपने हिस्से का काम खुशी से करते हैं। इनके अनुसार अनुशासन का अर्थ डर नहीं है। अनुशासन का अर्थ है—अपने समय, साधनों और व्यवहार का सम्मान। कला का अर्थ केवल प्रदर्शन नहीं है। कला का अर्थ है—अंदर की सफाई। स्कूल केवल पाठ्य-पुस्तक का अभ्यास नहीं है। स्कूल जीवन का अभ्यास है—बोलने का, सुनने का, साथ काम करने का, और जिम्मेदारी निभाने का। सम्मान का अर्थ ताज नहीं है। सम्मान का अर्थ है—दूसरों के लिए सही उदाहरण बनना। प्रशासन का अर्थ बायोमेट्रिक और बैठकों की संख्या नहीं। प्रशासन का अर्थ है—समस्या को मौके में बदलना। 

जहाँ काम बोलता है, शब्द नहीं 
अगर किसी दिन आप उस स्कूल से गुजरें, जहाँ रेखा शर्मा काम कर चुकी हैं या वर्तमान मैं कार्यरत हैं तो आपको कुछ चीज़ें सामान्य से अलग दिखेंगी। पेड़ों की छाया में कहीं बच्चे किताबें पढ़ते दिखेंगे। किसी कोने में कोई बच्चा सितार या संतूर के तार छेड़ता हुआ मिलेगा। किसी दिन सुबह-सुबह प्रार्थना में ऐसा गीत सुनाई देगा जिसमें ‘देश’ और ‘दयालुता’ दोनों एक साथ होंगे। कहीं किसी दीवार पर साफ-सफाई का संदेश नहीं, साफ-सफाई खुद दिखेगी। किसी कमरे में पुराने लकड़ी से बनी नई मेज़ दिखेगी—और उसके पास बैठा कोई बच्चा अपने सपनों की सूची बना रहा होगा। और कहीं—बहुत पास—आपको एक सादा-सा चेहरा दिखेगा, जिसके माथे पर जिम्मेदारी की बिंदी है और आँखों में भरोसा। वह चेहरा रेखा शर्मा का होगा। वे आपसे कुछ कहेंगी नहीं—क्योंकि उन्हें कहना नहीं आता—उन्हें करना आता है। और शायद यही सबसे अच्छा है—क्योंकि जो काम खुद बोलता है, उसे शब्दों की जरूरत कम पड़ती है। रेखा शर्मा का जीवन मेहनत, ईमानदारी, संवेदना और नेतृत्व की साधारण परन्तु कठिन यात्रा है। यह यात्रा बताती है कि अगर आप अपनी कक्षा को मंदिर बना लें, अपनी योजनाओं को ज़मीन से जोड़ दें, और अपने विद्यार्थियों को अपना परिवार समझ लें—तो आप जो भी छूएँगे, वह बदलने लगेगा। स्कूल बदलेंगे, बच्चे बदलेंगे, और समाज बदलने लगेगा। यह बदलाव धीरे-धीरे होगा—पर यह होगा जरूर। क्योंकि यह बदलाव किसी आदेश से नहीं, प्रेम से होता है। आज, जब हम रेखा शर्मा के काम को देखते हैं, तो हमें अपने भीतर यह यकीन मजबूत करना चाहिए कि अच्छे काम का कोई विकल्प नहीं। अच्छे काम की राह लंबी हो सकती है, पर वह सबसे सुरक्षित राह है। उसी राह पर चलकर हम अपने बच्चों के लिए एक बेहतर कल बना सकते हैं और शायद यही सबसे बड़ा ‘पुरस्कार’ है। रेखा शर्मा एक समर्पित गुरु, एक कुशल प्रशासक एवं स्वर साधिका हैं। जिनकी कक्षा में राग है, जिनके निर्णय में नीति है और जिनके मन में करुणा है। यही तीन चीज़ें अगर किसी शिक्षक के पास हों तो उसे किसी और पहचान की जरूरत नहीं। 

 “नाटी जिसने मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह को रोक लिया” 
"एक बार हिमाचल प्रदेश स्कूल शिक्षा बोर्ड परिसर धर्मशाला में मेधावियों के सम्मान का कार्यक्रम था। इसमें उस समय के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह मुख्य अतिथि थे। सम्मान समारोह समाप्त हो चुका था। रेखा शर्मा के विद्यार्थियों की प्रस्तुति शेष रह गई थी। बच्चे मायूस थे यह बच्चे मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के पास आग्रह करने लगे कि उनका एक नाटी नृत्य है अगर आप देख सकें। मुख्यमंत्री ने कार्यक्रम समाप्त होने के बाद इन बच्चों की नाटी की प्रस्तुति देखने की इच्छा जताई और मुख्यमंत्री अपने मंत्रियों, अधिकारियों के साथ स्टेज पर खड़े होकर उन बच्चों का नृत्य देखा, तालियां बजाई और स्वयं भी नाचने लगे। मुख्यमंत्री के प्रोटोकॉल में एक-एक मिनट का हिसाब होता है लेकिन कम से कम 15-20 मिनट कार्यक्रम का आनंद लेने के बाद नृत्य करती छात्रों की प्रशंसा तथा प्रोत्साहन के लिए एक-एक छात्रा से मिले। रेखा शर्मा को इस नाटी की प्रस्तुति के लिए धन्यवाद करते हुए कहा - "ऐसी नाटी तो हमारे रोहड़ू में भी नहीं होती और अपने संबोधन में कहा की संगीत विषय बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए बहुत आवश्यक है। हिमाचल प्रदेश की प्रत्येक पाठशाला में संगीत विषय होगा, लेकिन शर्त यह की संगीत ऐसा हो, जैसा की राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक कन्या पाठशाला धर्मशाला की छात्राओं नने प्रस्तुत किया।" यह कहते हुए एकदम से तत्कालीन स्कूल शिक्षा बोर्ड अध्यक्ष बी. एम. नैंटा को पैसे दो-पैसे दो। नैंटा साहब ने अपनी जेब से 2000 रूपये निकाल कर वीरभद्र सिंह जी को दिए उन्होंने मंच पर वह पैसे गिने और फिर से कहा - और दो- और दो और नैंटा साहिब कहीं पीछे किसी व्यक्ति से तीन हज़ार रूपये और लाए तब पांच हज़ार रूपये रेखा शर्मा को इनाम स्वरूप देने के बाद मुख्यमंत्री अपने आगामी कार्यक्रम के लिए रवाना हो गए। 

 संगीत की पाठशाला 
धर्मशाला में रेखा शर्मा ने जिस ‘संगीत-कक्ष' को मंदिर-सा रूप दिया था, वह आज भी लोगों की स्मृतियों में जीवंत है। वहाँ वाद्य केवल उपकरण नहीं थे बल्कि पूजनीय थे। छात्राएँ मात्र विद्यार्थी नहीं, साधिकाएं थीं और शिक्षक केवल अध्यापक नहीं, आचार्य थे। हर सुबह की प्रार्थना केवल एक कार्यक्रम नहीं होती थी—वह दिन की आध्यात्मिक शुरुआत होती थी। इनके कार्यकाल में राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक पाठशाला, धर्मशाला सचमुच ‘संगीत की पाठशाला’ बन गई थी। लगातार 22 वर्षों तक विद्यालय ने जिला और 20 बार राज्य स्तरीय सांगीतिक प्रतियोगिताओं में अव्वल स्थान प्राप्त किया। समाचार पत्रों में यह विद्यालय ‘संगीत की पाठशाला’ के शीर्षक से सुर्खियों में रहा। दूर-दूर से शिक्षक अपने विद्यार्थियों के साथ यहाँ की प्रार्थना सभा देखने आते थे ताकि कुछ नया सीख सकें। अधिकारीगण भी इस अनुशासित और सांगीतिक वातावरण की सराहना करने आते थे परन्तु आज यह देखकर मन व्यथित होता है कि वही संगीत-कक्षा, जो कभी विद्यालय की शान थी, अब निर्जीव और मौन पड़ी है। वहाँ अब कोई संगीत शिक्षक ही नहीं है और वह परंपरा, जिसे रेखा शर्मा जैसी कर्मनिष्ठ और दूरदर्शी शिक्षिका ने जीवित किया था, अब विलुप्त होने के कगार पर है। फिर भी रेखा शर्मा के मन में आशा की लौ जलती है—क्योंकि वे जानती हैं, संगीत रुकता नहीं, वह केवल ठहरता है… और फिर किसी नई धुन, किसी नए मंच या किसी बच्चे की पहली तान में लौट आता है। 
 
शिक्षा में नवाचार एवं सृजन 
करीब छह वर्ष पहले तेज़ आँधी में यह विशाल पेड़ उखड़कर नाले में गिर गया था। वर्षों तक वह मिट्टी में पड़ा रहा — जैसे अपनी नियति से हार चुका हो। पर विद्यालय की प्रधानाचार्या रेखा शर्मा ने उसमें जीवन की संभावना देखी। जहाँ और लोग केवल सूखी लकड़ी देखते थे, वहाँ उन्होंने सृजन की चिंगारी देखी। कई लोगों ने सलाह दी कि पेड़ को बेच दिया जाए, पर रेखा शर्मा ने कहा, “सरकारी सम्पत्ति बिकने के लिए नहीं, बनने के लिए होती है। यह पेड़ अब बच्चों का साथी बनेगा।” उनकी इसी दूरदृष्टि और सकारात्मक सोच से शुरू हुआ “वेस्ट टू बेस्ट” का सफर। अध्यापकों, एसएमसी सदस्यों और विद्यार्थियों के सहयोग से पेड़ को जेसीबी की मदद से नाले से बाहर निकाला गया। मिट्टी से सने उस पेड़ को साफ कर कारीगरों से बिना किसी नुकसान के उसके डेढ़ से दो फुट के टुकड़े करवाए गए। इन्हीं टुकड़ों से बच्चों के बैठने के लिए लगभग 26 ठेले और बेंचें बनाई गईं। विद्यार्थियों और अध्यापकों ने मिलकर इन लकड़ी के टुकड़ों पर रंगों की वर्षा कर दी—तीस से अधिक सुंदर पेंटिंग्स बनीं, जिन पर जीवन, शिक्षा, पर्यावरण और नैतिकता से जुड़े प्रेरक संदेश लिखे गए। प्रत्येक ठेला अब केवल लकड़ी का टुकड़ा नहीं, बल्कि एक जीवित सीख है। पेड़ की विशाल जड़ को भी सहेजा गया। उसे जेसीबी से निकालकर विद्यालय के मुख्य द्वार के पास कलात्मक रूप में स्थापित किया गया। बच्चों ने उसे प्राकृतिक सजावट और पत्थर की पेंटिंग से सजाया। अब वह जड़ विद्यालय की आत्मा बन चुकी है — एक प्रतीक कि “जो जड़ें गहरी होती हैं, वही बार-बार जीवन देती हैं।” इस रचनात्मक प्रयास से विद्यालय को बिना किसी सरकारी खर्च के लगभग एक से दो लाख रुपये मूल्य के उपयोगी संसाधन प्राप्त हुए। पर असली उपलब्धि वह प्रेरणा है, जो इस काम से बच्चों और शिक्षकों के मन में पनपी। रेखा शर्मा ने इस प्रयास से यह साबित कर दिया कि, “शिक्षा केवल किताबों में नहीं, सोच में होती है। जब मन में सृजन का दीप जलता है, तो सूखी लकड़ी भी जीवन गा उठती है।” आज वही सफ़ेदे का पेड़ विद्यालय के प्रांगण में खड़ा है — एक जीवित मिसाल बनकर। जो कभी तूफ़ान में गिरा था, आज वह बच्चों की मुस्कान, रंगों की छटा और सृजन की प्रेरणा बन चुका है। उनका प्रेरक वाक्य-" मेहनत इतनी खामोशी से करो कि सफलता शोर मचा दे" आज सैकड़ों विद्यार्थियों के जीवन में सफलता की लौ जगा रहा है।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

आवारा हूँ या बेसहारा? (एक बैल की कहानी ) - डॉ. राजेश चौहान Dr. Rajesh K Chauhan

संगीत एक उत्तम औषधि (संगीत चिकित्सा Music therapy)- Dr. Rajesh K Chauhan