होली का रंग अपमान के दाग़ में न बदले - डॉ. राजेश चौहान (Dr. Rajesh K Chauhan)

 

होली का रंग अपमान के दाग़ में न बदले


भारत एक ऐसा देश है जहां पर्व और त्योहार सिर्फ धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित नहीं रहते बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का भी अहम हिस्सा बन जाते हैं। होली उन्हीं उत्सवों में से एक है जिसे रंगों, उमंग और उल्लास का प्रतीक माना जाता है। किंतु जब यही रंगोत्सव अनुशासनहीनता, अशिष्टता और दुर्व्यवहार का माध्यम बन जाए तो यह चिंतन का विषय बन जाता है। "बुरा न मानो होली है"—यह वाक्य जिसे मूलतः मस्ती और हास-परिहास के संदर्भ में गढ़ा गया था, कुछ लोग एक बहाने के रूप में प्रयोग करते हैं। समाज का एक वर्ग इस नारे के पीछे छिपकर अनुचित आचरण, अभद्रता, और महिलाओं के प्रति दुर्व्यवहार को जायज ठहराने का प्रयास करता है। यह प्रवृत्ति न केवल पर्व के मूल उद्देश्य को विकृत करती है बल्कि हमारी सामाजिक संरचना को भी कमजोर करती है।

होली का पर्व प्रेम, सौहार्द्र और आपसी भाईचारे का संदेश लेकर आता है। लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह पर्व कई लोगों के लिए बदसलूकी और अनुचित आचरण का एक खुला मंच बन गया है। नशे की अधिकता, अभद्र भाषा का प्रयोग, और जबरदस्ती रंग लगाने जैसी घटनाएँ आम हो गई हैं। विशेष रूप से महिलाओं और युवतियों के लिए यह त्योहार डर और असहजता का कारण बनने लगा है।



अक्सर देखा जाता है कि होली के दिन शराब और अन्य नशीले पदार्थों का खुलकर सेवन किया जाता है। शराब के नशे में धुत लोग गलियों में हंगामा मचाते हैं, सड़कों पर अराजकता फैलाते हैं और राह चलती महिलाओं पर रंग डालने, उन पर भद्दे कमेंट करने से लेकर उन्हें छूने तक का दुस्साहस करते हैं। इस दौरान जब कोई महिला इसका विरोध करती है, तो जवाब मिलता है— "बुरा न मानो होली है"।

यह मानसिकता इस कदर गहराई से समाज में पैठ बना चुकी है कि इसे एक परंपरा के रूप में देखा जाने लगा है। कुछ लोग यह मानकर चलते हैं कि होली के दिन किसी भी तरह की हरकत को क्षमा कर दिया जाएगा। वे भूल जाते हैं कि कोई भी पर्व, चाहे वह कितना भी आनंदमयी क्यों न हो, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक गरिमा से बड़ा नहीं हो सकता।


होली का वह दृश्य आज भी आँखों के सामने आ जाता है, जब कई महिलाएँ इस दिन घर से बाहर निकलने से कतराती हैं। वे घरों में ही कैद रहना पसंद करती हैं क्योंकि उन्हें पता होता है कि सड़कों पर एक अराजक भीड़ उनके सम्मान को चुनौती देने के लिए तैयार बैठी है। खासकर गाँवों और छोटे शहरों में जहाँ सामाजिक दबाव अधिक होता है वहाँ ऐसी घटनाएँ अक्सर होती हैं, लेकिन इन पर आवाज नहीं उठाई जाती।

होली की आड़ में जबरदस्ती रंग लगाने, चेहरे पर जबरन गहरे रंग पोतने, और पानी से भरे गुब्बारों और अण्डों तक से निशाना साधने जैसी हरकतें सामान्य मानी जाती हैं। महिलाओं के कपड़ों को भीगाकर उन्हें शर्मिंदा करने की प्रवृत्ति भी देखने को मिलती है। यह कैसी परंपरा है जिसमें किसी को उसकी मर्जी के खिलाफ रंगों में सराबोर किया जाता है और फिर भी उसे बुरा न मानने की सलाह दी जाती है?

यह न केवल महिलाओं की अस्मिता के खिलाफ है बल्कि एक गहरी सामाजिक समस्या को भी दर्शाता है। यह प्रवृत्ति बताती है कि हमारे समाज में अब भी सहमति की अवधारणा को गंभीरता से नहीं लिया जाता।


होली का वास्तविक स्वरूप रंगों और मेल-मिलाप से जुड़ा है लेकिन दुर्भाग्य से यह नशे और हुड़दंग के महोत्सव में बदलता जा रहा है। कई लोग होली को केवल शराब पीने, भांग के नशे में बहकने और सड़कों पर बवाल मचाने का जरिया बना चुके हैं। यह स्थिति इतनी भयावह हो जाती है कि सड़क पर चलने वाले आम नागरिकों को भी डर लगने लगता है।

कई जगहों पर, खासतौर पर युवा वर्ग, होली के दिन बाइक और कारों में झुंड बनाकर निकलते हैं और सड़कों पर उत्पात मचाते हैं। नशे की हालत में वे न केवल ट्रैफिक नियमों को तोड़ते हैं बल्कि राहगीरों के लिए भी खतरा बन जाते हैं।

यह कितनी शर्मनाक बात है कि जिस पर्व को प्रेम और सौहार्द्र का प्रतीक माना जाता था वह अब डर और अव्यवस्था का कारण बन रहा है। क्या यही हमारी सांस्कृतिक विरासत है? क्या यही वह संदेश है, जिसे हम आने वाली पीढ़ी को सौंपना चाहते हैं?


इस स्थिति को सुधारने के लिए केवल व्यक्तिगत प्रयास पर्याप्त नहीं हैं। समाज और प्रशासन दोनों को मिलकर ठोस कदम उठाने होंगे।

सबसे पहले यह जरूरी है कि "बुरा न मानो होली है" स्लोगन बोलकर किसी के साथ दुर्व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए। किसी भी प्रकार की अभद्रता को मजाक के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए।

महिलाओं को होली के दौरान सुरक्षा का आश्वासन दिया जाना चाहिए। सार्वजनिक स्थलों पर पुलिस की सख्त निगरानी होनी चाहिए ताकि कोई भी व्यक्ति नशे या उत्पात के नाम पर दूसरों को असहज न कर सके।

होली का सही अर्थ समझाने के लिए जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिए। स्कूलों, कॉलेजों और समाज के अन्य मंचों पर इस विषय पर खुली चर्चा होनी चाहिए ताकि लोग यह समझ सकें कि आनंद और अनुशासन एक-दूसरे के विरोधी नहीं होते।

कानूनी प्रावधानों को सख्ती से लागू किया जाना चाहिए। महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए ताकि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो।


होली केवल रंगों का उत्सव नहीं बल्कि दिलों को जोड़ने का पर्व है। इसे किसी की स्वतंत्रता, सम्मान और गरिमा को ठेस पहुँचाने का माध्यम नहीं बनाया जा सकता। "बुरा न मानो होली है" जैसे वाक्य किसी भी अनुचित कार्य के लिए बहाने नहीं बन सकते। हर त्योहार की तरह होली भी सद्भावना, प्रेम और सामाजिक सौहार्द्र का प्रतीक बना रहे इसके लिए हमें मिलकर प्रयास करने होंगे।

अब समय आ गया है कि हम होली को सिर्फ रंगों तक सीमित न रखें, बल्कि इसे एक ऐसे पर्व के रूप में स्थापित करें जहाँ हर कोई स्वयं को सुरक्षित और खुश महसूस करे। आइये इस बार एक ऐसा रंगोत्सव मनाएं जिसमें कोई अभद्रता न हो, कोई असहजता न हो और किसी भी प्रकार का भय न हो।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

आवारा हूँ या बेसहारा? (एक बैल की कहानी ) - डॉ. राजेश चौहान Dr. Rajesh K Chauhan

संगीत एक उत्तम औषधि (संगीत चिकित्सा Music therapy)- Dr. Rajesh K Chauhan

अनुकरणीय संगीत शिक्षिका एवं कुशल प्रशासक : रेखा शर्मा - डॉ. राजेश चौहान ( Dr. Rajesh K Chauhan )