भौतिकता की चकाचौंध में विलुप्त होता चरित्र - डॉ. राजेश चौहान ( Dr. Rajesh K Chauhan )

 भौतिकता की चकाचौंध में विलुप्त होता चरित्र

मानव जीवन के समस्त आयामों में शिक्षा की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह केवल आजीविका का साधन मात्र नहीं बल्कि जीवन को एक दिशा देने वाला दीपस्तंभ भी है। किंतु विडंबना यह है कि आधुनिक समाज में शिक्षा का मूल उद्देश्य केवल आर्थिक समृद्धि और प्रतिष्ठा प्राप्त करना बनकर रह गया है। माता-पिता हों या स्वयं छात्र, उनकी प्राथमिक चिंता किसी प्रतिष्ठित पद को प्राप्त करने और अधिकाधिक धन अर्जित करने तक ही सीमित रह गई है। यह कटु सत्य है कि हम भौतिक संसाधनों के पीछे दौड़ रहे हैं किंतु आत्मिक और नैतिक मूल्यों को भूलते जा रहे हैं। क्या शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य केवल धन अर्जन तक सीमित रहना चाहिए? क्या इसका प्रयोजन मात्र एक सफल करियर तक सीमित रह जाना चाहिए या फिर यह चरित्र निर्माण और मानवीय संवेदनाओं के विकास का भी माध्यम होना चाहिए? यह एक ऐसा प्रश्न है जिस पर गंभीरता से विचार किया जाना आवश्यक है।


वर्तमान शिक्षा प्रणाली में एक बालक अपने जीवन के 15-20 वर्ष विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में व्यतीत करता है। इतने वर्षों का यह अध्ययन क्या उसे केवल किताबी ज्ञान प्रदान करने के लिए है या फिर यह उसे जीवन जीने की कला भी सिखाता है? यह एक गंभीर विषय है क्योंकि ज्ञानार्जन और आत्मज्ञान में बहुत बड़ा अंतर है। ज्ञान हमें तथ्यों से अवगत कराता है किंतु आत्मज्ञान हमें यह सिखाता है कि उन तथ्यों का प्रयोग जीवन में कैसे और कब करना चाहिए। एक व्यक्ति गणित, विज्ञान, भाषा और तकनीकी विषयों में निपुण हो सकता है किंतु यदि उसमें नैतिकता और मानवीय संवेदनाएं नहीं हैं तो उसका यह ज्ञान समाज के लिए विनाशकारी भी हो सकता है। यही कारण है कि समाज में शिक्षित होते हुए भी अनेक लोग सही-गलत का विवेक नहीं रख पाते और अनैतिक कार्यों में लिप्त हो जाते हैं।


प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति में गुरु और शिष्य के मध्य आत्मीय संबंध हुआ करते थे। गुरु न केवल विद्या प्रदान करता था बल्कि अपने आचरण से शिष्य को जीवन के आदर्श भी सिखाता था। शिष्य भी गुरु को माता-पिता के समान सम्मान देता था और उसकी शिक्षाओं को जीवन का अभिन्न अंग बनाता था परंतु आधुनिक समय में शिक्षा मात्र एक व्यवसाय बनकर रह गई है। गुरु और शिष्य के मध्य आत्मीयता और संस्कारों का आदान-प्रदान समाप्त होता जा रहा है। वर्तमान समय में ऐसी घटनाएं देखने को मिलती हैं जहां कभी कोई छात्र अपने शिक्षक पर प्रहार करता है तो कभी कोई गुरु अपने नैतिक पतन के कारण गुरु-शिष्य के रिश्ते को तार-तार कर देता है। स्कूल में पढ़ने वाले बालक-बालिकाओं का नशे में संलिप्त होना अनेक सवाल खड़े करता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति शिक्षा के मूल उद्देश्य के पतन का संकेत देती है। ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि इस स्थिति के लिए दोषी कौन है? क्या दोषी केवल शिक्षा प्रणाली है या फिर हम सभी इस नैतिक पतन के सहभागी हैं?



किसी भी समाज या राष्ट्र की उन्नति उसके नागरिकों के चरित्र पर निर्भर करती है। यदि किसी राष्ट्र के नागरिक सुसंस्कृत, नैतिक और चरित्रवान हैं तो वह राष्ट्र विश्व में गौरव प्राप्त करता है। किंतु यदि शिक्षा केवल तकनीकी ज्ञान तक सीमित रह जाए और उसमें नैतिक मूल्यों का अभाव हो तो वही शिक्षित समाज विनाश का कारण भी बन सकता है।

चरित्रवान व्यक्ति केवल अपने ज्ञान के बल पर ही नहीं बल्कि अपनी नैतिकता, ईमानदारी, संयम और सद्गुणों के माध्यम से समाज में अपनी पहचान बनाता है। इतिहास गवाह है कि जिन महापुरुषों ने समाज को नई दिशा दी वे केवल ज्ञान में श्रेष्ठ नहीं थे बल्कि उनका चरित्र भी अतुलनीय था। महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद, डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जैसे व्यक्तित्व इसके सजीव उदाहरण हैं।

यदि शिक्षा के साथ चरित्र निर्माण पर ध्यान न दिया जाए तो समाज दिशाहीन हो सकता है। आज हम देख रहे हैं कि उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी कई युवा नैतिक मूल्यों से विमुख हो रहे हैं। वे तकनीकी रूप से दक्ष हैं लेकिन सामाजिक और मानवीय मूल्यों से अनभिज्ञ। वे धन और पद की होड़ में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि नैतिकता उनके लिए गौण हो जाती है।


चरित्र निर्माण की उपेक्षा किसी भी समाज के पतन का कारण बन सकती है। यदि हम चाहते हैं कि हमारा राष्ट्र सशक्त और समृद्ध बने तो हमें शिक्षा और नैतिकता के बीच संतुलन स्थापित करना होगा। केवल तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा पर्याप्त नहीं है बल्कि छात्रों में नैतिक मूल्यों, ईमानदारी, संवेदनशीलता और कर्तव्यपरायणता का विकास भी उतना ही आवश्यक है।

इसके लिए शिक्षकों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। शिक्षक को केवल एक पाठ्यक्रम पूरा करने वाले व्यक्ति के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि उसे एक मार्गदर्शक और प्रेरणास्रोत के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। साथ ही अभिभावकों को भी यह समझना होगा कि उनके बच्चों की सफलता केवल बड़े पदों पर पहुंचने में नहीं बल्कि अच्छे संस्कारों और सशक्त चरित्र निर्माण में है।


यदि समाज को नैतिकता की ओर अग्रसर करना है तो यह अनिवार्य है कि शिक्षा केवल ज्ञान का संचार न करे,बल्कि आत्मज्ञान और चरित्र निर्माण को भी उतना ही महत्व दे। शिक्षकों और छात्रों के बीच केवल किताबी संबंध न रहकर एक आत्मीय और नैतिक संबंध स्थापित हो ताकि शिक्षा अपने वास्तविक उद्देश्य की पूर्ति कर सके।

नैतिक जागरूकता और सद्गुणों की पुनर्स्थापना के बिना समाज और राष्ट्र का भविष्य सुरक्षित नहीं रह सकता। अतः हमें केवल किताबी ज्ञान तक सीमित न रहते हुए आत्मज्ञान और नैतिकता के आलोक में अपने व्यक्तित्व को निखारना होगा जिससे समाज और देश की प्रगति सुनिश्चित हो सके।


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