अब के सावन प्रलय भारी ✍
डॉ.राजेेेश चौहानस्वतंत्र लेखक
कदाचित सावन शब्द सुनते ही हृदय में एक अलबेली उमंग का भाव जग जाता है, उत्साह की तरंगें उठने लगती हैं, जीवमात्र एक सुरीली तान में खो जाता है लेकिन पिछले कुछ अरसे से सावन दरकते पहाड़, उफनते नदी-नालों के साथ प्रकृति से खिलवाड़ कर रहे विकासशील मानव की खोखली परिकल्पना को आईना दिखाने का प्रयास कर रहा है। सावन कुदरत का सिंगार है, स्नेह का भाव है, तीज-त्योहार का चाव है। सावन में सरसता है, हरीतिमा का निखार और प्रेम का प्रसार है। ग्रीष्म ऋतु की तपिश के बाद सावन की झड़ी आरम्भ होते ही हम सबके भीतर उल्लास, उमंग, उत्साह और संगीत मुखर हो जाता है। सर्वत्र हरियाली, उपवन में पड़े झूले, आसमान पर छाए मेघ और खेतों में लहलहाता धान ऐसे लगता है मानो धरती ने धानी चुनरिया ओढ़ ली हो। बर्खा की रिमझिम फुहार में झींगुर की आवाज़, मिट्टी की सोंधी खुशबू में लिपटी गीली हवा में पपीहे की टेर और छम-छम गिरती बूंदें परिवेश में एक अनुपम स्वर और ताल की उत्पत्ति करती हैं। वसुधा के प्रांगण का यह मनोरम नज़ारा देख मन बरबस ही झूम उठता है।
सबसे अधिक प्रतीक्षित ऋतुओं में से एक वर्षा ऋतु को सभी ऋतुओं की रानी कहा जाता है। धार्मिक दृष्टि से भी इसका अत्यधिक महत्व है। अमरनाथ, केदारनाथ, श्रीखंड महादेव जैसी धार्मिक यात्राओं का शुभारम्भ इसी समय होता है। प्रेम, उत्साह और उत्सवधर्मिता की ऋतु पिछले कुछ वर्षों से भय, पीड़ा और उदासीनता का विकराल रूप धारण कर रही है। सावन में भक्ति, प्रेम, विरह और वैराग्य से ओत-प्रोत मधुर गीतों की जगह अब ज़िन्दगी से जद्दोजहद करते मानुष की चीख-पुकार के हृदय विदारक प्रसंग और वायरल वीडियो देखने-सुनने को मिलते हैं। प्रकृति का रौद्र रुप मानव निर्मित कंक्रीट के महलों को पलक झपकते ही नेस्तनाबूद कर रहा है।
पहाड़ों पर लगातार हो रहे निरंकुश निर्माण कार्यों से हिमालय का सीना छलनी हो रहा है। बड़ी-बड़ी बांध परियोजनाओं और सड़कों को चौड़ा करने की कवायद ने पहाड़ों को झकझोर कर रख दिया है। फ़ोरलेन तो बन गए लेकिन मानव जीवन संकट में पड़ गया है। पहाड़ों को चीर कर बनाई जा रही सुरंगें और फ्लाईओवर कितने सुरक्षित हैं ये कहना भी मुश्किल है। भूकंप के ज़ोन पांच में आने वाले क्षेत्रों में प्रकृति से इतनी अधिक छेड़छाड़ आने वाली तबाही के दिग्दर्शन करवा रही है।
मानसून की झमाझम बारिश शुरू होते ही हिमालयी पहाड़ों के दरकने का सिलसिला शुरू हो जाता है। पर्यावरणविदों की मानें तो हिमालय क्षेत्र में लगातार सड़कों को चौड़ा करने के लिए पहाड़ों को ऊपर से काटा जा रहा है और इससे भूस्खलन की घटनाएं बढ़ रही हैं। दरअसल, ऊपर से पहाड़ को काटने पर उसका निचला हिस्सा कमजोर हो जाता है। ऐसे में भारी बारिश भूस्खलन के खतरे को और बढ़ा देती है। एक अध्ययन के मुताबिक पिछले कुछ समय से हिमाचल और उत्तराखंड में भूस्खलन की घटनाओं में लगातार बढ़ोतरी हुई है। हिमालयी इलाकों में इंसानी गतिविधियों के बढ़ने से पहाड़ों का संतुलन बिगड़ रहा है। परिणामस्वरूप बारिश के मौसम में उनकी नींव कमज़ोर होती है और पहाड़ टूटकर गिरने लगते हैं। हिमालय के पहाड़ अभी अपनी शैशव अवस्था में हैं। इन्हें कचरे और मलबे का ढेर भी कहा जा सकता है। जोशीमठ, मसूरी, शिमला, गंगटोक, मनाली, जम्मू, नैनीताल, भीमताल जैसे तमाम हिमालयी पर्यटक स्थलों में भूस्खलन व जमीन धंसने की समस्या आम है।
हिमालयी क्षेत्र में जंगलों को काटकर सीमेंट और कंक्रीट से लगातार निर्माण कार्य किया जा रहा है। फलस्वरूप पहाड़ वनस्पति रहित होते जा रहे हैं। काटे गए जंगल हिमालय के लिए स्पंज का काम करते थे। जंगलों को काटना खतरनाक साबित होता रहेगा क्योंकि इन जंगलों की वजह से ही मैदानी इलाकों की गर्म हवा पहाड़ों तक नहीं पहुंच पाती थी। यदि हम अंग्रेंजों द्वारा किए गए निर्माण कार्यों पर दृष्टिपात करें तो हमें कहीं भी पक्की छत नहीं मिलेगी। वे निर्माण कार्य में ज्यादा से ज्यादा लकड़ी का इस्तेमाल करते थे और छत टीन की बनाई जाती थी। इससे पहाड़ों पर बहुत ज्यादा बोझ नहीं पड़ता था। पेड़ पौधों के अंधाधुंध कटान से कई जंगली जीवों की प्रजातियां तो लुप्त होने के कगार पर पहुंच गई हैं। यही पेड़ पौधे मिट्टी को बांधे रखते थे। लेकिन पेड़ पौधों के कटान से मिट्टी की पकड़ कमजोर हो गई है। पेड़ पौधों को फिर से संरक्षित करने की आवश्यकता है।
यदि पहाड़ों को बचाना है तो सरकार को भारी निर्माण कार्यों पर तुरंत रोक लगानी चाहिए। पहाड़ों की सैर करने आने वाले सैलानियों को रोकना बेशक मुश्किल है लेकिन, उन्हें समझना होगा कि वे यात्रा के दौरान कम से कम सुविधाओं में अपना काम चलाएं। पर्यटकों की मांग को पूरा करने के लिए भारी निर्माण नहीं किया जाए तो काफी हद तक पहाड़ों पर दबाव कम हो सकता है। इसके अलावा ये भी जरूरी है कि पहाड़ों की तलहटी के तराई क्षेत्रों के जंगलों को काटने से परहेज किया जाए। अवैध खनन और निर्माण कार्यों ने पहाड़ को हिला कर रख दिया है। जिससे इन वर्षों में मिट्टी का कटाव बढ़ा है। उपजाऊ मिट्टी बरसात में बह जाने से उत्पादन लगातार घट रहा है। प्राकृतिक आपदाएं बढ़ रही हैं और यह बढ़ती जाएंगी। उपजाऊ मिट्टी को बचाने के लिए भी जनजागरण की आवश्यकता है।
प्रकृति बारम्बार अपनी मूक भाषा में चेतावनियां देकर हमें सचेत करती रही है और हम उन्हें दरकिनार करते रहे हैं। मानसून की प्रारम्भिक दस्तक ने ही हाहाकार मचा दिया है। चाहे पहाड़ हों या मैदान जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। बादल पहले भी बरसते थे लेकिन जान-माल की इतनी क्षति नहीं होती थी। पहाड़ों का इस तरह से दरकना भविष्य के गर्भ में छुपी बड़ी प्रलय की ओर भी संकेत कर रहा है। इसलिए बेहतर कल के लिए आवश्यक है कि हम प्रकृति की इस मूक भाषा को समझें और इसके संरक्षण में अपना योगदान दें।