शनिवार, 11 जुलाई 2020

नारी के अपमान से ध्वस्त हुआ था सिरमौरी ताल -Dr.Rajesh Chauhan ( History of sirmour )


नारी के अपमान से ध्वस्त हुआ था सिरमौरी ताल
- डॉ. राजेश के चौहान (स्वतंत्र लेखक) न्यू शिमला

हिमाचल के सिर का मुकुट यानी "सिरमौर" ज़िला प्राचीन काल से ही ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा है। रियासत कालीन सिरमौर राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रुप से समृद्ध राज्य था। इस रियासत की प्राचीन राजधानी 'सिरमौरी ताल' थी। माना जाता है कि एक नटी के श्राप के कारण सिरमौरी ताल का विध्वंस हो गया था। उसके बाद काफी समय तक राजबन सिरमौर की राजधानी रही जिसे 1219 ई० में राजा उदित प्रकाश द्वारा यमुना और टौंस नदियों के संगम स्थल 'कालसी'  स्थानांतरित कर दिया गया था। 1621 ई० में राजा कर्म प्रकाश ने नाहन नगर की स्थापना कर उसे अपनी राजधानी बनाया। तब से लेकर सन् 1947 ई० तक नाहन ही इस रियासत की राजधानी रही।  नाहन में स्थित शाही महल, रानी का ताल, राजा का ताल, लिंटन मेमोरियल (दिल्ली गेट), नाहन फाऊन्डरी, महिमा पुस्तकालय, नानी का बाग़ तथा चौग़ान आदि ऐतिहासिक धरोहरें आज भी इस शहर के राजसी अतीत का गुणगान करती हैं।

सिरमौर रियासत के नामकरण से संबंधित कोई भी लिखित प्रमाण न होने के परिणामस्वरूप अनेक  धारणाएं प्रचलित हैं। एक मत के अनुसार माना जाता है कि सभी पहाड़ी रियासतों में इस रियासत की अहम् भूमिका होने के कारण इसे 'सिरमौर' अर्थात ‘सिर का ताज‘ कहा गया था। एक अन्य मत के अनुसार माना जाता है कि, राजा शालिवाहन द्वितीय के पौत्र राजा रसालू के पुत्र का नाम सिरमौर था। उन्हीं के नाम पर इस रियासत का नाम सिरमौर पड़ा था। यह भी माना जाता है कि चंद्रगुप्त मोर्य ने मगध के नन्द वंश को समाप्त करने के लिए मगध के मध्य स्थित पर्वतीय राज्य कुलिंद (वर्तमान सिरमौर) की सहायता ली थी, अतः चंद्रगुप्त मोर्य ने अपने प्रति किये गए उपकारों से कृत्य- कृत्य होकर यहाँ के राजा को “शिरोमोर्य” उपाधि अर्थात मोर्य साम्राज्य का शीर्षस्थ भाग से सम्मानित किया था। कालान्तर में इसका नाम ‘शिर-मोर्य’ के स्थान पर सिरमौर पड़ गया। एक अन्य मत के अनुसार इसका नाम पाँवटा साहिब से सोलह किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में गिरी नदी के बाएँ तरफ स्थित “सिरमौरी ताल” को भी इसके नामकरण का आधार माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि किसी समय ये स्थान सिरमौर के राजाओं की राजधानी थी।

जनश्रुति के अनुसार प्राचीन समय में जब मदन सिंह सिरमौर राज्य के राजा थे, उस समय उनके राज्य में एक अत्यंत प्रतिभावान नर्तकी भी निवास करती थी। उस समय दूर–दूर तक उसके जैसा अन्य कोई नर्तक नहीं था। उस नटनी पर राजा मदन सिंह इतने अभिभूत हो गए कि उन्होंने नटनी को अपना आधा राज्य देने तक का वचन ही दे दिया था। नर्तकी ने एक दिन राजा से कहा कि वह एक रस्से पर नाचते हुये गिरी नदी के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँच सकती है। उसकी यह बात सुनकर राजा और उसके मंत्री उसका उपहास उड़ाने लगे। नटनी ने राजा मदन सिंह को रिझाते हुए फिर से कहा कि हे राजन...! यदि मैं इस पवित्र नदी को रस्सी पर चलकर आर-पार करूं तो पुरस्कार स्वरूप आप मुझे क्या देंगे? राजवंश हमेशा अपने अहंकार के दास रहे हैं। राजा ने नर्तकी की प्रतिभा का अवमूल्यन कर, यह जानकर कि गिरी नदी को पार करना इस स्त्री के वश में नहीं है, उसे आधा राज्य देने वचन दे दिया। राजा ने कहा, यदि तुम इस असंभव कार्य को पूरा करने का सामर्थ्य रखती हो तो हम भी अपने वचन को पूरा करेंगे। नर्तकी को राजा के द्वारा दिये गए इस वचन की ख़बर पूरे राज्य में आग कि भांति फैल गई।

निर्धारित काल पर कुछ दिन बाद नटनी के द्वारा दी गई चुनौती को साकार रूप प्रदान किया गया। इस करतब को देखने के लिए राज परिवार, मंत्रीगण और राज्य के सैंकड़ों लोग भी गिरी नदी के दोनों किनारों पर इकठ्ठा हो गए। सभी को लग रहा था कि नर्तकी यह कठिन कार्य नहीं कर पाएगी। गिरी नदी के ऊपर पोका गाँव से टोका पहाड़ी तक एक पतली सी रस्सी बाँधी गई।। नर्तकी ने एक छोर से नृत्य करते हुये दूसरे छोर की तरफ चलना शुरू किया। वह बड़ी सहजता से आगे बढ़ रही थी। वह गिरी नदी के ठीक ऊपर बंधी रस्सी पर करतब दिखाते हुए एक छोर से दूसरे छोर पर पहुंची। तत्पश्चात वह वापसी का आधा मार्ग तय कर टोका पहाड़ी पर पहुँचने ही वाली थी। यह देखकर राजा और उसके मंत्रियों को चिंता सताने लगी कि, यदि वह दूसरे छोर पर पहुँच गई तो आएधा राज्य उसे देना होगा। इस बात से घबराकर राजा ने अपने एक दीवान को रस्सी काटने का आदेश दे दिया। दीवान जुझार सिंह ने रस्सी काट दी और नटनी गिरी नदी में गिर गई। नदी में गिरने के बाद उसने राजा को यह श्राप दिया कि, “आर टोका पार पोका डूब मरो सिरमौरो रे लोका” अर्थात सिरमौर के लोग भी मेरी तरह डूब कर मर जाएँ। माना जाता है कि नर्तकी के नदी में गिरने के कारण ही उस नदी का नाम गिरी नदी पड़ा था। उसी रात नटनी के श्राप के कारण गिरी नदी में भयंकर बाढ़ आई और सिरमौर रियासत की तात्कालीन राजधानी 'सिरमौरी ताल'  पूरी तरह नष्ट हो गई थी। इस बाड़ में सभी की मृत्यु हो गई, कोई भी जीवित नहीं बचा। निरपराध नर्तकी के श्राप के प्रभाव से समस्त नगरी पूरी तरह से तबाह हो गई।

नगर के पूरी तरह से ध्वस्त होने के बाद रियासत में अशांति फैल गई थी। उस समय जैसलमेर के राजा उग्रसेन तीर्थ यात्रा पर हरिद्वार आये हुये थे। सिरमौर राज्य के खाली सिंहासन के बारे में सुनकर उन्होने अपने बेटे सबा रावल को सिरमौर भेज दिया। सबा रावल ने राजा विहीन राज्य की पुुुनः स्थापना कर  राजबन को अपनी राजधानी बनाया। यह भी माना जाता है कि राज्य में अशांति के भय से यहां के कुछ प्रबुद्ध लोगों ने जैसलमेर के राजा शालिवाहन द्वितीय से निवेदन किया कि वह रिक्त सिंहासन को संभालेंं। लोगों का अनुरोध स्वीकार कर राजा ने अपने तीसरे पुत्र हांसू को सपत्नी सिरमौर भेज दिया। उस समय हांसू की पत्नी गर्भवती थी। सिरमौर पहुंचने पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका ना पलासू रखा गया था। कालांतर में उसके नाम पर इस वंश का नाम पलासिया वंश पड़ा।


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