लाखों वर्ष पहले घुमारवीं के हरितल्यांगर मध्य शिवालिक क्षेत्र में शिवापिथिकस व रामापिथिकस नामक कपिमानव के सांझे पुरखे निवास करते थे। विद्वानों को इस क्षेत्र में सोआन और आशुलियन सभ्यता से संबंधित अनेक प्रमाण मिले हैं। यहां की चट्टानों से विभिन्न विलुप्त प्राणियों, जिनमें उल्लेखनीय है जिराफ, हाथी, गैंडा, जै़बरा जैसे घोड़े आदि के सैकड़ों अवशेष मिले हैं जिनमें से कुछ विदेशी बाहर ले गए हैं और कुछ इंडियन म्युज़ियम कलकत्ता में प्रदर्शित किए गए हैं। सीरखड्ड के किनारे सदियों से हमारे पूर्वज निवास कर रहे हैं इस बात को प्रामाणित करने का श्रेय घुमारवीं के विश्व विख्यात मानवविज्ञानी डॉ.अनेक राम सांख्यान को जाता है। उन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि सीरखड्ड के किनारे पनपी सभ्यता सोआन और आशुलियन सभ्यता से पृथक थी। उन्होंने इस संस्कृति को "बमुलियन सभ्यता" नाम दिया है। इनके द्वारा खोजे गए कुछ जीवाष्म घुमारवीं के पेलियो म्यूज़ियम में रखे गए हैं। ये मानवउत्पत्ति के रहस्यों, विकासक्रम, जीव व जलवायु परिवर्तन, विलोपन, आदि प्रक्रियों का रहस्योद्घाटन कर हमारी भविष्य में झांकने की क्षमता को बढ़ाते हैं।
डॉ.अनेक राम सांख्यान ने पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ से बीएससी एवं मानवविज्ञान में एमएससी और पीएच.डी की डिग्रियां अर्जित कर अपना समस्त जीवन भारतीय मानव विज्ञान सर्वेक्षण में एक शारीरिक पेलियो मानवविज्ञानी के रूप में विशेष रूप से मानव उत्पत्ति के रहस्य-शोध में लगा दिया। ये अनेक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में संसाधन व्यक्ति व संयोजक रहे जिसके लिए इन्होंने 15 देश की व्यापक यात्राएं की हैं। अफ्रीका में "गोंडवानालैंड अभियान" अन्तर्राष्ट्रीय मैत्री मिशन महत्वपूर्ण रहा जिसके अनुभव इन्होंने भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ.अब्दुल कलाम के समक्ष प्रस्तुत कर प्रशंसा व सम्मान पत्र प्राप्त किया। चीन में 2009 और यूके में 2013 में विश्व मानव विज्ञान कांग्रेस आयोजन में भी ये भारतीय मानवविज्ञानी के तौर पर शामिल हुए। इनकी खोजो ने अनेक अन्तर्राष्ट्रीय प्रिंट मीडिया, वृत्त चित्र, फ़िल्मों में जगह पाई है। अब तक लगभग 150 शोध-पत्र, 53 एथनोग्राफिक लेख तथा 80 से अधिक शोध-सारतत्व राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान पत्रिकाओं में प्रकाशित कर चुके हैं। अब तक इनकी 7 पुस्तकें - शोध-बोध, रिसेंट डिस्कवरीज एंड परस्पैक्टिव्स इन ह्यूमन इवोल्यूशन, एशियन परस्पैक्टिव्स इन ह्यूमन इवोल्यूशन, ह्यूमन ओरिजिन्स जीनोम एंड पीपल ऑफ़ इंडिया, पीपल ऑफ़ इंडिया : हिमाचल प्रदेश, हिम काव्य लहरें और काव्य शतांजलि प्रकाशित हो चुकी हैं। ये भारत व विदेशों में 50 से अधिक सम्मेलनों में भाग ले चुके हैं तथा कई प्रतिष्ठित अन्तर्राष्ट्रीय जरनलों में संपादक बोर्ड के सदस्य हैं। वैज्ञानिक के साथ-साथ ये अच्छे कवि व साहित्यकार भी हैं। ये अखिल भारतीय साहित्य परिषद की बिलासपुर इकाई से लम्बे समय से जुड़े हैं तथा परिषद के अध्यक्ष भी रहे हैं। अब तक हिंदी में 100 से अधिक और हिमाचली पहाड़ी भाषा में 70 से अधिक कविताएं तथा अनेक आलेख लिख चुके हैं। विज्ञान को समाज तक ले जाने के लिए इन्होंने 2012 में "पेलियो रिसर्च सोसाइटी" और 2017-18 में "पेलियो म्यूज़ियम" इवोल्यूशन व प्रीहिस्टोरिक गैलरी की स्थापना की। उत्कृष्ट उपलब्धियां के लिए इनको 2017 में दिल्ली के भूतपूर्व गवर्नर डॉ. भीष्म नारायण सिंह द्वारा "भारत गौरव" अवार्ड तथा 2018 में लेफ्टिनेंट जनरल कृष्ण मोहन सेठ द्वारा डॉ.एपीजे अब्दुल कलाम एक्सीलेंस अवार्ड से सम्मानित किया गया।
डॉ.अनेक राम सांख्यान का जन्म घुमारवीं तहसील की मरहाना पंचायत के चुंझवाणी गांव में 20 अगस्त 1951 में पिता गोविंद राम व माता भोलां देवी के घर एक किसान परिवार में हुआ। घर का खर्च चलाने के लिए इनके पिता खेती-बाड़ी के साथ-साथ मंडी (बल्ह) की शक्कर व गुमा नमक का व्यापार भी करते थे। वे बिलासपुर के अंतिम राजा आनंद चंद के विशेष विश्वास पात्र रहे।
पिता गोविंद राम के पांच पुत्र धनीराम, सुखराम, काशीराम, शंकर, अनेक राम तथा तीन बेटियां कलावती, मनसा देवी व कसल्या कुल आठ संतानें थीं। डॉ.सांख्यान के चारों भाई 15 वर्ष की आयु में ही आजीविका अर्जित करने के लिए चंडीगढ़ चले गए थे। इसलिए पढ़ाई के साथ-साथ इन्हें कृषि कार्य में पिताजी की मदद करनी पड़ती थी। पशुओं के लिए चारा और बाड़े में रखी भेड़ बकरियों को चराने की ज़िम्मेदारी भी इन्हीं की थी, विशेष तौर पर स्कूल में दो महीने की छुट्टियां होने पर। इसके इलावा हर हफ्ते पांच किलोमीटर दूर बम-कोटा सीरखड्ड घराट से बीस किलो मक्की व गेहूं का पीहण(बोरा) सिर पर उठाकर पिसवाने की ड्यूटी भी इन्हीं की थी। उस समय गांव में सड़क और बिजली नहीं हुआ करती थी और न ही पानी के लिए नल हुआ करता था इसलिए गर्मियों में पानी दो किलोमीटर दूर से लाना पड़ता था। सर्दियों में दो किलोमीटर दूर सुगल बावड़ी से पानी लाना, अपने कपड़े धोना और नहा कर पीने के पानी की गागर लाना दैनिक कार्य होता था। हर महीने सुगल बावड़ी को साफ करने और संवारने की ज़िम्मेदारी भी गांव के लड़कों की ही होती थी।
डॉ. सांख्यान पांच वर्ष की आयु में अपने चचेरे भाई दुर्गा राम के साथ पहली बार गवर्नमेंट हायर सेकेंडरी स्कूल भराड़ी गए। स्कूल में अन्य बच्चों के साथ पीटी करने में इन्हें मज़ा आया। आधे अंतराल के बाद मास्टर हरि सिंह ने सब बच्चों को पहाड़े सिखाने के लिए निकट बुलाया। पहली बार विद्यालय गए बालक अनेक राम को उस समय पहाड़े समझ नहीं आए और मास्टर जी द्वारा निकट बुलाने पर आने में देरी हो गई तो मास्टर जी ने इनकी पीठ पर ज़ोर से डंडा दे मारा। उसके बाद ये बहुत डर गए और एक साल तक स्कूल नहीं गए। चंडीगढ़ से घर आए भाई धनीराम व शंकर ने इन्हें तख्ती पर हिंदी वर्णमाला और गिनती सिखाई जो ये जल्दी सीख गए। भाइयों ने इन्हें स्कूल जाने को बाध्य किया। भाइयों के प्रयास के कारण ये घर पर अपने पाठ पढ़ना-लिखना सीख गया थे जिससे स्कूल की पढ़ाई जल्दी ही समझ में आ गई। इसके बाद ये हर कक्षा में प्रथम आते रहे और सभी अध्यापकों को अच्छे लगने लगे और इन्हें कक्षा में मॉनिटर बनाया गया। इन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा में स्कोलरशिप भी प्राप्त की। उस समय 10 रुपए प्रति माह वज़ीफा मिलता था जो उस समय के अनुसार बड़ी रकम होती थी।
सन 1966 में आठवीं की परीक्षा पास करने के उपरांत हुई छुट्टियों में अपने चाचा के कहने पर दो रुपए दिहाड़ी पर गृह निर्माण कार्य मज़दूरी के रूप में 64 रुपए कमाए और सारी कमाई माता-पिता के हाथ थमा दी। एक दिन की दिहाड़ी न कट जाए इसलिए ये रिजल्ट सुनने स्कूल भी नहीं गए। दोस्तों से रिजल्ट मालूम होने पर पता चला कि इन्होंने आठवीं बोर्ड में मेरिट हासिल की और संस्कृत में बोर्ड टॉप किया है। इन्होंने इस उपलब्धि पर सरकार की तरफ़ से दी जाने वाली मेधावी छात्र वृति भी प्राप्त की। नौवीं कक्षा में इनके शास्त्री अध्यापक ने इनका नाम नेक राम से बदलकर अनेक राम रख दिया। हायर सेकेंडरी में अच्छे अंकों को देखकर 1969 में इनके भाई शंकर सांख्यान इन्हें आगे की पढ़ाई के लिए चंडीगढ़ ले गए।
इन्होंने डी.ए.वी चंडीगढ़ से बी.एससी और पंजाब यूनिवर्सिटी से एंथ्रोपोलाॅजी (मानवविज्ञान) में एम.एससी की डिग्री प्राप्त की। हालांकि ये केमिस्ट्री पढ़ना चाहते थे किंतु एंथ्रोपोलॉजी का इंटरव्यू पहले होने के कारण प्रोफ़ेसर एस.आर.के. चोपड़ा ने इन्हें बिलासपुर ज़िला का निवासी होने के कारण हरितल्यांगर जीवाश्मों पर शोध के उद्देश्य से एंथ्रोपोलॉजी लेने के लिए प्रेरित किया। प्रो.साहब ने इनसे फील्ड शोध-लेख भी हरितल्यांगर से ढूंढे गए जीवाश्मों पर करवाया। प्रो.चोपड़ा इन्हें अपने मार्गदर्शन में पीएच.डी. करवाना चाहते थे किंतु अनेक राम उन्हें चकमा देकर पी.जी.आई. के ब्लड ट्रांसफ्यूजन डिपार्टमेंट से हेमेटोलॉजी में आठ महीने का प्रशिक्षण लेकर प्रोफेसर जे.जे.जौली के मार्गदर्शन में पीएच.डी के लिए पंजीकृत हो गए। इन्होंने आई.सी.एम.आर. फेलोशिप के लिए भी आवेदन किया। फेलोशिप एक दो महीने में मिलने ही वाली थी कि इन्हें भारतीय मानव विज्ञान सर्वेक्षण संस्थान कोलकाता ने पत्र के माध्यम से स्थायी सरकारी नौकरी हेतु साक्षात्कार के लिए बुलाया। जुलाई 1975 में इनका इंटरव्यू हुआ और 8 अगस्त 1975 को सर्वेक्षण के उत्तर पश्चिमी क्षेत्रीय कार्यालय देहरादून में वरिष्ठ तकनीकी सहायक के पद पर इन्होंने कार्य भार ग्रहण किया। जब प्रोफेसर जौली को बताया तो उनको ज़ोर का झटका लगा क्योंकि वह चाहते थे कि अनेक राम पीएच.डी के बाद पीजीआई में अध्यापन कार्य करें।
नौकरी लगने के बाद घर वालों ने इनकी शादी जमुना से करवा दी हालांकि डॉ.सांख्यान उस समय विवाह नहीं करना चाहते थे। जमुना सांख्यान घुमारवीं के निकट बाड़ी- करंगोड़ा (मझेड़वां) के धर्माणी परिवार से सम्बंध रखती हैं। वे धर्म परायण व नित्य पूजा-पाठ किया करतीं। उन्हें फूल व पौधे लगाना व पालतू जानवरों एवं पशु-पक्षियों को नित्य खाना खिलाने का शौक है। वे सदैव गृह सफाई एवं ज़मीन के रख-रखाव में विशेष ध्यान देती रही। दुर्भाग्य से जमुना कई वर्षों से अनुवांशिक मधुमेह से संबंधित रोगों से ग्रसित हैं और अब कान से भी कम सुनाई देता है। हियरिंग ऐड्स से भी कोई लाभ न देख इनका इस्तेमाल छोड़ दिया है जिस कारण इनके लिए दूसरों की बात सुनना मुश्किल हो गया है। डॉ. सांख्यान अपनी जीवन संगिनी पर व्यंग्य कसते हुए अक्सर ठहाका लगाकर कहते हैं कि जमुना की नज़रों में मेरा रिसर्च और काव्य लेखन का कार्य समय की बर्बादी है।
भारतीय मानव विज्ञान सर्वेक्षण संस्थान देहरादून में नियुक्ति के बाद डॉ. सांख्यान को मानव विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में शोध कार्य करने के अवसर मिले। सर्वप्रथम इन्हें दिल्ली में बायो एंथ्रोपोलॉजी सर्वेक्षण का कार्य सौंपा गया जो बाद में रोहतक, अमृतसर और कश्मीर घाटी में भी किया गया। इन्होंने कारगिल एवं लद्दाख की बौद्ध, मुस्लिम दर्दी और बालती जनजातियों पर पाॅपुलेशन जैनेटिक शोध सर्वेक्षण किया। फिर उत्तराखंड की भोक्सा, थारू एवं बहुपति प्रधान जौनसारी अनुसूचित जनजातियों पर अनेक शोध-पत्र प्रकाशित किए।
1976 में भाग्य ने एकबार फिर से करवट ली। जिस जीवाश्म रिसर्च से बचकर डॉ.सांख्यान पीजीआई भाग गए थे एकबार फिर से उसी काम को करने के संयोग बने। पंजाब विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर चोपड़ा ने इनके निदेशक के साथ शिवालिक कापिमानवों की खोज के लिए संयुक्त परियोजना शुरू की और शोधकार्य के लिए इन्हें सरकारी आदेश दिलवा दिए। इन्हें फील्ड वर्क करने बुलाया गया। यह परियोजना 2 वर्ष (1976-78) चली जिसमें डाॅ. सांख्यान ने अनेक प्रकार के प्राणियों के जीवाश्म खोज निकाले। इस कार्य को ही मुकद्दर समझ कर इन्होंने घुमारवीं हरितल्यांगर क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से वर्ष 1979-82 के दौरान गहन फील्ड शोध कार्य किया और विलुप्त प्राणियों के दुर्लभ जीवाश्म खोजे जो सर्वेक्षण के उत्तर पश्चिमी क्षेत्रीय केंद्र देहरादून में रखे गए हैं। यह शोध कार्य इन्होंने व्यक्तिगत रूप से छुट्टियों में भी जारी रखा और रिटायरमेंट के बाद भी कर रहे हैं। इस दौरान इन्होंने 55 लाख वर्ष पुराने शिवापिथिकस नामक कपिमानव के दंतावशेष की खोज की जो वर्ष 1985 में लंदन की सुप्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय पत्रिका जरनल आफ़ 'ह्युमन इवोल्यूशन' में प्रकाशित हुई।
शिवालिक जीवाश्मों पर सर्वेक्षण करते समय 1979 में इन्होंने सर्वप्रथम "सोआन पाषाण संस्कृति" के उपकरणों की खोज की। इस अन्वेषण से संबंधित शोध-पत्र कलकत्ता की साइंस एंड कल्चर पत्रिका 'करंट साइंस' में 1980 और 1983 में प्रकाशित हुआ। इसके बाद इन्होंने नालागढ़ बद्दी-क्षेत्र में भी सोआन पाषाण उपकरणों की खोज की जो देहरादून केंद्र में रखे गए हैं।
वर्ष 1984 में इनकी रिसर्च एसोसिएट के पद पर पदोन्नति हो गई और इन्हें नर्मदा घाटी में मानव जीवाश्मों की खोज का निर्देश दिए गए। पदोन्नति के साथ विभाग से जुड़ी अनेक जिम्मेदारियां इन्हें सौंपी गईं और जीवाश्म रिसर्च मझधार में लटक गई। 1985 में विभाग के महानिदेशक डाॅ.कुमार सुरेश सिंह ने एक नेशनल प्रोजेक्ट "पीपल आफ इंडिया" आरंभ किया और डाॅ.सांख्यान को इस प्रोजेक्ट में हिमाचल प्रदेश का सह-संयोजक और बाद में संयोजक नियुक्त कर दिया। यह परियोजना 10 वर्ष चली। इस परियोजना पर 1996 में 'पीपल आफ इंडिया : हिमाचल प्रदेश' नामक पुस्तक प्रकाशित हुई जिसका संपादन डॉ.सांख्यान ने किया। इस पुस्तक में इनके 53 लेख प्रकाशित हुए।
1990 में यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन द्वारा इनका चयन मानवविज्ञानी के पद पर हुआ। इनकी नियुक्ति कलकत्ता स्थित मुख्यालय में पेलियो विभाग में की गई। तत्कालीन महानिदेशक ने 1992 में नर्मदा साल्वेज परियोजना आरंभ कर इन्हें और डॉ.वी.वी. राव को मध्य नर्मदा घाटी के जीवाश्मों व पाषाण उपकरणों की खोज का कार्य सौंपा। डॉ.वी.वी.राव की सेवानिवृत्ति के पश्चात 1993 में इन्हें पेलियो विभाग का प्रभारी बनाया गया। प्रभारी बनने के बाद इन्होंने 1980 से 1992 तक एकत्रित संरक्षित तमाम जीवाश्म व पाषाण उपकरणों को नए सिरे से जांचना परखना शुरू कर दिया। इसी दौरान इन्होंने एक नन्ही आदिमानव की कालर - अस्थि (क्लैविकल) जीवाश्म को पहचाना। इसके अध्ययन ने इन्हें कई महीनों तक बेचैन और परेशान किया। इनके वरिष्ठ अधिकारी इनकी खोज को मानने से परहेज़ करने लगे। उनके अनुचित हस्तक्षेप व नकारात्मक रवैये ने इनके आक्रोश को बढ़ावा दिया और आक्रोश काव्याग्नि में बदल गया। इसके चलते इन्होंने कई व्यंग्यात्मक कविताओं की रचना की। इनकी प्रथम कविता "जब बोल उठा पाषाण" थी। इस कविता में खोज का वर्णन है जबकि इनकी दूसरी कविता में उच्च अधिकारियों के नकारात्मक रवैये और उत्पीड़न की पीड़ा है।
डॉ. अनेक राम सांख्यान के स्वतंत्र अनुसंधान का कार्यक्षेत्र मुख्य रुप से घुमारवीं उपमण्डल के अन्तर्गत सीरखड्ड के इर्द-गिर्द रहा। इनके द्वारा स्थापित संग्रहालय में सीरगंगा तथा विदेश से प्राप्त पाषाण संस्कृति से सम्बंधित कलाकृतियां व उपकरणों की खोजों का प्रदर्शन किया गया है। यहां के उपकरण दो प्रकार की पाषाण-संस्कृतियों का अस्तित्व दर्शाते हैं जो गत पांच लाख वर्ष और पच्चीस हजार वर्ष पूर्व में पनपी थी। एक थी 'सोयन' ('सोआन') और दूसरी थी 'अशियुलियन'। तीसरी सभ्यता को खोजने का दावा डॉ.सांख्यान करते हैं। इस संस्कृति को इन्होंने 'बमूलियन संस्कृति' नाम दिया है।
डॉ. सांख्यान की प्रमुख खोजें
सोआन पाषाण संस्कृति से सम्बंधित :
सोआन पाषाण संस्कृति के उपकरणों की सर्वप्रथम खोज पाकिस्तान मेँ सिंधु की सहायक नदी सोआन से हुई है। ये औज़ार लगभग 7 -4 लाख वर्ष पूर्व के हैं। ये चार से छेः इंच के छोटे-छोटे गोल नदी पत्थरों से बनाए गए मांस काटने के चॉपर और फ्लेक्स हैं। इनसे पता चलता है कि सोआन आदिमानव लघु आकार का था और कुशल शिकारी नहीं था, अपितु छोटे-छोटे वन जंतुओं का ही शिकार कर पाता था, अथवा मरे हुए पशुओं का मांस कच्चा या धूप में सुखाकर खाता था, क्योंकि तब आग का आविष्कार नहीं हुआ था।
भारत में सोआन पाषाण संस्कृति के उपकरणों की खोज सर्वप्रथम 1955 में नालागढ़ में हुई, जहां से 1982 में डाॅ. सांख्यान ने भी सौ के करीब सोआन उपकरण खोजकर भारतीय मानवविज्ञान सर्वेक्षण के देहरादून संग्रहालय को दिए। सोआन उपकरण कांगड़ा में ब्यास बानगंगा के तट पर भी मिले हैं। कुछ हरिपुर और रानीताल के समीप बनखंडी से एकत्रित किए हैं।
बिलासपुर ज़िला से सर्वप्रथम 1979 में डाॅ.सांख्यान ने एक शानदार धार वाला सोआन चॉपर बड़ोन गांव के निकट खोजा जो कलकत्ता की पत्रिका 'साईन्स ऐंड कल्चर' में 1980 में प्रकाशित हुआ। उसके बाद इन्होंने घुमारवीं तहसील के अनेक स्थलों से, लेहड़ी सरेल व डंगार से ऐसे और औज़ार खोजे जिनका प्रकाशन 1983 में विख्यात विज्ञान पत्रिका 'करंट साईन्स' में हुआ जो अनेक अखबारों की सुर्खियां बना।
सेवा-निवृत होने के बाद 2014 में इन्होंने घुमारवीं सीरगंगा (सीरखड्ड) से सोआन संस्कृति के अनेक औज़ार खोजे। कोर्ट के पूर्व में एक गुफा के पास इन्हें एक तीखी धार वाला पेब्ब्ल चॉपर मिला है। एक रेतीले पत्थर की बनी शानदार निओलिथिक कुदाली भी मिली जो नर्म मिट्टी को खोदने के काम आती होगी। यहीं आसपास, तरोंतड़ा नाले से इसी तरह के और औज़ार मिले हैं। इनका प्रकाशन 2017 में 'इंटरनेशनल जर्नल ऑफ करंट रिसर्च' में हुआ। स्टेट म्युजियम शिमला सेमिनार में इनका प्रस्तुतीकरण किया गया था।
घुमारवीं क्षेत्र से प्राप्त सोआन पाषाण उपकरणों की कालअवधि आज से लगभग 3 लाख से लेकर 50 हज़ार वर्ष पूर्व की है। सीरगंगा पुल के आस-पास स्टेडियम क्षेत्र सोआन और अशियुलियन संस्कृति का मिश्रित संगम स्थल रहा।
अशियुलियन पाषाण संस्कृति से सम्बंधित :
अशियुलियन संस्कृति विश्व-व्यापि पाषाण संस्कृति थी। इसका जन्मदाता होमो इरेक्टस आदिमानव था जिससे आधुनिक मानव होमो सेपियंस विकसित हुआ। इसका उद्गम स्थल अफ्रीका है किन्तु दक्षिणी भारत में भी यह लगभग उसी काल में 16 लाख वर्ष पूर्व आ गई थी। धीरे-धीरे यह यूरोप और एशिया में एक महान संस्कृति में विकसित हो गई। भारत में मध्य नर्मदा घाटी इसकी विकसित चरम सीमा थी जिसे अंतिम अशियुलियन कहते हैं। वहां से डाॅ.सांख्यान और उनके सहयोगियों ने 8000 से अधिक उपकरण और 14 मानव जीवाष्म खोजे हैं जो कलकत्ता कार्यालय में प्रदर्शित हैं। इनका जन्मदाता आदि होमो सेपियंस था जो होमो इरेक्टस से विकसित हुआ। उत्तरी भारत में अशियुलियन संस्कृति की एकमात्र मुख्य स्थली होशियारपुर के निकट अट्टाबारपुर मानी जाती रही जिसकी खोज 1990 के दशक में पंजाब विश्वविद्यालय द्वारा की गई। इसमें 50 औजारों का उल्लेख है। घुमारवीं क्षेत्र से अशियुलियन औज़ारों की सर्वप्रथम खोज इन्होंने वर्ष 2010 में कल्लर बलघाड़ सरयाली पुल के पास की थी। वह शोधकार्य 2014 में पुनः शुरू किया। इनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा जब इन्होंने घुमारवीं सीरखड पुल और स्टेडियम के निकट से अनेक विविध प्रकार के लगभग 100 अशियुलियन उपकरण और साथ में सोआन उपकरण खोज निकाले। घुमारवीं सीरखड क्षेत्र से अतिदुर्लभ चित्रित पेब्बल चॉपर और एक भ्रूण के आकार का बेसाल्ट लोलक/ नैक (पेंडेंट) खोजा जिसका प्रकाशन 2017 में 'इंटरनेशनल जर्नल ऑफ करंट रिसर्च' में हुआ है। ये हमें प्रागैतिहासिक मानव की पोर्टेबल - सुवाहय़ कला के प्रारंभ और विकास का संकेत देता है।
बमुलियन संस्कृति से संबंधित :
घुमारवीं पाषाण-युग उद्योग एक अनूठी विविधता लिए इस उप-हिमालयी क्षेत्र में प्रागैतिहासिक मानव द्वारा अपनाए गए विभिन्न व्यवसायों को प्रतिबिंबित करता है। हमारे आधुनिक जस्ते वाले लौह उपकरण इन पाषाण उपकरणों की अनूठी नकल है। अधिकतर उपकरण लकड़ी काटने व कारपेंटर व आवास कार्य को दर्शाते हैं। कुछ उपकरण कंद मूल खोदने और भूमी कार्य या मिट्टी की प्रसंस्करण के लिए बने हैं और खाद्य उत्पादन भी दर्शाते हैं, बेशक शिकार करना प्राथमिक व्यवसाय रहा। विविधता और नए तकनीकी नवाचारों से संकेत मिलता है कि बमुलियन लोग लंबे समय से इस क्षेत्र में रहते थे। संभवतः उन्होंने अस्थायी झोपड़ियों को भी बनाया होगा। ऐसा प्रतीत होता है कि घुमारवीं क्षेत्र में पाषाण युग से ही ग्रामीण आवास विकास की निरंतरता बनी रही और आधुनिक टेक्नोलॉजी का विकास हुआ, जो अन्यत्र एक जगह कहीं नहीं मिली।
डॉ.सांख्यान ने बमुलियन संस्कृति से सम्बंधित विभिन्न जगहों को घुमारवीं के आप-पास जैसे - सुहानी, घुमारवीं पुल से स्टेडियम और मस्जिद क्षेत्र, बड्डू, भद्रोग, कसोहल, पदोहड़ी, बेला, लढेर, तलवाड़ा, नाल्टी, टांडा, बम, ड्रग, कोटलू, जाहू तक सीरगंगा घाटी में खोजा है। इनसे वर्ष 2014 और 2019 के बीच 500 से अधिक उपकरण प्राप्त किए गए हैं। अकेले बम क्षेत्र में 300 के करीब अवशेष मिले हैं। इनमें विशाल हस्तकुठार (हैंडेक्स), कलीवर, स्क्रैपरस, चाकू, झांबें, कुदाल, हैंडल वाले मांस काटने के चॉपर, दरांतियां, सॉ कट्टर, पतली तलवारें, आदि शामिल हैं। तलवाड़ा से डाॅ. साहब ने भाले, तीर, खुरपियां, दराट और प्रैस की तरह का अति दुर्लभ उपकरण खोजा है। सीरगंगा पुल व पुल के पास स्टेडियम क्षेत्र से इन्होंने दो बड़ी कुल्हाड़ियां खोजी जिनमें लकड़ी के बिंडे जस्ते से बांधने के लिए गर्दन बनाई गई है। जाहू से मध्यम आकार की कुल्हाड़ियां और खुरपी मिली है। ऐसी बड़ी कुल्हाड़ियां अभी तक भारत में कहीं नहीं मिली। विभिन्न उपकरणों की विशिष्टता को देखते हुए डॉ.सांख्यान ने बम के नाम से इसे 'बमुलियन संस्कृति' का नाम दिया है। इनकी यह खोज वर्ष 2018 में अमेरिका के 'ग्लोबल जर्नल ऑफ आर्किओलॉजी एंड एंथ्रोपोलॉजी' में प्रकाशित हुई और कई अख़बारों की सुर्खी बनी।
बमुलियन संस्कृति से संबंधित सभी पाषाण कलाकृतियां जिनमें कुल्हाड़ी, चॉपर, हथौड़ा, हैंडल वाला चॉपर, फावड़ा, खुरपी, तीर, आरी सॉ कटर, दरांती, भाला, पेंडल आदि औज़ार डॉ.अनेक राम सांख्यान द्वारा घुमारवीं (बिलासपुर) में स्थापित पेलियो म्युजियम में प्रदर्शन हेतु रखी गई हैं। इस म्युजियम में मानव उत्पत्ति की वैश्विक विकास यात्रा को चित्रों व प्रमाणों द्वारा दर्शाया गया है। भारतीय सनातन हिन्दू दर्शन में विष्णु के दशावतारों व वैज्ञानिक विकासक्रम को भी तुलनात्मक ढंग से दर्शाया गया है। यह म्युजियम हिमाचल में अपनी तरह का एक अलग संग्रहालय है जिसे विभिन्न राज्यों और विश्व के अनेक विद्वानों द्वारा सराहा गया है लेकिन स्थानीय लोगों के लिए अभी तक यह दीपक तले अंधेरा ही बना हुआ है। डॉ.सांख्यान ने अपने क्षेत्र व प्रदेश की विलुप्त संस्कृति व धरोहर को खोज कर अतुलनीय कार्य किया है। इनके द्वारा की गई खोजें युवा पीढ़ी तक पहुंचे इसके लिए स्थानीय नेतृत्व और सरकार का सहयोग आवश्यक है। इस संग्रहालय में उनके द्वारा की गई खोजों को व्यवस्थित ढंग से प्रदर्शित किया गया है।
72 वर्षीय विश्व स्तर पर ख्याति प्राप्त मानवविज्ञानी आज भी बमुलियन मानव, उसकी अनुवांशिकी, संस्कृति और समाज का वैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से अध्ययन कर रहे हैं। डॉ.सांख्यान ने उपलब्धियों से भरे जीवन में कई उतार-चढा़व देखे और निरंतर आगे बढ़ते रहे। इन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति पाई और कई सम्मान भी प्राप्त किए बावजूद इसके हिमाचल सरकार की निगाहें अब तक इन्हें ढूंढ नहीं पाई हैं, इस बात का इन्हें मलाल भी है।