शनिवार, 14 अप्रैल 2018

संगीत एक उत्तम औषधि (संगीत चिकित्सा Music therapy)- Dr. Rajesh K Chauhan

संगीत एक उत्तम औषधि 


Dr.Rajesh k Chauhan 
                                   
जिस प्रकार प्राणी जगत में प्रकाश और उष्मा के प्रभाव से जीवों के शरीर बढ़ते, पुष्ट और स्वस्थ होते हैं उसी प्रकार ध्वनि में विद्यमान तापीय और प्रकाशीय ऊर्जा प्राणधारियों के विकास में सहायक है। यह ऊर्जा उनके जीवन में अन्न और जल की ही भांति महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। पीड़ाग्रस्त व्यक्ति के लिए तो संगीत उस रामबाण औषधि की तरह है जिसका श्रवण करते ही तात्कालिक शांति मिलती है। कुछ लोग कहते हैं कि यह भावुक अभिव्यक्ति मात्र है, किन्तु वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं ने संगीत की उन विलक्षण बातों का पता लगाया है जो मनुष्य शरीर में शाश्वत चेतना को और भी स्पष्टता से प्रमाणित करती हैं।
इस विषय पर अनेक शोध किए गए हैं। अन्नामलाई विश्वविद्यालय में वनस्पति शास्त्र के विभागाध्यक्ष डॉ.टी.सी.एन.सिंह और उनकी सहयोगिनी कुमारी स्टेला पुनैया के वनस्पति और प्राणियों पर किये गये संगीत के परीक्षण इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय हैं। वास्तव में ईश्वर, आत्मा, जीवन-व्यवस्था, समाज-व्यवस्था आदि पर विभिन्न लोगों तथा विभिन्न जातियों के अनेक मत हो सकते हैं, किन्तु संगीत की उपयोगिता और सम्मोहिनी शक्ति पर किसी भी देश के किसी भी व्यक्ति को विरोध नहीं है । शायद ही कोई ऐसा अपवाद हो, जिसे संगीत, वाद्य और नृत्य अच्छे न लगते हों। मनुष्य का संगीत के प्रति स्वाभाविक प्रेम ही इस बात का प्रमाण है कि वह कोई नैसर्गिक तत्त्व और प्रक्रिया है।
नार्मन बिन्सेन्ट पील ने “जीवन भर जीवित बने रहिये” पुस्तक में मृत्यु के उपरान्त जीवन की शास्त्रीय पुष्टि के अनेक महत्त्वपूर्ण उदाहरण दिये हैं- उन्होंने लिखा है कि “मुझे एक नर्स ने जिसने अनेकों व्यक्तियों को मरते देखा था, बताया कि मृत्यु के क्षणों में जीवन को कुछ अलौकिक दर्शन और श्रवण होता है। कुछ मरने वालों ने बताया कि उन्हें आश्चर्यजनक ज्योति और संगीत सुनाई दे रहा है ।” यह उदाहरण संगीत को जीवन का शाश्वत उपदान ही प्रमाणित करता है पर प्रश्न यह हो सकता है साधारण गायक और श्रोता, नृत्य या अभिनय द्वारा अपनी चेतना को लय में बाँधने वाला उस असीम सुख को प्राप्त क्यों नहीं करता? असल में यह विषय मन की तन्मयता से सम्बन्धित है पर उतनी तन्मयता न हो तो भी संगीत का मनुष्य के मस्तिष्क, हृदय और शरीर पर विलक्षण प्रभाव अवश्य होता है और उससे मूल चेतना के प्रति आकर्षण और अनुराग ही बढ़ता है। स्वभाव के रूखे और कटु व्यक्ति संगीत प्रेमी नहीं होते हैं ऐसा माना जाता है, किन्तु  यह एक विलक्षण सत्य है कि संगीत उन्हें भी सम्मोहित करता है। कला के प्रति अनुराग ही अध्यात्म की प्रथम सीढ़ी है। ऐसे व्यक्ति में भावनायें होना स्वाभाविक ही है।
हमारे शरीर में प्रातः काल और सायंकाल ही अधिक शिथिलता रहती है।  उसका कारण ‘प्रोटोप्लाज़्मा’ की शक्ति का ह्रास है। सुबह के समय शरीर थकावट रहित होता है फिर भी  पिछले दिन की थकावट का प्रभाव आलस्य के रूप में उभरा हुआ रहता है। प्रोटोप्लाज़्मा जिससे जीवित शरीर की रचना होती है, इन दोनों समयों में अस्त-व्यस्त हो जाता है, उस समय यदि भारी काम करें तो शिथिलता के कारण शरीर पर भारी दबाव पड़ता है और मानसिक खीझ और उद्विग्नता बढ़ती है। थकावट में ऐसा सबके साथ होता है। गर्मा -गर्म पदार्थ खाने से कुछ क्षणों के लिये प्रोटोप्लाज़्मा के अणु तरंगायित तो होते हैं पर वह तरंग उस तूफ़ान की तरह तेज़ होती है, जो थोड़ी देर के लिये सारे पेड़-पौधों को झकझोर कर रख देती है। उसके बाद चारों ओर सुनसान भयानकता-सी छा जाती है, उत्तेजक पदार्थों के सेवन से धीरे-धीरे बुद्धि का ह्रास होता है , इसलिये इस समय नशापान स्वास्थ्य को बुरी तरह चौपट करने वाला होता है।
शिथिल हुए प्रोटोप्लाज़्मा की संगीत की लहरियाँ उस तरह हल्की मालिश करती हैं, जिस तरह किसी बहुत प्रियजन के समीप आने पर हृदय में मस्ती और सुहावनापन छलकता है, इसलिये प्रातः काल का संगीत जहाँ शरीर को स्फूर्ति और बल प्रदान करता है, हृदय, स्नायुओं, मन और भावनाओं को भी स्निग्धता से आप्लावित कर देता है। इसलिये प्रातः काल और सायंकाल दो समय तो प्रत्येक व्यक्ति को गाना-बजाना अवश्य चाहिये। सामूहिक रूप से गायन-वादन किया जाए तो बहुत ही अच्छा, अन्यथा किसी भी माध्यम से सरस और भाव प्रधान गीत तो इस समय अवश्य ही सुनना चाहिये।
डॉ.टी.सी.एन.सिंह ने दस वर्ष तक एक बाग को दो हिस्सों में बाँटकर एक परीक्षण किया। एक हिस्से के पौधों को कु. स्टैला पुनैया वायलिन बजाकर गीत सुनाती दूसरे को खाद, पानी, धूप की सुविधायें तो समान रूप से दी गई किन्तु उन्हें स्वर-माधुर्य से वंचित रखकर दोनों का तुलनात्मक अध्ययन किया। जिस भाग को संगीत सुनने को मिला उनमें   अधिक फूल लगे तथा पौधों में ज्यादा फल लगे । उनके फूल अधिक दिन तक रहे और बीज निर्माण द्रुतगति से हुआ। डा. सिंह ने बताया कि वृक्षों में प्रोटोप्लाज्मा गड्ढे भरे द्रव्य की तरह उथल-पुथल की स्थिति में रहता है, संगीत की लहरियाँ उसे उस तरह लहरा देती है, जिस तरह वेणुनाद सुनकर सर्प प्रसन्नता से झूमने और लहराने लगता है। मनुष्य शरीर में भी ठीक वैसी ही प्रतिक्रिया होती है। गन्ना, चावल, शक्कर जैसे मोटे अनाज़ों पर जब संगीत अपना चिरस्थायी प्रभाव छोड़ सकता है तो मनुष्य पर क्यों नहीं ? कनाडा के किसान अपने खेतों के चारों ओर लाउड स्पीकर जोड़ कर संगीत का प्रसारण प्रारम्भ कर दिया जाता है। देवातोसा के संगीत शक्ति के व्यापक शोधकर्ता आर्थरलाकर का कहना है कि संगीत से पौधों में रोगाणुओं की रोग-निरोधक-शक्ति का विकास भी किया जा सकता है।
गाना-बजाना गीत-संगीत निश्चित रूप से प्रसन्नता की वृद्धि करते हैं, यह शरीर की स्थूल प्रक्रिया है। संगीत को हृदय और भावनाओं में उतार लेने से मनुष्य का आत्मिक काया-कल्प हो सकता है। संगीत एक प्रकार की स्वर साधना और प्राणायाम है जिससे शरीर के भीतरी अवयवों का व्यायाम भी होता है और आक्सीजन की वृद्धि भी, फलस्वरूप पाचन-शक्ति गहरी नींद, चौड़ी छाती और हड्डियों की मज़बूती का स्थूल लाभ तो मिलता ही है। दया, प्रेम, करुणा, उदारता, क्षमा, आत्मीयता सेवा और सौजन्यता के भावों का तेज़ी से विकास होता है यह सद्गुण अपनी प्रसन्नता और आनन्द का कारण आप है, वैसे ऐसे व्यक्ति के लिये साँसारिक प्रेम और सहयोग का भी अभाव नहीं रहता।
दुनिया के विभिन्न देशों में संगीत का सम्मोहिनी विद्या के रूप में विकास किया जा रहा है। अनेक डाक्टर सर्जरी जैसी डाक्टरी आवश्यकताओं में संगीत की ध्वनि-तरंगों का उपयोग करते हैं, अमेरिका में बड़े स्तर पर संगीत की सृजनात्मक शक्ति की खोज की जा रही है। वहाँ के वैज्ञानिक ध्वनि-तरंगों के माध्यम से न केवल विश्व-संसार प्रणाली को सरल और सर्वसुलभ बना रहे हैं वरन् उसके माध्यम से अनेक रहस्यों का पता लगा रहे हैं, अन्तरिक्ष यात्रा से लौटे सभी यात्रियों ने बताया कि ऊपर पृथ्वी के घूमने की आवाज़ बहुत मधुर सुनाई देती है। 
संगीत-चिकित्सा पर अनुसंधान की शुरुआत पाश्चात्य देशों से हुई। सन् 1870 में जब ग्रामोफ़ोन की खोज हुई तब संगीत उपचार में गुणात्मक परिवर्तन हुआ। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध एवं 20वीं शताब्दी के आरंभ में युरोप में संगीत-चिकित्सा का प्रयोग मानसिक रोगों को ठीक करने के लिये किया जाने लगा। इसके पश्चात् अवसाद एवं तनाव जन्य रोगों को दूर करने की प्रक्रिया चली। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिका में इसकी लोकप्रियता में भारी वृद्धि हुई। उस समय संगीत का औषधि के रूप में प्रयोग युद्ध से प्रभावित मनोरोगों की मुक्ति हेतु किया गया। इसके सकारात्मक परिणामों को देखते हुये सन् 1944 में मिशिगन विश्वविद्यालय द्वारा संगीत-चिकित्सा का पाठ्यक्रम तैयार किया गया। और सन् 1946 में कन्सास विश्वविद्यालय में आरम्भ किया गया। सन् 1950 में 'नेशनल एसोसियेशन फ़ॉर म्यूज़िक थेरेपी'  के स्थापित होने के पश्चात् संगीत चिकित्सा के क्षेत्र में अनुसंधान एवं अन्वेषण के कार्यों का विस्तार हुआ।
विश्व के अनेक चिकित्सकों ने भारतीय संगीत की प्रभावशीलता को जांचा-परखा एवं उस पर अनुसंधान  किया है। संगीतज्ञ एन्ड्रयु वाटसन ने भारतीय संगीत में प्रयोग होने वाले रागों को संगीत चिकित्सा का मुख्य आधार माना है। ''द हीलींग फोर्स ऑफ़ म्यूज़िक'' के लेखक आर. मैकलीन ने स्पष्ट किया है कि भारतीय संगीत मानसिक शांति व सक्रियता लाने वाली दिव्य औषधि है जो हमारे तन-मन और भावना में नव जागृति भर देती है। भारतीय संगीत की  प्रधान विशेषता 'राग' है। स्वरों की एक विशेष अवस्था राग कहलाती है। राग में कुछ ऐसे तत्व हैं जो राग की लक्ष्य पूर्ति रंजकता में सहयोगी होते हैं। राग श्रोताओं के लिए चित्तवृत्ति का निर्माण करते हैं। यह ऐसी मधुर योजना है जिसको निश्चित् मधुर एवं विशेष स्वरों, विराम चिन्हों द्वारा इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है कि वह लालित्यपूर्ण, मधुर रंजक एवं भावोत्पादक हो। भारतीय शास्त्रीय संगीत से मतलब रागदारी संगीत समझा जाता है। स्वर एवं लय तो विश्व के किसी भी संगीत में मिल सकता है परन्तु राग की अवधारणा भारतीय संगीत की निजी विशेषता है। रागों की संकल्पना कुछ विशिष्ट तत्वों के साथ बंधी हुयी है। राग के विशिष्ट तत्वों में स्वर, लय/ताल,  पद अथवा बंदिश का विशेष महत्व है। रोगोपचार में इन विशिष्ट तत्वों की उपयोगिता निर्विवाद है। इन विशिष्ट तत्वों के उपचारात्मक प्रभावों को देखने-समझने से पूर्व यह समझना आवश्यक है कि संगीत से चिकित्सा आयुर्वेद के अन्तर्गत होने वाला एक अंग है। चूंकि प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद है अतः हमारे महर्षियों, संगीताचार्यो ने संगीत से होने वाले प्रभाव को आयुर्वेदिक आधार पर ही विश्लेषित किया है। संगीत आर्युवेद तत्व के अनुसार हमारे शरीर को मदद करने वाली एक प्रणाली है। आर्युवेद के अनुसार शरीर के तीन स्तम्भ वात्, पित्त और कफ माने गये हैं। इनमें से यदि किसी भी एक में दोष अथवा विकृति आती है तो मनुष्य रोगी हो जाता है। आयुर्वेद के प्रमुख ग्रंथ चरक संहिता,  सुश्रुत संहिता में सन्निपात, ज्वर, दमा, मधुमेंह, ह्दय रोग, टी.बी, पीलिया, मंदता आदि रोगों में मंत्रों से उपचार का उल्लेख हुआ है वहीं सामवेद में ऋचाओं के गायन द्वारा रोग मुक्ति का वर्णन है। संगीताचार्य तुम्बरू ने संगीत स्वरामृत में ध्वनि के विभिन्न प्रकारों को शरीर में होने वाले त्रिदोषों वात् पित्त व कफ के साथ सम्बन्ध का उल्लेख किया है। स्वस्थ रहने के लिए जिस तरह उचित आहार की आवश्यकता होती है उसी प्रकार राग-रागिनियों व मनपसंद संगीत को सुनना भी लाभदायक है।
कार्डियोलॉजिस्ट डा. के. के. अग्रवाल के अनुसार यदि आप रोज़ 20 मिनट मधुर संगीत सुने तो आपका ब्लडसर्कुलेशन सही होता है। संगीत की राग-रागिनियों का हमारे शारीरिक मानसिक व्यवस्था से गहरा ताल्लुकात है तभी तो दर्द भरे सुर हमें दर्द में डुबो देते हैं और खुशी के गीत आनन्द के सागर में ले जाते हैं।  सुमधुर राग-रागिनयों से मानसिक स्वास्थ्य में बलता प्राप्त होती है। गायन व श्रवण से मनुष्य के भीतर आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन होते हैं जैसे हृदय की धड़कन बढ़ जाती है, दुःख से आंखे भर आती है, व्यथा से दिल भारी हो जाता है। संगीत से हृदयगति, नाड़ीगति तथा मस्तिष्कीय तरंगों में परिवर्तन होते हैं।
दिल्ली के अपोलो अस्पताल के माइंड क्लीनिक में आने वाले मरीज़ों का संगीत चिकित्सा के माध्यम से इलाज़ किया जाता है। अस्पताल के चिकित्सकों के अनुसार मानसिक रोगों के मरीज़ों पर संगीत का चमत्कारिक असर होता है। संगीत मेटाबॉलिज़्म को तेज़ करता है, मांसपेशियों की ऊर्जा बढ़ाता है एवं श्वसन प्रक्रिया को नियमित करता है।
क्लीव लैण्ड में की गई एक खोज से यह प्रमाणित हुआ है कि आपरेशन के बाद धीमा व सुरीला संगीत सुनने से दर्द कम महसूस होता है। एक शोध के अनुसार शुद्धस्वरों से युक्त रागों व ध्वनियों के श्रवण से दिमाग़ी बिमारियों, रक्तचाप, आपरेशन के बाद का दर्द, माईग्रेन, तनाव इत्यादि से आराम मिलता है।
रियाज़ या स्वर साधना एक प्रकार का शरीरिक व्यायाम है जो स्वयं में एक औषिधि व प्राणायाम है जिससे शरीर के समस्त अवयवों का व्यायाम हो जाता है। गाने से फेफड़े व स्वर यंत्र मजबूत होते हैं तथा तपेदिक, दमा इत्यादि फेफडों की बीमारी होने का डर नहीं रहता। संगीत फेफड़े, गले, कंठ, तालु, जबड़े व अमाशय का फलप्रद व्यायाम है। इससे नाड़ियों का शोधन होता है, ज्ञान तंतु सजग होते हैं, आक्सीजन की वृद्धि होती है तथा दीघार्यु प्राप्त होती है। आयुर्वेद में उल्लेखित है कि एक अच्छा चिकित्सक स्वर विज्ञान का भी ज्ञाता होना चाहिए क्योंकि संगीत में रोग नाशक एवं स्वास्थ्य वर्द्धक शक्ति नीहित है जिसका प्रयोग रोगोपचार में किया जाना चाहिए। प्रत्येक स्वर शरीर के विशिष्ट स्थान से उत्पन्न होता है तथा उस स्थल की व्याधि या स्वास्थ्य के प्रति उत्तरदायी है। रेकी चिकित्सा पद्धति के अनुसार सात स्वरों का सम्बन्ध शरीर में स्थित सात चक्रों से बताया गया है। योगदर्शन के अनुसार सात स्वर शरीर में स्थित चक्रों तथा बिदु-विसर्ग स्थान को झंकृत करते हैं । इसीलिये मानव कंठ को शारीरीवीणा कहा गया है। हमारे शरीर को स्वस्थ रखने, आरोग्य तथा दीर्घायु प्रदान करने में इन चक्रों का विशेष महत्व है जिन्हें संगीत के स्वरों के द्वारा संतुलित रखा जा सकता है।
वैदिक/शास्त्रीय संगीत की स्वर साधना सभी के लिए न तो सुलभ है और न ही समय साध्य है परन्तु इसके सहज रूप का हृदयंगम और उसका लाभ हर कोई उठा सकता है। अच्छे गीतों का चुनाव करना, उन्हें कण्ठस्थ करना और कोई न हो तो एकान्त में काम करते हुए या बैठकर अकेले ही गाना, लोगों को सुनाना, कीर्तन करना इत्यादि ऐसी सुलभ संगीत साधनायें हैं जिनसे शारीरिक, मानसिक और आत्मिक प्रगति की जा सकती है। नृत्य और अभिनव का समावेश कर इसे और भी सरस बनाया जा सकता है। गायन, वादन और नृत्य मानव समाज की सुखद कलायें हैं, यदि यह न हों तो मनुष्य जीवन पूर्ण से नीरस हो जाएगा।

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