प्रेरणा के स्रोत संगीत गुरु—प्रो. रामस्वरूप शांडिल्य - डॉ. राजेश चौहान ( Dr. Rajesh K Chauhan )
हिमाचल प्रदेश की हिमाच्छादित चोटियाँ, बहती नदियाँ, हरे-भरे देवदार के वन और धरा की गोद में बसे गाँव केवल प्रकृति की सुंदरता से ही नहीं, बल्कि संस्कृति, कला और अध्यात्म की जीवंत परंपराओं से भी समृद्ध रहे हैं। इन्हीं वादियों ने समय-समय पर ऐसे विभूतियों को जन्म दिया है, जिनकी आभा ने प्रदेश ही नहीं, बल्कि समूचे राष्ट्र को आलोकित किया। संगीत की दिव्य साधना और शिक्षा की उज्ज्वल परंपरा को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाने वाले एक ऐसे ही व्यक्तित्व हैं—प्रो. रामस्वरूप शांडिल्य, जिन्हें आज हम “हिमाचल के संगीत गुरु” और नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा-स्रोत के रूप में जानते हैं।
23 नवम्बर 1956 में सोलन ज़िला के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल चायल के समीप बसे छोटे से गाँव तेहतू में जन्मे डॉ. शांडिल्य का जीवन केवल व्यक्तिगत सफलता की गाथा नहीं है, बल्कि यह एक ऐसे साधक की यात्रा है जिसने साधारण किसान परिवार से निकलकर अपने अथक परिश्रम और तपस्या के बल पर संगीत, शिक्षा और समाज सेवा की त्रिवेणी को मूर्त रूप दिया।
उनके जीवन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने परिस्थितियों के अभाव को कभी बाधा नहीं बनने दिया। गाँव का परिवेश जहाँ संगीत से अनभिज्ञ था वहीं उन्होंने अपनी राह स्वयं बनाई। संघर्षों और सीमाओं के बीच भी उनका मन स्वर और लय की ओर आकर्षित हुआ और आगे चलकर यही आकर्षण एक महान साधना में परिवर्तित हो गया।
हाल ही में हिमाचल प्रदेश सरकार ने इन्हें हिमाचल प्रदेश के विशिष्ट नागरिक सम्मान "प्रेरणा स्रोत-2025" से सम्मानित किया। यह सम्मान इन्हें हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू द्वारा सरकाघाट में आयोजित राज्य स्तरीय स्वतंत्रता दिवस समारोह में प्रदान किया गया। ये सम्मान उनके योगदान की केवल औपचारिक मान्यता नहीं बल्कि संगीत, संस्कृति और शिक्षा के उस प्रकाशस्तंभ की पहचान है जो दशकों से समाज को आलोकित कर रहा है।
डॉ. शांडिल्य का जन्म एक साधारण किसान परिवार में हुआ। इनके पिता स्व. मनसाराम और माता स्व. सोबनी देवी का जीवन कठिन परिश्रम और सादगी से परिपूर्ण था। उनके सात संतानें थीं—चार भाई और तीन बहनें। इनमें रामस्वरूप सबसे छोटे थे। नारायण दत्त, बालकृष्ण, नंदराम जैसे स्नेहिल भाइयों तथा लीला देवी, दर्शनू देवी और सत्या देवी जैसी बहनों के स्नेह ने इनके जीवन को पारिवारिक ऊष्मा से परिपूर्ण किया। परिवार का वातावरण संगीत से दूर था। खेत-खलिहान और गृहस्थ जीवन की व्यस्तताओं के बीच कला और संगीत के लिए कोई विशेष स्थान नहीं था। परंतु जीवन का रहस्य ही यही है कि अक्सर प्रेरणा अप्रत्याशित रूप से मिलती है। उनके बड़े भाई बालकृष्ण शांडिल्य, जो प्राथमिक विद्यालय में अध्यापक थे, कविता और गीत लिखने का शौक रखते थे। उनके साहित्यिक रुझान ने छोटे भाई रामस्वरूप के भीतर भी कविता गुनगुनाने और गीत बनाने की चिंगारी जलाई। यह चिंगारी आगे चलकर धीरे-धीरे प्रज्ज्वलित लौ बनी। इनकी प्रारंभिक शिक्षा चायल में हुई। हाई स्कूल के दिनों में हेडमास्टर रामानन्द ने उनके भीतर छिपे इस रुझान को पहचानकर प्रोत्साहन दिया। विद्यालयी प्रतियोगिताओं में वे गीत गाते, खेलकूद में भी भाग लेते और अक्सर सम्मान प्राप्त करते। इन्हीं दिनों के अनुभवों ने उनके मन में यह विश्वास भर दिया कि संगीत केवल शौक नहीं बल्कि जीवन को अर्थ देने वाला मार्ग है।
संगीत की विधिवत शिक्षा की शुरुआत संगीत गुरु प्रो. अनन्तराम चौधरी के सान्निध्य में हुई। प्रो. चौधरी राजकीय महाविद्यालय सोलन में संगीत गायन के आचार्य थे। वे उच्च कोटि के संगीत साधक एवं संगीत गुरु थे। वो उस्ताद बुटे खाँ साहब, पं. दिलीपचन्द वेदी और पं. हरीशचन्द्र वाली जैसे महान गुरुओं के शिष्य थे। उनकी गायकी में पंजाब, किराना और जयपुर घरानों की समृद्ध परंपराओं का सुंदर संगम दिखाई देता था। इस संगम ने युवा रामस्वरूप के भीतर संगीत को केवल साधना ही नहीं बल्कि एक जीवंत दर्शन के रूप में स्थापित किया। महाविद्यालय में इन्हें प्रो. माधुरी रमौल से भी संगीत की बारीकियां सीखने का अवसर मिला।
एम.फिल. के दौरान उन्हें प्रो. भीमसेन शर्मा और डॉ. चमनलाल वर्मा जैसे विद्वानों से भी संगीत की सूक्ष्मताओं को समझने का अवसर मिला। दर्शन निष्णात् और विद्यावाचस्पति की उपाधि हेतु शोधकार्य उन्होंने डॉ. चमनलाल वर्मा के मार्गदर्शन में पूरा किया। इसके अतिरिक्त बड़े गुरु-भाई पं. जगन्नाथ भार्गव से उन्होंने गहन रूप से संगीत की बारीकियाँ सीखीं।
उन दिनों शिमला के खलीनी क्षेत्र में जगन्नाथ भार्गव का घर संगीत का एक केंद्र था, जहाँ वे अपने मित्र कैलाश सूद (प्रसिद्ध सितार वादक एवं रचनाकार) के साथ निरंतर जाया करते। वहाँ का वातावरण उनके लिए साधना का मंदिर था, जिसने उनके जीवन की दिशा निर्धारित कर दी।
सन् 1979 में उनका विवाह जौणाजी कोटला निवासी कृष्णदत्त व प्रेम देवी की सुपुत्री मीरा देवी के साथ हुआ। यह विवाह उनके जीवन में केवल पारिवारिक स्थिरता ही नहीं बल्कि संगीतिक और आध्यात्मिक संगम भी लेकर आया। इस दंपत्ति को तीन संतानें हैं। इनकी पुत्री डॉ. कामिनी शांडिल्य, राजकीय महाविद्यालय, कोटशेरा में सितार की सहायक आचार्य हैं। सुपुत्र डॉ. नीरज शांडिल्य, जो राजकीय ललित कला महाविद्यालय, शिमला में गायन के सहायक आचार्य हैं। वे आकाशवाणी व दूरदर्शन केंद्र शिमला से ए ग्रेड कलाकार के तबला वादक हैं। नीरज का नाम उत्तर भारत के प्रसिद्ध युवा तबला वादकों में शुमार है। इनके सबसे छोटे पुत्र डॉ. धीरज शांडिल्य, अबू धाबी के एक प्रतिष्ठित विद्यालय में संगीत शिक्षक हैं। पत्नी मीरा देवी स्वयं भी संगीत में रुचि रखती हैं और हर परिस्थिति में अपने पति तथा संतानों की सहयात्री और प्रेरणास्रोत रही हैं। इस प्रकार उनका पूरा परिवार ही आज संगीत साधना का एक आदर्श उदाहरण बन चुका है।
डॉ. शांडिल्य का व्यावसायिक सफर 1981 से प्रारंभ हुआ, जब वे भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के गीत एवं नाटक विभाग, शिमला से कलाकार के रूप में जुड़े। 1989 तक उन्होंने इस मंच से विभिन्न सरकारी अभियानों को जन-जन तक संगीत के माध्यम से पहुँचाया। इसके पश्चात 1989 से 1993 तक उन्होंने जवाहर नवोदय विद्यालय (जिला किन्नौर) में संगीत शिक्षक के रूप में कार्य किया। आवासीय विद्यालय का वातावरण विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास का केंद्र होता है और यहाँ उन्होंने संगीत के साथ-साथ खेलकूद व सह-पाठ्यक्रम गतिविधियों का भी जिम्मा उठाया। इसी अवधि में उन्होंने हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से संगीत गायन में पीएच.डी. की उपाधि भी अर्जित की।
5 अगस्त 1993 को वे हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला के संगीत विभाग में प्रवक्ता (गायन) नियुक्त हुए। 24 वर्षों के सेवाकाल में उन्होंने विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को न केवल ज्ञान दिया बल्कि वहाँ की सांस्कृतिक पहचान का अंग बन गए। 2002 में वे सह-आचार्य बने और
2009 में आचार्य के पद पर पदोन्नत हुए। विश्वविद्यालय में 24 वर्षों के सफल एवं उपलब्धियों से परिपूर्ण कार्यकाल के बाद 30 जून 2017 को वे आदर्श शिक्षक और मार्गदर्शक के रूप में सेवानिवृत्त हुए।
उन्होंने विश्वविद्यालय में कई शैक्षणिक और प्रशासनिक दायित्व निभाए। वे अकादमिक परिषद् के सदस्य, बोर्ड ऑफ स्टडीज़ के संयोजक, अंतर्राष्ट्रीय दूरस्थ शिक्षा एवं मुक्त शिक्षा केंद्र संगीत विभाग के सह-सम्पादक तथा रिसर्च जर्नल्स इन एजुकेशन विद विजुअल आर्ट्स (2010–2014) के सम्पादक रहे।
एक संगीत शिक्षक और शोध मार्गदर्शन के रूप में, डॉ. शांडिल्य ने 104 शोध छात्रों का मार्गदर्शन किया, जिनमें 64 एमफिल और 40 पीएचडी छात्र शामिल हैं। उनके मार्गदर्शन में कई छात्र आज हिमाचल और देश के अन्य स्कूल, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में संगीत के अध्यापक के रूप में कार्यरत हैं और कुछ आकाशवाणी और दूरदर्शन के उच्च श्रेणी कलाकार भी हैं। विभिन्न युवा उत्सवों में इनके कई शिष्य राष्ट्रीय स्तर पर उत्कृष्ट पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं और हिमाचल का नाम रोशन कर रहे हैं।
निर्णायक के रूप में प्रतिष्ठा
हरियाणा लोक सेवा आयोग, उत्तराखंड लोक सेवा आयोग, विश्वविद्यालय पटियाला और बनस्थली विद्यापीठ, राजस्थान में आचार्यों के चयन में विषय विशेषज्ञ के रूप में कार्य किया।
डॉ. शांडिल्य ने देश के विभिन्न प्रतिष्ठित संगीत महोत्सवों में निर्णायक के रूप में भी अपनी भूमिका निभाई है। उन्होंने शिमला समर फेस्टिवल, शूलिनी महोत्सव (सोलन), और हरिवल्लभ संगीत सम्मेलन (जालंधर) जैसे प्रमुख आयोजनों में कई वर्षों तक अपनी निर्णायक भूमिका निभाई। उनके गहन अनुभव और निष्पक्षता से संगीत प्रतियोगिताओं को नई दिशा मिली।
डॉ. शांडिल्य ने विभिन्न राज्य, अन्तर विश्वविद्यालय स्तर की संगीत प्रतियोगिताओं एवं हिमाचल प्रदेश एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए कलाकारों की चयन प्रक्रिया में निर्णायक की भूमिका निभाई। ये हरियाणा लोक सेवा आयोग, उत्तराखण्ड लोक सेवा आयोग और विश्वविद्यालय पटियाला एवं बनस्थली विद्यापीठ राजस्थान में आचार्यों के चयन में विषय विशेषज्ञ के रुप में कई बार शामिल रहे तथा विभिन्न विश्वविद्यालयों के बोर्ड ऑफ स्टडीज और आर. डी. सी. के सदस्य भी रहे।
संगीतिक यात्रा
संगीत की साधना केवल अध्ययन-कक्ष तक सीमित नहीं रही। डॉ. शांडिल्य ने मंचों पर भी अपनी कला का परिचय दिया। उन्होंने 1976 में आकाशवाणी शिमला से स्वर परीक्षा पास की और निरंतरता के साथ आकाशवाणी से अपनी प्रस्तुतियां देते रहे। 1985 में उन्हें आकाशवाणी शिमला से हिमाचली लोकगीतों में बी हाई ग्रेड और 1987 में सुगम संगीत में बी ग्रेड मिला। वर्ष 2000 में इन्होंने आकाशवाणी से शास्त्रीय गायन में बी हाई ग्रेड हासिल किया। वर्तमान समय में ये "ए श्रेणी" के कलाकार के रूप में आकाशवाणी शिमला की गरिमा बढ़ा रहे हैं। ये वर्षों से लगातार आकाशवाणी और दूरदर्शन केंद्र शिमला से लोक गायन, सुगम संगीत और शास्त्रीय संगीत की प्रस्तुतियां दे रहे हैं। इनके द्वारा गाए गए गीत अक्सर आकाशवाणी शिमला से गूंजते रहते हैं और जनमानस द्वारा अत्यधिक पसंद किए जाते हैं। हिमाचल अपणा जानी ते बी प्यारा, देशा च देश हमारा, जाई के मा जुणगा देखी लैणा हो, लागो ना जिवटा, एकी क्यारी दे सौंफ बिजणी, ए लालन आये मोरे द्वारे, शिव शंकर महादेव (राग मालकौंस), आती रहेंगी यादें आंसू बहा करेंगे (ग़ज़ल) ज़िन्दगी है मगर पराई है(ग़ज़ल) जैसी प्रसिद्ध रचनाओं के गायक व रचनाकार प्रो. शांडिल्य रेडियो और दूरदर्शन की कॉन्सर्ट्स के माध्यम से राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर कई राज्यों में अपनी कला का कर चुके हैं। इन्हें भारत में अनेकों नगरों में सफल प्रदर्शन करने का भी अवसर मिला जिसमें हिमाचल, पंजाब, जालंधर, रोहतक, दिल्ली, रायपुर, भिलाई (म. प्र.), जयपुर, नागपुर, बनारस, कोलकाता, जम्मू, अहमदाबाद, नैनीताल और उदयपुर इत्यादि प्रमुख है। इन्होंने टेलीफिल्म ‘पतझड़’ के लिए भी अपनी मधुर आवाज़ में गीत गाया है।
सम्मान
डॉ. रामस्वरूप शांडिल्य को विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया है। वर्ष 2012 में इन्हें हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के कुलगीत को संगीतबद्ध करने के लिए तत्कालीन राज्यपाल द्वारा" सर्वश्रेष्ठ संगीत रचनाकार व शिक्षक पुरस्कार – 2012" से सम्मानित किया गया।
17 अक्टूबर, 2017 को एच. यू. म्यूजिक एंड फिल्म्स प्राइवेट लिमिटेड द्वारा आपको ‘द लीजेंड ऑफ क्लासिकल एंड फोक म्यूजिक’ अवार्ड से सम्मानित किया गया। 20 अक्टूबर 2019 को केतन कला मंच द्वारा उनकी 20वीं वर्षगांठ पर आपको ‘क्लासिकल एंड फोक म्यूजिक’ में विशिष्ट कला सम्मान से सम्मानित किया गया।
हाल ही में 15 अगस्त 2025 को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा इन्हें हिमाचल प्रदेश के विशिष्ट नागरिक सम्मान "प्रेरणा स्रोत -2025 " से सम्मानित किया गया है।
रचनात्मक कार्य
डॉ. शांडिल्य “हिमाचल प्रदेश के लोक संगीत की परम्पराएँ” नामक पुस्तक लिखी है और दो पुस्तकें प्रगति पर हैं। इनके अनेक शोध पत्र विभिन्न पत्र पत्रिकाओं और जर्नल्स में प्रकाशित हो चुके हैं। इन्होंने लगभग 30–35 राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सेमिनारों में भाग लिया तथा रिसोर्स पर्सन के रूप में विशेष योगदान दिया।
इन्होंने हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के कुलगीत (विश्वविद्यालय का गीत) को स्वरबद्ध किया, जो इनकी संगीत-साधना का अमर उदाहरण है। इसके अलावा उन्होंने लोक गीत, शास्त्रीय संगीत में ख्याल, ग़ज़ल, भजन, गीत और समूह गीत आदि की लगभग 110 से अधिक रचनाएँ की हैं जिन्हें अधिकतर संगीत कलाकार आज के समय में गा रहे हैं।
सामाजिक दायित्व
डॉ. शांडिल्य, शास्त्रीय संगीत के उत्थान हेतु राष्ट्रीय स्तर की संगीत संस्था ‘संगीत संकल्प’ शिमला इकाई के वर्तमान अध्यक्ष तथा हिमाचल प्रदेश की संगीत संस्था ‘संचेतना’ के वर्तमान उपाध्यक्ष हैं।
इन्होंने शास्त्रीय संगीत के प्रसार और प्रचार हेतु 2008 में "गुरु शिष्य परम्परा एवं शास्त्रीय संगीत संस्था’ हिमाचल प्रदेश" की स्थापना की है। यह संस्था पिछले कई वर्षों से शास्त्रीय संगीत से संबंधित प्रतियोगिताएं और सम्मेलन आयोजित करती रहती है जिससे हिमाचल प्रदेश के युवाओं में शास्त्रीय संगीत का प्रचार और प्रसार हो रहा है। यह संस्था प्रत्येक वर्ष अपना वार्षिक समारोह सोलन में आयोजित करती है जिसमें भारत के विख्यात संगीतज्ञ अपनी प्रस्तुतियां दे चुके हैं। इन्होंने 2010 में संगीत कल्याण संगठन हिमाचल की स्थापना की यह संस्था संगीत के प्रसार और विकास में सक्रिय भूमिका निभा रही है।
प्रो. शांडिल्य संगीतज्ञ होने के साथ-साथ वे एक समाजसेवी और संवेदनशील गुरु भी हैं। उन्होंने अनेक गरीब और जरूरतमंद विद्यार्थियों को नि:शुल्क शिक्षा और आर्थिक सहयोग प्रदान किया। उनका मानना है कि—
“गुरु केवल ज्ञान देने वाला नहीं होता, बल्कि जीवन सँवारने वाला होता है।” उनका व्यक्तित्व सरल, सहज और सौम्य है। उनके शिष्य और सहकर्मी उन्हें केवल विद्वान ही नहीं, बल्कि एक सच्चे मार्गदर्शक और आदर्श के रूप में देखते हैं।
कुलगीत संस्मरण
हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के कुलगीत को स्मरण करते हुए डॉ. शांडिल्य बताते हैं कि मेरे जीवन का एक अविस्मरणीय क्षण उस समय आया जब हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के उप-कुलपति आचार्य अरुण दिवाकर नाथ वाजपेयी ने मुझे प्रो. बी.के. मिश्रा द्वारा लिखित हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के कुलगीत को स्वरबद्ध करने का अवसर प्रदान किया। यह कार्य मात्र शब्दों का संकलन नहीं था बल्कि मेरे लिए विश्वविद्यालय की आत्मा, उसकी परंपरा और उसके शैक्षिक आदर्शों को एक गीतात्मक रूप देने की साधना थी। मैंने अपने मन में यही भाव रखा कि यह कुलगीत केवल विश्वविद्यालय का औपचारिक गीत न होकर, विद्यार्थियों, शिक्षकों और संपूर्ण शैक्षणिक परिवार को जोड़ने वाला एक आदर्श वाक्य बन सके। यही सोचकर मैंने इसे रचा, और इसकी कुछ पंक्तियाँ आज भी मेरे मन में उसी ताजगी के साथ गूंजती हैं—
“पवित्रित वेदमंत्रों से मनोरम देवभूमि-निलय
विराजे नवल नालन्दा उन्हीं की छाँव में मधुमय हिमाचल विश्वविद्यालय
विविध विद्यावलय, जय जय !!
धरा जो शक्तिपीठों की, धरा शत कोटि तीर्थों की
धरा जो शैल-संस्कृति की, धरा जो नृत्य-गीतों की
जहाँ रावी-विपाशा चंद्रभागा पुण्य सलिलाएं.....
जब यह कुलगीत पहली बार प्रस्तुत किया गया, उस अवसर पर उप-कुलपति प्रो. ए.डी.एन. वाजपेयी की आँखों में संतोष और गर्व की चमक मैंने स्पष्ट देखी। उन्होंने कहा था कि यह गीत वास्तव में विश्वविद्यालय की गरिमा और दृष्टि को मूर्त रूप देता है। उनके शब्द मेरे लिए किसी पुरस्कार से कम नहीं थे।
तत्कालीन राज्यपाल एवं विश्वविद्यालय की कुलाधिपति उर्मिला सिंह ने इस गीत की अत्यधिक सराहना की थी। उन्होंने इसे "हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय की आत्मा का संक्षिप्त और प्रभावशाली रूप" बताया। उनके मुख से यह प्रशंसा सुनना मेरे लिए एक भावुक और गौरवपूर्ण क्षण था। कुलगीत की रचना मेरे जीवन की उन दुर्लभ उपलब्धियों में से है, जिसे मैं न केवल अपने लिए, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक धरोहर मानता हूँ। यह गीत मेरे लिए केवल रचना नहीं बल्कि एक जीवंत अनुभव और भावनात्मक संस्मरण है।
युवाओं को सन्देश
प्रो. रामस्वरूप शांडिल्य के अनुसार एक कुशल संगीतज्ञ के जीवन में ‘संगीत अभ्यास’ का सबसे महत्वपूर्ण और सर्वोच्च स्थान है। नियमित अभ्यास ही संगीतज्ञ को संगीत के वास्तविक ज्ञान से अवगत कराता है। किंतु इसमें सबसे अधिक ध्यान देने योग्य बात है—‘रियाज़’ की सही दिशा। यदि कोई विद्यार्थी दिन-रात रियाज़ करता भी रहे, परन्तु उसका मार्गदर्शन और रियाज़ की दिशा उचित न हो, तो उसकी सारी मेहनत व्यर्थ हो जाती है। कम समय में भी यदि सही दिशा में रियाज़ किया जाए तो उसका अधिक महत्व होता है। इसके लिए एक श्रेष्ठ शिक्षक की नितांत आवश्यकता होती है। शिक्षक को समाज का स्तम्भ माना गया है, क्योंकि एक उत्कृष्ट शिक्षक ही आने वाले विद्यार्थियों का भविष्य उज्ज्वल बना सकता है। शिक्षक समाज का दर्पण होता है और अपने शिष्यों के लिए प्रेरणास्रोत तथा मार्गदर्शक की भूमिका निभाता है। अतः शिक्षक को अत्यंत बड़ी जिम्मेदारी का निर्वहन करना पड़ता है। विद्यार्थियों को सिखाते समय शिक्षक को उनके स्तर को ध्यान में रखकर शिक्षा देनी होती है, क्योंकि सभी विद्यार्थियों की ग्रहण-शक्ति समान नहीं होती। ऐसी परिस्थिति में गुरु को अपनी विशिष्टता को भुलाकर बच्चों के स्तर तक उतरना पड़ता है और उन्हें अपने साथ एक उच्च स्तर तक ले जाने का प्रयास करना चाहिए। संगीत में व्यक्ति के व्यक्तित्व, स्वभाव तथा आचरण का भी गहरा प्रभाव पड़ता है। एक संगीत साधक के लिए धैर्य का होना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि एक अच्छा गायक अथवा वादक बनने के लिए निरंतर अभ्यास अनिवार्य है। इसके साथ ही एक शिष्य को धैर्यवान और गुरु के प्रति निष्ठावान होना चाहिए। यही गुण उसके उज्ज्वल भविष्य की नींव रखते हैं।
मृदुभाषी, सरल, विनम्र और गहन चिंतनशील व्यक्तित्व के धनी डॉ. रामस्वरूप शांडिल्य का संगीत के क्षेत्र में अनुकरणीय योगदान है। वे संगीत को केवल कला नहीं, बल्कि साधना और जीवन-दर्शन मानते हैं। एक शिक्षक के रूप में उन्होंने असंख्य विद्यार्थियों को मार्गदर्शन देकर उनके जीवन को दिशा दी। गुरु-शिष्य परंपरा के प्रति उनकी गहरी आस्था, धैर्य, अनुशासन और समर्पण उन्हें एक आदर्श शिक्षक और संगीत साधक बनाते हैं। उनके व्यक्तित्व में विद्वता के साथ-साथ मानवीय संवेदनाएँ भी गहराई से जुड़ी हुई हैं। निश्चित रूप से आज के युवाओं को उनके संघर्ष और उपलब्धियों से प्रेरणा लेकर जीवन की राह प्रशस्त करनी चाहिए।

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