सुरसाधिका विदुषी डॉ. मनोरमा शर्मा - डॉ. राजेश चौहान Dr. Rajesh k Chauhan

 



 सुरसाधिका विदुषी डॉ. मनोरमा शर्मा


संगीत केवल सुरों की साधना नहीं आत्मा की पुकार और संस्कृति का गहरा प्रतिबिंब होता है। हिमाचल प्रदेश की सुरम्य वादियों में जन्मी और संगीत साधना को जीवन का लक्ष्य बनाने वाली डॉ. मनोरमा शर्मा ऐसी ही एक विलक्षण विभूति थी जिन्होंने न केवल शास्त्रीय संगीत में विशिष्ट स्थान बनाया बल्कि लोक संगीत, शोध, लेखन, शिक्षण और अकादमिक विमर्श के क्षेत्र में भी नए कीर्तिमान स्थापित किए। वह हिमाचल प्रदेश की प्रथम महिला हैं, जिन्हें संगीत विषय में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त हुई। उनका संपूर्ण जीवन भारतीय संगीत परंपरा को समर्पित रहा है।


डॉ. मनोरमा शर्मा का जन्म 27 मई, 1937 को हिमाचल प्रदेश के डलहौजी कस्बे में हुआ। वह एक शिक्षित, सुसंस्कृत और साहित्य-संगीत प्रेमी परिवार से ताल्लुक रखती थीं जहाँ साहित्य, कला और परंपरा का वातावरण बचपन से ही उनके व्यक्तित्व में रचा-बसा था। इनके पिता जालंधर निवासी हंसराज शर्मा स्कूल ऑफ़ इंजीनियरिंग कॉलेज से स्नातक थे, जबकि माता शिक्षित थीं तथा रियासतों के राजघरानों में पढ़ा चुकी थीं। मनोरमा जी के पिता गवर्नमेंट इंजीनियरिंग सेवा में थे, इसलिए उनका प्रायः हर तीन वर्ष बाद स्थानांतरण हो जाया करता था। डॉ.मनोरमा शर्मा की आरंभिक स्कूली शिक्षा सोलन, अम्बाला और जीसस एंड मेरी कॉलेज में हुई। बचपन से ही शिक्षा के साथ-साथ संगीत के प्रति उनका गहरा आकर्षण रहा। उस समय हिमाचल में महिला शिक्षा और विशेष रूप से संगीत जैसे विषय में आगे बढ़ना दुर्लभ बात थी परंतु उनके परिवार ने उनका पूरा साथ दिया।


डॉ. शर्मा ने संगीत में एम.ए. और तत्पश्चात पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की और हिमाचल प्रदेश की पहली महिला बनीं जिन्हें संगीत में डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त हुई। उन्होंने अपनी शोध यात्रा में संगीत के विविध पहलुओं को स्पर्श किया — जैसे भारतीय संगीत दर्शन, राग रचना की प्रक्रिया, लोक और शास्त्रीय का अंतर्संबंध, महिला संगीतकारों की भूमिका आदि। भारतीय शास्त्रीय संगीत की गहराई को समझने और आत्मसात करने के लिए ठुमरी, दादरा, ख्याल, टप्पा जैसे शास्त्रीय और उपशास्त्रीय विधाओं में गहन प्रशिक्षण प्राप्त किया। अपने गुरुजनों की कृपा और कठोर साधना के बल पर उन्होंने संगीत की तकनीकी बारीकियों से लेकर भावनात्मक अभिव्यक्तियों में सिद्धि प्राप्त की। उनकी शोध-निगाहें केवल संगीत के तकनीकी पक्ष तक सीमित नहीं रहीं बल्कि उन्होंने सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों में भी संगीत को देखा और विश्लेषित किया। उनके निर्देशन में 45 से अधिक शोधार्थियों ने एम.फिल. और पीएच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त कीं जिनमें से कई आज महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों, संगीत संस्थानों और अकादमिक जगत में प्रतिष्ठित स्थान पर हैं।



डॉ. मनोरमा शर्मा न केवल एक गायिका और अध्यापिका रहीं बल्कि एक अत्यंत प्रवीण लेखिका भी थीं। उन्होंने संगीत के विविध आयामों पर कुल 31 पुस्तकों की रचना की, जिनमें से कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में सम्मिलित हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने 25 पुस्तकों में अध्याय लिखे तथा 200 से अधिक शोध-पत्र और लेख प्रतिष्ठित जर्नल्स, स्मारिकाओं तथा संगीत विषयक पत्रिकाओं में प्रकाशित किए। उनकी लेखनी में तथ्यपरकता के साथ-साथ भावप्रवणता का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। उनकी पुस्तकें शोधार्थियों, शिक्षकों, छात्रों और संगीत प्रेमियों के लिए मार्गदर्शिका के रूप में कार्य करती हैं।


यद्यपि डॉ. शर्मा शास्त्रीय संगीत की सिद्धहस्त साधिका थीं परंतु उनका हृदय हिमाचल के लोक संगीत के प्रति भी अत्यंत संवेदनशील था। उन्होंने लोक परंपराओं को केवल गान के रूप में नहीं बल्कि सांस्कृतिक आत्मा के रूप में देखा। वे हिमाचली लोकगीतों की धुनों और सामाजिक संदर्भों का शास्त्रीय दृष्टि से अध्ययन करती थीं। उनका मानना था कि लोक संगीत में उस जनमानस की पीड़ा, उत्सव, विश्वास और भावनाएँ छिपी होती हैं जिसे बिना समझे भारतीय संगीत की पूर्णता अधूरी रह जाती है। उन्होंने हिमाचल की लोक रामायण, विवाह गीत, व्रत-त्योहारों से जुड़े गीतों, देव संस्कृति और लोकगाथाओं को अपनी लेखनी से एक सैद्धांतिक और वैज्ञानिक आधार प्रदान किया।


डॉ. मनोरमा शर्मा ने कई वर्षों तक संगीत विभाग हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में अपनी सेवाएं दी। वहाँ वे वर्षों तक विभागाध्यक्ष भी रहीं। उन्होंने शैक्षणिक गुणवत्ता, शोध और छात्र-शिक्षक संवाद को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। उनकी कक्षा एक मंदिर की भाँति होती थी जहाँ संगीत साधना के साथ-साथ नैतिकता, अनुशासन और समर्पण का पाठ पढ़ाया जाता था।


सेवानिवृत्ति के पश्चात भी वे सक्रिय रहीं और हिमाचल भाषा एवं कला अकादमी, की वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्य करती रहीं। इस भूमिका में उन्होंने अनेक लोक कलाकारों, शोधार्थियों और संगीत साधकों का मार्गदर्शन किया तथा हिमाचल की सांस्कृतिक विरासत को सहेजने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। 


उन्होंने ने 100 से अधिक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों, कार्यशालाओं, परिसंवादों और अकादमिक मंचों पर भाग लिया। उनकी प्रस्तुतियाँ और शोधपत्र विश्वविद्यालयों, संगीत अकादमियों और अकादमिक संस्थानों में अत्यधिक सराहे गए। वह संगीत नाटक अकादमी, आल इंडिया रेडियो पैनल, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद और 'एनसाइक्लोपीडिया ऑफ म्यूज़िक' जैसे अंतरराष्ट्रीय परियोजनाओं की सक्रिय सदस्य रहीं। उन्होंने भारत सहित कई देशों के विद्वानों के साथ संवाद स्थापित किया और भारतीय संगीत को वैश्विक विमर्श से जोड़ा।


डॉ. शर्मा को उनके अपार योगदान के लिए समय-समय पर अनेक सम्मान प्राप्त हुए। उन्हें राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न अकादमियों, विश्वविद्यालयों और संस्थानों ने अलंकृत किया। संगीत शोध और लोक परंपराओं को सैद्धांतिक आधार देने के लिए उन्हें विशेष रूप से सम्मानित किया गया। उनकी विदुषिता, समर्पण और सृजनशीलता ने उन्हें केवल एक संगीतकार नहीं बल्कि एक विचारक और सांस्कृतिक योद्धा के रूप में स्थापित किया। 


उनका जीवन हर उस विद्यार्थी, शोधार्थी और कलाकार के लिए प्रेरणा का स्रोत है जो संगीत को केवल पेशा नहीं बल्कि साधना मानता है। उन्होंने दिखाया कि सीमित संसाधनों और पर्वतीय अंचल की कठिन परिस्थितियों में भी यदि लगन, समर्पण और विचारशक्ति हो तो किसी भी क्षेत्र में उत्कृष्टता प्राप्त की जा सकती है। उनकी संगीत यात्रा, शिक्षण शैली, लेखन, शोध और लोक के प्रति संवेदनशील दृष्टिकोण आज भी नई पीढ़ी को दिशा देने वाला प्रकाशस्तंभ है।


इनकी सुरमई यात्रा में उनके पति डॉ.वी.के. शर्मा का अविस्मरणीय योगदान रहा वे अंतिम क्षण तक उनका हर क्षेत्र में साथ देते रहे। हालांकि हिमालय की महान सुरसाधिका शारीरिक रूप से बहुत सारी समस्याओं से जूझती रहीं लेकिन उनकी रचनात्मक सोच हमेशा जवान बनी रही। उनके बुज़ुर्ग चेहरे में उनके व्यक्तित्व का सौंदर्य और भी निखरता चला जाता, मंच के कार्यक्रम हों या फिर घर पर जिज्ञासु बालकों को संगीत सिखाना, उनका नज़रिया हमेशा आत्मविश्वास से लबरेज़ रहा। 9 दिसम्बर 2022 को डॉ. मनोरमा शर्मा इस नश्वर संसार को छोड़कर सदा के लिए ब्रह्मलीन हो गईं। उनकी याद में 28 मई 2024 को शिमला के ऐतिहासिक गेयटी थिएटर में संचेतना संस्था द्वारा एक संगीतिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था जिसमें प्रदेश तथा देश के नामी कलाकारों ने अपनी प्रस्तुतियां दी थी। 


डॉ. मनोरमा शर्मा का जीवन हिमाचल प्रदेश और भारत के संगीत इतिहास में एक उज्ज्वल अध्याय के रूप में सदा स्मरणीय रहेगा। वे हिमालय की शांत वादियों से निकली वह स्वर-गंगा थीं जिन्होंने लोक और शास्त्र, परंपरा और नवाचार, साधना और विद्वता को एक सूत्र में पिरोया। उनका जीवन बताता है कि सुरों की साधना केवल गायन नहीं, आत्मा की अभिव्यक्ति और समाज की सेवा भी हो सकती है।


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