वर्तमान समय में लोकसंगीत के क्षेत्र में कार्य कर रहे अधिकतर कलाकार लोकानुरंजन को अपना अंतिम लक्ष्य समझ बैठे हैं। उन्हें किसी भी कीमत पर लोगों का मनोरंजन करना है, उन्हें रिझाना है। उनका लोक संगीत की विशुद्धता, पारंपरिकता, भाषा एवं साहित्य से दूर-दूर तक कोई सम्बंध नहीं है। सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने के लिए ऐसे लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं। पारंपरिकता को दरकिनार कर इस तरह के कलाकार लोकगीतों को रिमिक्स कर अश्लीलता के साथ युवा पीढ़ी के समक्ष परोसने का कार्य करते हैं। ऐसे लोगों को कलाकार कहना भी अनुचित होगा क्योंकि इन्होंने न तो संगीत की विधिवत शिक्षा ग्रहण की होती है और न ही वे कला के प्रति संवेदनशील होते हैं। वहीं दूसरी ओर कुछ ऐसे कला साधक भी हैं जो अपनी सुप्राचीन लोक संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्धन के प्रति अनवरत कार्यशील हैं। वे अपनी कला और समाज के प्रति संवेदनशील हैं। वे अपनी पुरातन संस्कृति को तोड़-मरोड़कर लोकप्रियता प्राप्त नहीं करना चाहते। कुछ ऐसे ही गिने-चुने कला साधकों में से एक हैं डॉ.कृष्ण लाल सहगल। लोक संगीत और लोक-संस्कृति के प्रति इनका प्रेम इतना गहरा है कि शास्त्रीय और सुगम संगीत के उच्च विद्वान होने के बावजूद भी इन्होंने सर्वदा लोक संगीत के संरक्षण और संवर्धन हेतु कार्य किया।
हिमाचल गौरव, संगीत शिरोमणी, हिमालय शिरोमणी आदि अनेक सम्मानों से विभूषित डाॅ.कृष्ण लाल सहगल हिमाचली संगीत की दुनियां में एक ऐसा नाम है जिसने एक तरफ अपनी मधुर आवाज़ से जन-मानस को सम्मोहित किया वहीं दूसरी ओर लोक संगीत के संरक्षण और संवर्धन में अविस्मरणीय योगदान दिया है। जहां इन्होंने विलुप्त हो चुके सैंकड़ों लोकगीतों को अपनी आवाज़ देकर ज़िंदा रखा वहीं स्वयं भी ऐसे अनेक लोकगीतों की रचना की जो वर्तमान पीढ़ी के लिए परम्परागत की श्रेणी में आ चुके हैं। रचनात्मकता के साथ पारम्परिकता को बनाए रखना वास्तव में बहुत कठिन कार्य है परन्तु इन्होंने सर्वदा इसका ध्यान रखा। गीत को लिखना, लिखे गए शब्दों के लिए माधुर्य से परिपूर्ण धुन का निर्माण करना एवं स्वरबद्ध रचना को अपनी आवाज़ देकर संगीत संयोजन का कार्य भी स्वयं करना इनकी विलक्षण प्रतिभा को प्रदर्शित करता है। लोक संगीत के किसी भी पक्ष में पारम्परिकता से छेड़छाड़ के ये सर्वदा विरोधी रहे हैं। इन्होंने अपने लोकगीतों में प्रयुक्त संगत वाद्यों के रुप में सदैव लोकवाद्यों को तवज्जो दी। बड़े-बड़े मंचों पर जहां अधिकतर कलाकार अत्याधुनिक वाद्ययंत्रों के दम पर लोगों को रिझाने का प्रयास करते हैं वहीं सहगल साहब ढोल-नगाड़ा, शहनाई, बांसुरी इत्यादि पारम्परिक वाद्यों को संगत वाद्यों के रूप में प्रयोग कर अपनी मख़मली, मधुर आवाज़ के हुनर से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। इन्होंने जिस भी गीत को अपनी आवाज़ दी वह प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचा।
डॉ.कृष्ण लाल सहगल का जन्म 3 अक्टूबर 1949 को पिता गंगाराम और माता राम देवी के घर गांव भुईरा (राजगढ़) ज़िला सिरमौर में हुआ। बाल्यकाल से संगीत के प्रति अपरिमित रुचि होने के कारण ये विद्यालय में आयोजित होने वाली बाल सभाओं में गीत गाया करते थे। बचपन से ही इनकी आवाज़ में इतना माधुर्य था कि इनके गीत सुनकर विद्यालय के अध्यापक जीवन सिंह वर्मा, प्रेम सिंह ठाकुर और हैडमास्टर प्रेमनाथ दस्सन ने इनको पार्श्व गायक कुंदन लाल सहगल के नाम से मेल खाता उपनाम 'सहगल' दे दिया जो इनके नाम के साथ ताउम्र जुड़ा।
पारिवारिक कारणों से इन्हें अपनी स्कूल की पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी और पिता के कहने पर अपना पुश्तैनी व्यवसाय अपना लिया। अत्यधिक व्यस्तताओं के बावजूद भी पढ़ाई प्राइवेट छात्र के रुप में जारी रखी। आर्थिक परिस्थितियों के सामने पढ़ाई पूरी करना बड़ी चुनौती था। सुबह 7 किलोमीटर पैदल चलकर राजगढ़ दुकान पहुंचना और रात को पैदल ही वापस घर लौटना दिनचर्या बन गई थी। रास्ते में आते-जाते किताबें पढ़ना आदत और गांव में बिजली न होने के कारण मिट्टी के तेल का दिया जला कर आधी रात तक पढ़ाई करना मजबूरी बन गया था। फिर भी ये अडिग डटे रहे और स्नातक की डिग्री प्राप्त की। इन्होंने सन् 1971 में सिरमौरी लोक गीतों की स्वर परीक्षा आकाशवाणी शिमला से पास की। वहीं से इनकी प्रसिद्धि का दौर शुरू हुआ।
इनका विवाह 19 वर्ष की आयु में हो गया था। इनकी जीवन संगिनी का नाम शारदा देवी था। अतीत को याद करते हुए डॉ. सहगल कहते हैं कि 1970 से 1980 का दशक उनके जीवन का सबसे कठिन दौर रहा है। एक तरफ पारिवारिक ज़िम्मेदारियों का बोझ तो दूसरी तरफ संगीत सीखने की ललक। आर्थिक तंगी के कारण परिवार का निर्वहन और संगीत साधना करना बड़ी चुनौती बन गया था। दिन-भर जीवन यापन के लिए दुकान पर पुश्तैनी काम करना और देर रात तक दीये की रोशनी में पढ़ाई करना ही दिनचर्या बन गई थी। इस कठिन दौर में बच्चों की देखभाल और घर का सारा काम उनकी धर्मपत्नी ने संभाला। वे हमेशा ही उन्हें पढ़ाई के प्रति प्रोत्साहित करती थीं। जब सहगल साहब पढ़ाई या संगीत साधना कर रहे होते तो वे उन्हें समय-समय पर चाय बनाकर पिलाया करती थीं। दो वर्षों तक डॉ. सहगल राजगढ़ आर्य समाज की विशिष्ट प्रचारक मंडली के साथ गांव-गांव जाकर निशुल्क भजन गायन करते रहे। पझोता आंदोलन के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी सूरत सिंह वैद्य ने क्षेत्र के चुनिंदा लोक कलाकारों को सम्मिलित कर "हाब्बण कलाकार संघ" नामक सांस्कृतिक संस्था का गठन किया। इस संस्था में डॉ. सहगल को भी सम्मिलित किया गया।डॉ.कृष्ण सिंह, लेखराम शर्मा, प्रताप सिंह वर्मा, मानसिंह वर्मा, विद्यानंद सरैक, सेवाराम शर्मा, जयप्रकाश चौहान, विद्या देवी, माता राम अत्री आदि अनेक रेडियो कलाकारों के साथ जुड़ने से क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत की ओर इनकी रुचि बढ़ती गई। लगातार कार्यक्रमों से जुड़ाव की वजह से इनका निजी व्यवसाय प्रभावित होने लगा। सप्ताह में दो-तीन बार दुकान बंद करने की नौबत आने से आर्थिक तंगी से बुरा हाल हो गया। कई बार पत्नी की नाराज़गी का सामना भी करना पड़ा। घर में मां बीमारी से जूझ रही थी और पिताजी वृद्धावस्था के कारण घर का काम करने में असमर्थ थे। विषम परिस्थितियों का सामना करने के सिवा और कोई विकल्प नहीं बचा था।
उस दौर के प्रसिद्ध लोक गायक स्वर्गीय लेखराम शर्मा ने इन्हें सोलन कॉलेज में संगीत प्राध्यापक प्रोफेसर अनंत राम चौधरी से संगीत सीखने की सलाह दी। डॉ. सहगल ने लेखराम शर्मा की सलाह अविलंब मान ली और उसी दिन सोलन जाकर प्रो.चौधरी के निवास जाकर उनसे शिष्य बनने का अनुरोध किया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। प्रो.अनन्त राम चौधरी उच्च कोटि के संगीतज्ञ एवं उदार स्वभाव के व्यक्ति थे। उन्होंने डाॅ. सहगल की सांगीतिक प्रतिभा और गुरु के प्रति समर्पण को बहुत जल्दी भांप लिया। प्रो. चौधरी अपने शिष्य की आर्थिक स्थिति जान चुके थे। आगे की शिक्षा के लिए गुरुजी ने स्वयं ही किताबें खरीदीं और पढ़ाई जारी रखने के लिए प्रेरित किया।
इन दस वर्षों में इन्होंने अपने जीवन के सबसे अजीबो-गरीब उतार-चढ़ाव देखे जिन्हें याद कर अब भी उनके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। नाते-रिश्तेदार, पास- पड़ोस और जान-पहचान वाले लोग इनका मज़ाक उड़ाने लगे तथा खूब फब्तियां कसने लगे कि ये आदमी सोलन में किसी नेत्रहीन संगीत शिक्षक के संपर्क में रहते हुए अपनी रोज़ी-रोटी को लात मार रहा है। उधर उनके पूर्व सहपाठी विभिन्न विभागों में नौकरी प्राप्त कर चुके थे या कुछ अलग पढ़ाई करने चले गए थे। उनसे कभी-कभार मिलने पर अपने पिछड़ने का आभास भी होता था परंतु गुरुजी से हमेशा आगे बढ़ने का हौसला भी मिल जाता था। सरल, सौम्य और परोपकारी स्वभाव के धनी गुरु को पाकर डॉ.सहगल धन्य हो गए।
प्रो. चौधरी के कुशल मार्गदर्शन में इन्होंने संगीत विशारद (गायन तथा तबला वादन) तथा 'संगीत प्रवीण' प्रयाग संगीत समिति इलाहाबाद से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। आकाशवाणी शिमला से सुगम संगीत (गीत ग़ज़ल, भजन) की स्वर परीक्षा भी उत्तीर्ण की। 1980 में केंद्रीय विद्यालय संगठन में संगीत अध्यापक के रूप में इन्होंने सरकारी नौकरी की शुरुआत की। केंद्रीय विद्यालय सुबाथू में रहते हुए इन्होंने अंतर केंद्रीय विद्यालयीय सांगीतिक प्रतियोगिताओं में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया। एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा आर.के. पुरम नई दिल्ली में संचालित 22 दिवसीय प्रशिक्षण सेमिनार "राष्ट्रीय एकता" में भाग लिया तथा भारत की 14 भाषाओं में रचित समूह गीतों का प्रशिक्षण प्राप्त किया। बाद में इन्होंने मुख्य संसाधक के रूप में विभिन्न केंद्रीय विद्यालयों के हज़ारों विद्यार्थियों को इन समूह गीतों का प्रशिक्षण भी दिया। शास्त्रीय गायन के लिए उनके चार विद्यार्थियों का चयन सी.सी.आर.टी. द्वारा प्रदत्त छात्रवृत्ति के लिए भी हुआ। सुबाथू में पांच वर्ष के सेवाकाल के उपरांत इनका स्थानांतरण केंद्रीय विद्यालय जाखू हिल शिमला हुआ इसी दौरान इन्होंने हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से एमफिल की उपाधि भी प्राप्त की। इन्होंने सरकारी सेवा के दौरान पढ़ाई लगातार जारी रखी और हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से एम.ए., एम.फिल. तथा पीएच.डी. की डिग्री हासिल की। गौरतलब है कि प्राथमिक शिक्षा के अतिरिक्त इनकी सारी पढ़ाई प्राइवेट छात्र के रूप में संपन्न हुई है। सन् 1989 में इनकी नियुक्ति महाविद्यालय में संगीत प्राध्यापक (गायन) के पद पर हुई। इन्होंने हिमाचल प्रदेश के विभिन्न महाविद्यालयों में अपनी सेवाएं दी। वर्ष 2008 में राजकीय महाविद्यालय करसोग ज़िला मंडी से ये सेवानिवृत हुए। सेवानिवृत्ति के कुछ महीनों बाद ही वर्ष 2009 में बिमारी के कारण इनकी जीवन संगिनी का निधन हो गया। पत्नी के देहांत का इन्हें गहरा आघात पहुंचा। अतः इन्होंने सोलन में एक संगीत विद्यालय का संचालन शुरु किया और वहीं रहने लगे।
इन्होंने अपनी सांगीतिक यात्रा के दौरान अनेक उपलब्धियां हासिल की हैं। शिमला, धर्मशाला, जम्मू-कश्मीर, जालंधर आदि आकाशवाणी केंद्रों से इन्होंने अपने सफल कार्यक्रम प्रस्तुत किए हैं। ये आकाशवाणी शिमला के प्रथम व्यक्ति हैं जिन्हें वर्ष 1987 में म्यूज़िक ऑडिशन बोर्ड दिल्ली भारत सरकार द्वारा ग़ज़ल गायन में "बी. हाई" ग्रेड प्राप्त हुआ। वर्ष 1992 में इन्होंने भाषा एवं कला संस्कृति अकादमी, शिमला के सौजन्य से 'इंडिया टुडे' कंपनी द्वारा दो ऑडियो कैसेट में हिमाचली गीतों की रिकॉर्डिंग में महत्वपूर्ण योगदान दिया। 1996 में मुंबई में आप के संगीत निर्देशन में भजन सम्राट 'अनूप जलोटा' की आवाज़ में दो हिमाचली लोक गीतों को रिकॉर्ड करवाया गया। भारत की सर्वश्रेष्ठ म्यूजिक कंपनी टी. सीरीज से हिमाचल के शक्तिपीठों पर आधारित इनके दो ऑडियो एल्बम 'जैकारे मां रे द्वारे' तथा 'मां की महिमा' रिलीज़ हुए हैं। हिमाचली लोकगीतों की ऑडियो कैसेट में लोक माधुरी, लोक रंजनी, स्वरांजलि, मेरी जानी रा बसेरा और नाटी रा फेरा इनकी मशहूर कैसेट्स हैं। इनकी ग़ज़ल एल्बम 'तलाश' और 'इत्तिफा़क़' को भी जनता ने ख़ूब पसंद किया।
संगीत गुरु डॉ.सहगल को केवल लोक गायक कहना न्यायसंगत नहीं होगा। ये शास्त्रीय और सुगम संगीत के भी उच्च ज्ञाता हैं। संगीत के क्षेत्र में विधिवत शिक्षा ग्रहण कर रहे हज़ारों विद्यार्थियों को इन्होंने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा दी है। विद्यालय, महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय के छात्रों के अतिरिक्त इन्होंने प्रयाग संगीत समिति इलाहाबाद से सम्बद्ध सैंकड़ों छात्रों व कलाकारों को भी शास्त्रीय एवं सुगम संगीत की शिक्षा दी है।
विद्यार्थियों के प्रति इनके समर्पण, विशेष लगाव और स्नेह के कारण विद्यार्थी इन्हें अत्यधिक प्रेम करते हैं। इनके बहुत से शिष्य आज विद्यालय, महाविद्यालय स्तर पर संगीत शिक्षण का कार्य कर रहे हैं। कुछ शिष्य आकाशवाणी, दूरदर्शन, बाॅलीवुड एवं विभिन्न मंचों के माध्यम से ख़्याति अर्जित कर रहे हैं।
उच्च कोटि के गायक होने के साथ-साथ डाॅ.सहगल अच्छे लेखक भी हैं। इन्होंने अनेक गीतों, ग़ज़लों और भजनों के रचना की है। इनके कई शोध-पत्र व आलेख भाषा कला संस्कृति अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका सोमसी, हिमाचल सरकार की प्रतिष्ठित पत्रिका हिमप्रस्थ एवं संगीत कार्यालय हाथरस, उत्तर प्रदेश की 'संगीत' मासिक पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं। इनके द्वारा लिखित पुस्तक 'गीत मेरी माटी रे' प्रकाशित हो चुकी है तथा 'हिमाचली लोक सर्वर माधुरी' प्रकाशनाधीन है। हिमाचली लोकगीतों की विविध गान-शैलियों और लोक वाद्य यंत्रों पर बजाए जाने वाले तालों पर इनका अध्ययन अनवरत चला हुआ है।
मुख्य सम्मान
इन्हें वैद्य सूरत सिंह जयंती अलंकरण समारोह में 'कर्मवीर' सम्मान, आकाशवाणी द्वारा आकाशवाणी सम्मान, संचेतना संस्था द्वारा विशिष्ट सम्मान, उदय फोरम द्वारा विशिष्ट सम्मान, शंखनाद संस्था द्वारा विशिष्ट सम्मान, भाषा कला संस्कृति अकादमी के तत्वावधान में साहित्य एवं कला मंच द्वारा 'संगीत शिरोमणी', फ़िल्म कम्पनी दिल्ली द्वारा 'लाइफ़ टाइम एचीवमेंट' पुरस्कार और हिमाचल सरकार द्वारा 'हिमाचल गौरव' आदि पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है।
विरासत को संभाल रही बेटियां
डॉ.कृष्णलाल सहगल की दो बेटियां तथा दो बेटे हैं। इनका सबसे बड़ा बेटा गांव में कृषि तथा बागवानी का कार्य कर रहा है तथा दूसरा बेटा सूचना एवं जनसंपर्क निदेशालय में ज़िला लोक सम्पर्क अधिकारी के पद पर कार्यरत है। इनकी दोनों बेटियां काॅलेज कैडर में संगीत विषय की प्रवक्ता हैं तथा पिता की विरासत को आगे बढ़ा रहीं हैं। इनकी बड़ी बेटी डाॅ.सविता सहगल वर्तमान में कंडाघाट काॅलेज में उप-प्रधानाचार्य के पद पर कार्यरत हैं। अध्यापन कार्य के अतिरिक्त वे आकाशवाणी शिमला से शास्त्रीय संगीत में बी एवं सुगम संगीत में बी-हाई ग्रेड की कलाकार हैं। ये वर्ष 1995 से ही आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के साथ जुड़ी हुई हैं। ‘सांई चरणम् बंदो’ के नाम से जहां उनकी भजन एलबम को व्यापक रूप से सराहा गया वहीं लोक माधुरी, लोक रंजनी, स्वरांजलि, कोके दे लसकारे, नाटी रा फेरा, तेरे मुंजरे आए और शिरगुल महिमा इत्यादि पहाड़ी एलबम में उनके द्वारा गाए गए लोकगीतों को संगीत प्रेमियों ने अत्यधिक प्यार दिया है। हिमाचली संगीत को नया आयाम देने वाले अपने पिता डॉ. के.एल. सहगल के संगीत निर्देशन में डाॅ.सविता ने हिमाचल की पहली ग़ज़ल एलबम ‘तलाश’ में अपनी गायकी से सभी प्रभावित किया। रेडियो तथा दूरदर्शन केन्द्र के अतिरिक्त ये शास्त्रीय एवं सुगम संगीत के राष्ट्रीय मंचों पर भी अपनी प्रस्तुतियां दे चुकी हैं।
डॉ. कृष्ण लाल सहगल मानते हैं कि पिछले बीस-बाईस बर्षों से हिमाचली लोक संगीत के प्रस्तुतीकरण में लगातार बदलाव आ रहा है। यह बदलाव विशेष रूप से लोक गीतों के साथ प्रयोग किए जा रहे वाद्य यंत्रों के रूप में आया है। लोक-संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में यह बहुत ही निराशाजनक बात है कि राज्य, राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर के मंचों पर पारम्परिक लोकगीतों का प्रस्तुतीकरण पाश्चात्य वाद्य यंत्रों के साथ किया जा रहा है। आज के युवा कलाकार पारंपरिक परिधानों को दरकिनार कर पाश्चात्य परिधानों के साथ लोक संस्कृति का प्रर्दशन कर रहे हैं जो अति दुर्भाग्यपूर्ण है। लोकगीतों में वर्णित लोक साहित्य की भूमिका, मधुर स्वर- रचनाएं, लोक वाद्यों पर बजने वाली विभिन्न लोक तालें, दिन-प्रतिदिन लुप्त होने की कगार पर हैं। अधिकतर युवा कलाकार संगीत साधना की जगह रिकाॅर्डिंग स्टूडियो में वैज्ञानिक उपकरणों की मदद से गाना रिकॉर्ड करवा रहे हैं। इस प्रकार से सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने की होड़ में लोक-संस्कृति की जड़ें खोखली हो रही हैं। डॉ. सहगल के अनुसार गायक को संगीत की आधारभूत जानकारी होना अतिआवश्यक है। कुछ वर्षों तक अच्छे गुरु के सानिध्य में संगीत साधना करने के बाद ही किसी मंच पर प्रस्तुति देनी चाहिए। संगीत के विद्यार्थी में गुरु के प्रति समर्पण भाव ही उसे उसकी मंज़िल तक पहुंचाता है। डॉ.कृष्ण लाल सहगल हर मंच पर युवाओं से लोक संस्कृति को संजोकर रखने की अपील करते हैं।
विशिष्ट गायन एवं रचनात्मक शैली
इनकी रचनाएं जहां सुनने में सरल, कर्णप्रिय और माधुर्य से परिपूर्ण होती हैं वहीं साहित्यिक दृष्टि से भी उच्च कोटि की होती हैं। ये अपनी रचना में प्रयुक्त शब्द, भाव-रस आदि के आधार पर ही ताल और राग के स्वरों का चुनाव करते हैं। गीत के मूल भाव और रंजकता के साथ छेड़छाड़ किए बगैर क्लिष्ट टुकड़ों एवं तिहाईयों का लोकगीत में प्रयोग करना इनकी रचनात्मक शैली की विशेषता है। गीत के शब्दों का ताल के बोलों के इर्द-गिर्द मधुरता से रखाव इनकी गायन शैली की विलक्षण विशिष्टता है। लोकगीतों की व्यापकता के लिए इन्होंने अपनी रचनाओं में शब्दों के सरलतम रुप का अधिकाधिक प्रयोग किया है फलस्वरूप इनके लिखे हुए गीत भाषायी दीवार को तोड़कर पूरे हिमाचल में समझे व गुनगुनाए जाते हैं। सांगीतिक कार्यक्रमों एवं उच्च स्तरीय सांगीतिक प्रतियोगिताओं में इनके द्वारा रचित एवं गाए गए लोकगीतों का चयन अधिकतर कलाकारों एवं प्रतिभागियों की पहली पसंद होती है। रेणुका माईए, काल़ा बाशा कौऊआ, बांका मुल्का हिमाचला, किंदे मरचिए, जय देवा शिरगुला, गिरियो रा पाणी, ढोल़ी जा मेरे टिलुआ, ऐसी मुंजरे जोगी जमाना, नोखरा तेरा, मुंजरे नाचदे आए आदि इनके द्वारा गाए गए ऐसे लोकगीत हैं जो अत्यधिक प्रसिद्ध हुए। लोक संगीत की ही भांति शास्त्रीय और सुगम संगीत में भी इनकी बहुत अच्छी पकड़ है। किसी भी गीत को हू-ब-हू स्वर लिपिबद्ध करने में इनको महारथ हासिल है।
पारंपरिक वाद्यवृंद का निर्देशन
वर्ष 2011 में सोलन ज़िला की आर्ट ऑफ लिविंग संस्था द्वारा श्री श्री रविशंकर के आगमन पर ठोडो मैदान में एक भव्य समारोह में संगीत प्रस्तुति का ज़िम्मा इन्हें सौंपा गया। इन्होंने 100 पारंपरिक वादकों और 50 लोक गायकों द्वारा हिमाचली लोक संस्कृति की अनूठी प्रस्तुति में संगीत निर्देशन का कार्य किया जिसे अपार जन समूह द्वारा खूब सारा गया।
बांका मुल्का हिमाचला
यह डॉ.कृष्ण लाल सहगल द्वारा गाए गए स्वरचित एवं पारम्परिक लोक गीतों का उत्सव था। इस कार्यक्रम का आयोजन 25 दिसंबर 2022 को गेयटी थियेटर में हिमालय साहित्य एवं संस्कृति मंच द्वारा किया गया था। इस कार्यक्रम का शीर्षक इनके एक प्रसिद्ध लोकगीत "बांका मुल्का हिमाचला" के नाम पर रखा गया था। इस अभूतपूर्व कार्यक्रम में डॉ. सहगल तथा उनके बीस शागिर्दों ने हिमाचल प्रदेश के पारंपरिक वाद्ययंत्रों के साथ लोकगीतों की मनोरम प्रस्तुति दी। इस कार्यक्रम में डॉ.सहगल को 'हिमालय शिरोमणी' पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। इस आयोजन में पारंपरिक वाद्य यंत्रों तथा पारंपरिक परिधानों के साथ हिमाचल प्रदेश के सभी ज़िलों की लोक संस्कृति की झलक बहुत ही सुरीले अंदाज़ में प्रस्तुत की गई। शायद ही विशुद्ध लोक संस्कृति के संदर्भ में गुरु शिष्य परम्परा का इतना सुंदर मंचन हिमाचल के किसी अन्य मंच पर इससे पूर्व हुआ हो।
माता रामदेवी थीं पाश् र्व गायिका
डॉ. कृष्ण लाल सहगल की माता रामदेवी भी शास्त्रीय गायन में पारंगत थीं। उन्होंने लाहौर में रहकर शास्त्रीय संगीत की विधिवत शिक्षा ग्रहण की थी। 1935 में बन रही फ़िल्म "दीन-ओ-दुनियां" में इन्होंने पाश् र्व गायन भी किया था। फ़िल्म निर्माता के आकस्मिक निधन के कारण यह फ़िल्म अधूरी रह गई थी। उसके बाद उनके पिता उन्हें अपने गांव ले आए थे। डॉ.सहगल बताते हैं कि उनकी माता जी के चार पुत्रों की जन्म लेते ही मौत हो गई थी। इस घटना से उनकी माताजी को गहरा आघात पहुंचा और वह डिप्रेशन में चली गई थीं, उनका दिल टूट गया था। अत: उन्होंने संगीत को अलविदा कह दिया। इसके बाद उन्हें किसी ने भी गुनगुनाते नहीं सुना हां जब सहगल साहब 11-12 वर्ष के थे तो बड़ी बहन के आग्रह पर उन्होंने दो-तीन राग सुनाए थे। उनकी माताजी बेटे से गीत सुनकर बहुत खुश होती और जब अपने बेटे के गीतों का प्रसारण रेडियो पर सुनती तो आंखों में आंसू भरकर मौन रहती।