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विशुद्ध लोक संगीत के संरक्षक - संगीत गुरु डॉ. कृष्ण लाल सहगल

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वर्तमान समय में लोकसंगीत के क्षेत्र में कार्य कर रहे अधिकतर कलाकार लोकानुरंजन को अपना अंतिम लक्ष्य समझ बैठे हैं। उन्हें किसी भी कीमत पर लोगों का मनोरंजन करना है, उन्हें रिझाना है। उनका लोक संगीत की विशुद्धता, पारंपरिकता, भाषा एवं  साहित्य से दूर-दूर तक कोई सम्बंध नहीं है। सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने के लिए ऐसे लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं। पारंपरिकता को दरकिनार कर इस तरह के कलाकार लोकगीतों को रिमिक्स कर अश्लीलता के साथ युवा पीढ़ी के समक्ष परोसने का कार्य करते हैं। ऐसे लोगों को कलाकार कहना भी अनुचित होगा क्योंकि इन्होंने न तो संगीत की विधिवत शिक्षा ग्रहण की होती है और न ही वे कला के प्रति संवेदनशील होते हैं। वहीं दूसरी ओर कुछ ऐसे कला साधक भी हैं जो अपनी सुप्राचीन लोक संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्धन के प्रति अनवरत कार्यशील हैं। वे अपनी कला और समाज के प्रति संवेदनशील हैं। वे अपनी पुरातन संस्कृति को तोड़-मरोड़कर लोकप्रियता प्राप्त नहीं करना चाहते। कुछ ऐसे ही गिने-चुने कला साधकों में से एक हैं डॉ.कृष्ण लाल सहगल। लोक संगीत और लोक-संस्कृति के प्रति इनका प्रेम इतना गहरा है कि शास्त्रीय ...