शुक्रवार, 26 मार्च 2021

दोबारा लॉकडाउन लगा तो संभलना मुश्किल हो जाएगा

दोबारा लॉकडाउन लगा तो संभलना मुश्किल हो जाएगा






- डॉ.राजेश के. चौहान

गत वर्ष कोरोनावायरस के कारण लगे लॉकडाउन के घाव अभी भी हरे हैं। ज़ख्म इतने गहरे हैं कि मानव जाति सदियों तक इनकी वेदना से कहराती  रहेगी। पिछले वर्ष 21 मार्च के दिन सम्पूर्ण भारत एक दिन के लिए पूरी तरह से बंद कर दिया गया तथा 24 मार्च से 21 दिन का लॉकडाउन केंद्र सरकार द्वारा लगा दिया गया था। केवल आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति में लगे लोगों,  मेडिकल सेवाएं और पुलिस प्रशासन को छोड़कर सब कुछ बंद कर दिया गया था। सड़कें वीरान हो गई थीं। पार्क में इंसानों की जगह आवारा पशु और जंगली जानवर टहलते नज़र आते थे। स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, जिम, सिनेमाघर, खेल के मैदान सब के सब सुने पड़ गए थे। भारी तादाद में मजदूरों का पलायन वास्तव में भयावह था। 1000 से 2000 किलोमीटर तक का पैदल सफर अत्यधिक दर्दनाक और डरावना था। सूरज की तपन, पीठ में छोटा बच्चा, भूखे-प्यासे,  नंगे पांव मीलों का वह सफर हर किसी के दिल को झकझोर कर रख देता है। आवश्यक वस्तुओं के लिए लगी लंबी कतारें और ऊपर से बेबस पुलिस के डंडे शायद हर किसी के ज़हन में आज भी सजीव होंगे। 

सामाजिक परंपराएं, तीज़-त्योहार, रीति-रिवाज और  पुरातन रस्में, सब ढकोसले बाजी नज़र आने लगीं। हिंदू धर्म में मृत्यु के बाद शव को जलाया जाता है लेकिन करोना संक्रमित व्यक्ति के शव को दफनाया तक जाने लगा। परिजन अपने ही परिवार के सदस्य के शव को देखने तक से डरने लगे घर ले जाकर उसका अंतिम संस्कार तो दूर की बात थी। हॉस्पिटल करोना मरीजो से भर गए थे।  ऐसे में दूसरी बीमारियों से पीड़ित व्यक्ति हॉस्पिटल जाने से डरने लग गए थे। ऐसा मंजर कि एक मानव दूसरे मानव से डरने लग गया। वायरस रूपी दुश्मन नया और ताकतवर था। ना कोई वैक्सीन और ना ही कोई दवाई इसे हरा सकती थी। केवल सामाजिक दूरी रूपी शस्त्र ही कोरोनावायरस से बचाव का एकमात्र विकल्प दुनिया के पास बचा था। इसी कारण संपूर्ण विश्व कई महीनों तक बंद रहा।  

दुनिया भर के करोड़ों लोगों में संक्रमण फैला जिसके फलस्वरूप लाखों लोगों की मृत्यु भी हुई। सामाजिक दूरी, मास्क और हैंड सैनिटाइजर कोरोना से बचने के रक्षा कवच बने। भारत की केंद्र तथा राज्य सरकारों के मिले-जुले प्रयासों से कोरोनावायरस धीरे-धीरे कम होने लगा। वक्त ऐसा भी आया जब भारत में एक दिन में संक्रमितों की संख्या 96,000 तक पहुंच गई लेकिन उसके बाद संक्रमित व्यक्तियों की तादाद में लगातार कमी आई। लॉकडाउन मानवता को बचाने में कारगर सिद्ध हुआ। अर्थव्यवस्था को सुचारू ढंग से चलाने के लिए धीरे-धीरे लॉकडाउन में ढील दी जाने लगी। दिनचर्या को सामान्य रूप से चलाने के प्रयास किए गए। अग्रिम पंक्ति के करोना योद्धाओं,  विभिन्न सामाजिक संगठनों एवं आम जनमानस ने अपने-अपने स्तर पर कोरोनावायरस को रोकने के लिए प्रयास किए। कोरोनावायरस के प्रति जागरूकता फैलाने के प्रयास आरंभ से ही किए जाने लगे थे। जिसके सकारात्मक परिणाम भी आए। 

विद्यार्थियों की शिक्षा को महामारी ने गहरा प्रभावित किया। प्रारंभिक दौर में स्कूल कॉलेज बंद हो जाने के बाद पढ़ाई पूरी तरह से प्रभावित रही लेकिन धीरे-धीरे ऑनलाइन शिक्षा का दौर आया। शिक्षकों ने व्हाट्सएप, यूट्यूब, फेसबुक, मोबाइल कॉल्स के माध्यम से बच्चों को पढ़ाना जारी रखा। कुछ समय पश्चात्  कक्षाएं गूगल क्लासरूम, जूम एप, गूगल मीट इत्यादि एप्लीकेशंस के माध्यम से सुचारू ढंग से चलाई जाने लगीं। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी बड़ी-बड़ी बैठकों का आयोजन ऑनलाइन माध्यम से किया जाने लगा। हर किसी ने कोरोनावायरस कम करने की पुरजोर कोशिश की। मजदूरों के पलायन और बड़ी संख्या में नौकरियां छिन जाने के बाद देश के सामने गरीब तबके के लोगों को भुखमरी से बचाना बड़ी चुनौती था। इस दिशा में सरकार और विभिन्न सामाजिक एवं धार्मिक संगठनों के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। विभिन्न प्रभावशाली व्यक्तियों ने भी अपने अपने स्तर पर इस दिशा में प्रयास किए। प्रधानमंत्री राहत कोष में देश के सरकारी कर्मचारियों के साथ-साथ आम लोगों ने भी एक दिन, एक महीना, एक साल तक की सैलरी दान कर दी। उद्योगों में कामकाज बंद हो जाने के कारण अर्थव्यवस्था चरमरा गई थी। नवंबर-दिसंबर महीने आते-आते सरकार ने लगभग सभी पाबंदियां दिया धीरे-धीरे हटा दी थीं। लोग सामान्य जीवन जीने लगे और अर्थव्यवस्था शनैः - शनैः पटरी पर लौटनी शुरू हो गई। 

जनवरी 2021 में कोरोना वैक्सीन आ जाने के बाद लोगों के चेहरे खुशी से खिलने लगे। स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय फिर से खोल दिए गए। सिनेमाघर, पार्क, खेल के मैदान,  जिम, रेस्त्रां, होटल तथा पर्यटक स्थल लगभग एक साल के सन्नाटे के बाद फिर से गुलज़ार हो गए। वैक्सीनेशन का कार्य अग्रिम पंक्ति के कोरोना योद्धाओं से शुरू किया गया तथा धीरे-धीरे बुजुर्गों और आम लोगों को इसके दायरे में लाया गया। भारत में वैक्सीनेशन का कार्य युद्ध स्तर पर चल रहा है। अब तक 4 करोड से अधिक लोगों को कोरोनावायरस की वैक्सीन लगाई जा चुकी है। वैक्सीन आ जाने के बाद लोग सामाजिक दूरी, मास्क और हैंड सैनिटाइजर का प्रयोग धीरे धीरे कम करने लगे। सामाजिक, धार्मिक तथा राजनैतिक समारोहों में भीड़ बढ़ने लगी। बाज़ार भीड़ का केंद्र बनने लगे, मानो कोरोनावायरस समाप्त हो चुका हो। क्षमता से अधिक सवारियां बसों में फिर से सफर करने लगीं। स्थानीय प्रशासन भी धीरे-धीरे पाबंदियों में ढील देता नजर आया। मार्च 2021 आते-आते करोना ने एक बार फिर से अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है। 21 मार्च 2020 को भारत में एक दिन का लॉकडाउन लगाया गया था। उसके ठीक एक वर्ष बाद वही स्थिति बनती नजर आ रही है। देश में लगातार कोरोना संक्रमित व्यक्तियों की संख्या में इज़ाफा अत्यधिक चिंताजनक है। कई राज्यों में शिक्षण संस्थानों को बंद कर दिया गया है तथा सामाजिक तथा धार्मिक समारोह में पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया है। पर्यटन हिमाचल प्रदेश की अर्थव्यवस्था का प्रमुख स्रोत है। बाहरी राज्यों से हिमाचल में पर्यटकों की भारी तादाद में बिना किसी रोक-टोक के एंट्री हो रही है तथा स्थानीय लोग पूरी तरह से लापरवाह हो गए हैं। यदि यहां करोना के मामले बढ़ते हैं तो फिर से लॉकडाउन की स्थिति बन सकती है। यदि फिर से लॉकडाउन लग गया तो प्रदेश के लिए संभलना काफी मुश्किल हो जाएगा। हिमाचल प्रदेश पहले ही कर्ज़ के बोझ तले दबा हुआ है। यदि कोरोना की दूसरी लहर को समय रहते नहीं रोका गया तो आने वाला समय अत्यधिक कठिनाइयों वाला होगा। फिर से लॉकडाउन देश की अर्थव्यवस्था को तबाह कर देगा। जिससे उभरने में हमें कई वर्ष लग जाएंगे। जागरूक नागरिक होने के नाते हम सभी का कर्तव्य बन जाता है कि हम कोरोना से बचने के नियमों का कड़ाई से पालन कर सामाजिक दूरी बना कर रखें। अनावश्यक रूप से भीड़ से दूर रहें केवल आवश्यक कार्यों हेतु ही घर से बाहर निकलें। भीड़भाड़ वाले क्षेत्रों में मास्क के बिना न जाएं।  मास्क आपको न केवल कोरोना से बचाएगा बल्कि अन्य संक्रमणों से भी आपकी रक्षा करेगा और हां अपनी बारी आने पर वैक्सीन को लगवाने अवश्य जाएं। 





मंगलवार, 9 मार्च 2021

गिरीपार क्षेत्र के हाटी समुदाय की वेदना ~ Dr.Rajesh K Chauhan

गिरीपार क्षेत्र के हाटी समुदाय की वेदना



Dr.Rajesh K Chauhan


- डॉ.राजेश के. चौहान

पूर्वजों से विरासत में मिली अमूल्य संस्कृति का संरक्षण और संवर्धन हमारा कर्तव्य है। हमारी सुप्राचीन लोक परंपराएं ही हमें विश्व पटल पर पहचान दिलाती हैं। आधुनिकता की दौड़ में गतिशील आज का समाज धीरे-धीरे पुरातन संस्कृति से दूर होता जा रहा है। ग्रामीण परिवेश में भी शहरी चकाचौंध पसरने लगी है। आज के दौर में गांव के लोगों की बोली/भाषा, पहनावा, रीति-रिवाज़, खान-पान, रहन-सहन और परंपराओं के निर्वहन में पाश्चात्य संस्कृति की झलक स्पष्ट देखी जा सकती है। बावजूद इसके ज़िला सिरमौर का हाटी समुदाय इक्कीसवीं शताब्दी में भी अपनी सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित रखने में सफल रहा है।

हिमाचल प्रदेश के ज़िला सिरमौर का गिरीपार क्षेत्र अपनी प्राचीन सांस्कृतिक एवं धार्मिक परंपरा के कारण हमेशा ही चर्चा में रहा है। ज़िला सिरमौर का गिरीपार क्षेत्र तथा उत्तराखंड का जौनसार बावर क्षेत्र 1835 ई. तक तत्कालीन सिरमौर रियासत में शामिल थे। माना जाता है कि इन दोनों क्षेत्रों के निवासी एक ही पूर्वज के वंशज हैं। गिरीपार क्षेत्र के निवासियों को हाटी तथा जौनसार बावर क्षेत्र के बाशिंदों को जौनसारा कहकर संबोधित किया जाता है। हाटी और जौनसारा समुदाय के लोगों की परंपराएं, रीति-रिवाज़, भाषा संस्कृति, आहार-व्यवहार, रहन-सहन, खान-पान, मान्यताएं एवं भौगोलिक परिस्थितियां लगभग एक समान हैं लेकिन अनुसूचित जनजाति आदेश (संशोधन) विधेयक 1967 इन दोनों क्षेत्रों को अलग-अलग मानता है। समान भौगोलिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि वाले इन दोनों क्षेत्रों में से जौनसार बावर इलाके के लोगों को भारत के संविधान ने उनकी पहचान देकर जौनसारा समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्ज़ा दे दिया परन्तु गिरीपार क्षेत्र का हाटी समुदाय इससे वंचित रह गया। यह समुदाय आज भी विभिन्न मंचों से अपने अस्तित्व को पहचान दिलवाने के लिए आवाज़ उठा रहा है। 


हाटियों का गिरीपार क्षेत्र प्रदेश के अन्य भागों से अलग-थलग है। इस भूखंड की प्रमुख नदी 'गिरी' इसे सिरमौर के अन्य भागों, शिमला तथा सोलन से पृथक करती है। इसके उत्तर में बर्फ से आच्छादित चूड़धार की चोटी है तथा पूर्व में टौंस नदी इसे उत्तराखंड के जौनसार बावर से अलग करती है। लगभग 1300 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विस्तृत गिरीपार क्षेत्र ज़िला सिरमौर के कुल क्षेत्रफल के लगभग 45 प्रतिशत भूभाग का प्रतिनिधित्व करता है। गिरीपार क्षेत्र के अंतर्गत तीन तहसीलें - संगड़ाह, शिलाई तथा राजगढ़ और तीन ही उप-तहसीलें - नौहराधार, रोनहाट व कमरऊ शामिल हैं। यहां की कुल आबादी लगभग पौने तीन से तीन लाख के मध्य है जो ज़िले की कुल आबादी का लगभग 50 फ़ीसदी है। 

गिरीपार क्षेत्र के निवासियों को हाटी कहकर पुकारा जाता है। ऐतिहासिक स्रोतों और स्थानीय लोगों से प्राप्त जानकारी के अनुसार इस दुर्गम क्षेत्र के लोग अपने खेतों से होने वाली पैदावार को पीठ पर लादकर सीमावर्ती बाज़ारों में जाकर अस्थाई मंडी (हाट) लगाकर बेचा करते थे। इस क्षेत्र के लोग कोई एक दिन निश्चित कर लेते थे और पूरी तैयारी के साथ विक्रय योग्य सामान तथा रास्ते के लिए भोजन बांधकर अपने साथ ले जाया करते थे। इनके क़ाफिले में खच्चर तथा घोड़े भी सामान ढोने के लिए शामिल किए जाते थे। इनमें से कुछ लोग विक्रय के लिए पहले से संचित सोना (हाटक - सोने का संस्कृत नाम) भी ले जाते थे। वे इस सोने को बेचकर आवश्यक वस्तुएं खरीद कर अपने घर लाया करते थे। मैदानी क्षेत्रों के व्यापारी तथा लोग इस अस्थाई हाट (बाज़ार) लगाने वाले लोगों को हाटी कहकर पुकारा करते थे। ज़िला सिरमौर के मुख्यालय नाहन में जहां यह लोग विश्राम करते थे उस स्थान को हाटी विश्राम तथा जहां पानी पीते थे उस बावड़ी को हाटी बावड़ी कहा जाता था, जिसे आज भी देखा जा सकता है। सदियों से ज़िला सिरमौर अदरक की पैदावार में अग्रणी रहा है। गिरीपार के निवासी अदरक से मूल्यवर्धन उत्पाद सोंठ बनाने में माहिर हैं। रियासती काल में यहां के निवासी सोंठ पीठ पर लादकर दिल्ली तथा अन्य मैदानी मंडियों में बेचा करते थे। उस काल में एक मण  (40 किलोग्राम) अदरक का मूल्य एक तोला सोना होता था। जिसे हाटक कहा जाता था। उस समय के हाटक आज भी गिरीपार व जौनसारी लोगों केे पास सुरक्षित हैं। अपनी फसलों के बदले हाटी समुदाय के लोग वर्ष भर के लिए गुड़, सीरा, कपड़े, नमक इत्यादि अपने घरों के लिए लाया करते थे। 


भौगोलिक दुर्गमता एवं आर्थिक रूप से पिछड़ा क्षेत्र होने के बावजूद भी गिरीपार का हाटी समुदाय सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यधिक समृद्ध है। आधुनिकता के प्रभाव से दूर आज भी यहां के निवासी पारंपरिक त्यौहारों एवं मान्यताओं का निर्वहन पुरातन ढंग से कर रहे हैं। यहां मनाए जाने वाले त्यौहारों तथा मेलों जैसे- बूढ़ी दीवाली, माघी खोड़ा, विशु, हरियालटी इत्यादि में आज भी पुरा़तन संस्कृति की झलक दृष्टिगोचर है। इन त्यौहारों एवं मेलों के अवसर पर पारंपरिक ठोडा नृत्य एवं कुश्तियों का आयोजन किया जाता है। पारंपरिक परिधानों में सुसज्जित युवक एवं युवतियां बूढ़े-बुजुर्गों के साथ मिलकर प्राचीन वाद्य यंत्रों की मनमोहक धुनों पर नाटी नृत्य करते हैं। 

इस क्षेत्र की दिवाली भी अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा भिन्न एवं रोमांचक है। हाटी समुदाय के लोग अमावस्या की रात गांव में बने मंदिर परिसर में इकट्ठा होते हैं। वे लोग मंदिर परिसर में मशालें जलाकर, जलती हुई मशालों को हाथों में उठा कर पूरे गांव की परिक्रमा करते हैं। इस मशाल यात्रा के बाद दिवाली का आगाज़ माना जाता है। मान्यता के अनुसार इस मशाल यात्रा के बाद गांव से भूत-प्रेत तथा बुरी आत्माएं भाग जाती हैं। इस रोमांचक यात्रा के बाद गांव के पुरुष मंदिर परिसर में आकर पारंपरिक वेशभूषा में नाच-गाना करते हैं। शारदीय नवरात्रि की अष्टमी के दिन हाटी लोग चीड़ के सूखे फलों (स्थानीय बोली में इन्हें 'च्याक्टु' कहा जाता है) को जलाकर उन्हें गिलोय आदि प्रकार की बेलों या कैक्टस प्रकार के विशेष पौधे के रेशों से बनी रस्सी से बांधकर अपने सिर के चारों ओर गोल-गोल घुमाते हैं। इस तरह जलते हुए चीड़ के सूखे फल  को ये लोग 'हुशू' कहकर पुकारते हैं। 'हुशू' को परिवार के सभी सदस्यों के सिर के ऊपर से घुमाया जाता है तथा ज़ोर-ज़ोर से ऊंची आवाज़ में चिल्लाकर इष्टदेव से परिवार के समस्त सदस्यों की बुरी ताक़तों से सलामती की प्रार्थना की जाती है। कबीलाई संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती यह परम्परा यहां आज भी  जीवन है।

त्योहारों के अवसर पर मेहमानों के लिए मूड़ा, शाकुली, धरुटी, अस्कली, पटांडे, सिड़कू, चिड़वा इत्यादि पारंपरिक व्यंजन परोसे जाते हैं। गिरीपार क्षेत्र में बहु पति प्रथा आज भी यदा-कदा देखने को मिलती है। माना जाता है कि कठिन भौगोलिक परिस्थितियां व कमज़ोर आर्थिक स्थिति के कारण यह प्रथा शुरू हुई थी किंतु बदलते दौर में यह लगभग समाप्त हो चुकी है। 


गिरीपार क्षेत्र का हाटी समुदाय भले ही कठिन भौगोलिक परिस्थितियों एवं कमज़ोर आर्थिक स्थिति के कारण कठिन दौर से गुज़रा हो परंतु इस क्षेत्र के लोगों की कड़ी मेहनत व अपनी जन्म भूमि एवं संस्कृति से विशेष जुड़ाव के कारण यह क्षेत्र एक ओर जहां प्रगति के पथ पर अग्रसर है वहीं दूसरी तरफ अपनी प्राचीन संस्कृति को संजोकर रखने में सफल रहा है। यहां आज भी लोग संयुक्त परिवारों में मिलकर रहते हैं। भारतीय समाज में जहां अधिकतर संयुक्त परिवारों का विघटन हो रहा है वहीं गिरीपार क्षेत्र में आज भी बड़े-बड़े संयुक्त परिवार देखने को मिलते हैं। वर्तमान समय में शिक्षण संस्थानों के खुल जाने एवं गांव-गांव तक सड़कों का जाल बिछने से क्षेत्रवासियों का जीवन सरल हुआ है। यहां के मेहनतकश किसान अब अपनी फसलों को आसानी से बाज़ारों तक पहुंचा पा रहे हैं। खेती-बाड़ी व पशुपालन यहां के लोगों का मुख्य व्यवसाय है। अदरक, मक्की, गेहूं, आलू, टमाटर, मटर इत्यादि यहां की मुख्य फसलें हैं। यहां के लोग अब आधुनिक तक़नीकों का प्रयोग भी कृषि में करने लगे हैं। पारंपरिक खेती के साथ-साथ नकदी फसलों की पैदावार भी करने लगे हैं। पॉलीहाउस में जहां सब्जियों एवं फूलों की खेती कर मुनाफ़ा कमा रहे हैं वहीं बाग़वानी की तरफ भी आकर्षित हुए हैं। शिक्षा के प्रसार के फलस्वरुप यहां के युवा सरकारी तथा निजी क्षेत्र में उच्च पदों पर भी अपनी सेवाएं दे रहे हैं।

हाटी समुदाय विकट परिस्थितियों के बावजूद भी आज प्रगति के पथ पर अग्रसर है फिर भी कहीं न कहीं अपने अस्तित्व और पहचान को लेकर चिंतित है। सन् 1967 में उत्तराखंड के जौनसारा समुदाय को भारत सरकार द्वारा अनुसूचित जनजाति घोषित किया गया था लेकिन समान परिस्थितियां होने के बावजूद हाटी समुदाय इससे वंचित रह गया। भारत सरकार द्वारा किए गए इस सौतेले व्यवहार के प्रति मलाल यहां के प्रत्येक निवासी के विचारों में स्पष्ट रुप से देखा जा सकता है। जून 1965 में बी.एन. लोकुर की अध्यक्षता में बनाई गई लोकुर समिति में किसी भी समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्ज़ा प्रदान करने के लिए कुछ मापदंड निर्धारित किए गए थे। इन मापदंडों के आधार पर जिन समुदायों में आदिम लक्षण, भौगोलिक अलगाव, विशिष्ट संस्कृति, बाहरी समुदायों के साथ संपर्क में संकोच तथा आर्थिक रूप से पिछड़ापन हो उन्हें इस सूची में शामिल करने की सिफारिश की गई है। लेकिन लोकुर समिति द्वारा निर्दिष्ट सभी शर्तों पर खरा उतरने के बाद भी हाटी समुदाय अनुसूचित जनजाति का दर्ज़ा प्राप्त नहीं कर पाया है। यदि गिरीपार क्षेत्र के इस समुदाय को इस सूची में शामिल कर लिया जाता है तो यहां के मेहनती नौजवानों को आगे बढ़ने के अधिक अवसर प्राप्त होंगे। केंद्र सरकार द्वारा जनजातीय क्षेत्रों के विकास के लिए बनाई गई योजनाओं के क्रियान्वयन से जहां इस दुर्गम क्षेत्र के लोगों की आर्थिक स्थिति मज़बूत होगी वहीं यहां की सांस्कृतिक विरासत को भी विश्व स्तर पर पहचान मिलेगी।

गिरिपार समुदाय की वेदना (हिमाचल दस्तक)



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