विलाप करती वादियां - डॉ. राजेश चौहान ( Dr. Rajesh k Chauhan
विलाप करती वादियां
पहाड़ों की गोद में बसी वे सुंदर वादियाँ जिन्हें प्रकृति ने सहेज कर रखा था — हिमालय की छाँव में पनपती वे बस्तियाँ, जहाँ सुबह की पहली किरण देवभूमि को चूमती थी और साँझ होते ही हर पर्वत मनुष्यता के मंत्र बुदबुदाते प्रतीत होते थे। वही भूमि आज आर्तनाद कर रही है। वही पहाड़ आज कराह रहे हैं। हवा अब गुनगुना कर कोई लोकगीत नहीं सुनाती, बल्कि आक्रोश में फुफकारती है। जल की धारा अब जीवन नहीं, विनाश का प्रवाह बन गई है। और धरती की छाती अब सिहर उठती है, जब बादल फटने की आवाज़ गूंजती है। उत्तराखंड तथा हिमाचल प्रदेश की पहाड़ियाँ अभूतपूर्व आपदाओं की चपेट में हैं।
इस वर्ष, जैसे ही मानसून ने उत्तर भारत में दस्तक दी, पहाड़ों ने डर से साँस रोकी। उत्तराखंड और हिमाचल — जो कभी शांति के प्रतीक थे, अब भय और त्रासदी के पर्याय बनते जा रहे हैं। बादल फटने की घटनाएँ, भूस्खलन, नदियों में उफान, पुलों का टूटना, गाँवों का बह जाना, और सड़कों का अस्तित्वहीन हो जाना अब कोई असामान्य बात नहीं रही। यह दुखद नई सामान्यता बन गई है। उत्तराखंड का धराली गाँव हो, हर्षिल,धारचूला घाटी हो, टिहरी की तलहटी हो या फिर यमुनोत्री की घाटियाँ, हर ओर पीड़ा की परछाई फैल चुकी है। दूसरी ओर हिमाचल के कुल्लू, मंडी, शिमला, चंबा जैसे जिले भी प्रकृति की मार से कराह रहे हैं। लोगों के घर उनके सपनों समेत बह गए। जिन पहाड़ों ने कभी मनुष्य को सुरक्षा दी, उन्हीं पहाड़ों ने उन्हें निगल लिया। पेड़, जो कभी देवताओं के प्रतीक माने जाते थे, अब उखड़कर शव की भांति घाटियों में पड़े हैं।
यदि आपदा प्रबंधन विभाग या मौसम विज्ञान केंद्र के आँकड़ों पर नज़र डालें तो हज़ारों मकान जमींदोज़ हुए, सैकड़ों पुल बह गए, अनगिनत सड़कें टूट गईं। लेकिन ये आँकड़े उस माँ की चीख नहीं दर्शा सकते जो अपने बच्चे को मलबे में दबा देख रही है। वे उस किसान की बेबसी नहीं लिख सकते जिसकी फसलें बाढ़ में बह गईं। वे आँकड़े उस शिक्षक की हताशा नहीं दिखा सकते जिसने अपनी स्कूल की इमारत को धरती में समाते देखा। और न ही वे उन यात्रियों की त्रासदी बयान कर सकते हैं जो चारधाम यात्रा पर निकले थे, और अब लापता सूची में शामिल हो गए। आपदा जब दस्तक देती है तो वह सिर्फ इमारतें नहीं गिराती, वह आत्माओं को भी चीरती है। वह स्मृतियों को मसल देती है। इस वर्ष की आपदाएँ आँकड़ों से नहीं, आंसुओं से लिखी जाएँगी।
पहाड़ों में जब बादल फटते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है मानो आसमान रो रहा हो, किसी पुराने पाप के बोझ से या शायद मनुष्य की लिप्सा से त्रस्त होकर। इस वर्ष उत्तराखंड के पिथौरागढ़ और उत्तरकाशी और हिमाचल के मंडी तथा चंबा में बादल फटने की घटनाओं ने समूचे इलाकों को समतल कर दिया। लोगों ने बताया कि कैसे कुछ ही मिनटों में नाले नदियाँ बन गए। कैसे छतों पर सोते परिवार सीधे नालों में बह गए। कैसे भोर की नींद अभी टूटी भी नहीं थी और घर मलबे में बदल चुका था। इन घटनाओं ने न केवल जीवन छीने, बल्कि जीवन की आशा भी।
शांत हिमालय क्षेत्र में जो हो रहा है, वह मात्र वर्षा की अधिकता नहीं है। यह एक सधी हुई तबाही है, जिसमें प्रत्येक घटक — जल, भूमि, वायु एक साथ मानवता के विरुद्ध खड़े हो चुके हैं। जहां पानी की धाराएँ कभी खेतों को जीवन देती थीं, अब वे चट्टानों को तोड़ती हुई घरों को बहा ले जाती हैं। सतलुज, रावी, ब्यास, भागीरथी, मंदाकिनी अब ये नदियाँ क्रोधित नागिनों की तरह फुफकारती हुई घाटियों को निगल रही हैं। हिमाचल की ब्यास नदी का उफान इस वर्ष ऐसा देखा गया कि कुल्लू से लेकर मंडी तक के गाँव रातोंरात गायब हो गए। उत्तराखंड की अलकनंदा का रौद्र रूप देखने के बाद लोग अभी भी कांप रहे हैं।
जैसे ही पर्वतीय क्षेत्रों में भारी वर्षा शुरू हुई, राष्ट्रीय राजमार्गों और राज्य मार्गों पर मलबा, चट्टानें और पानी का कब्जा हो गया। चारधाम यात्रा मार्ग पर यात्री घंटों नहीं, बल्कि दिनों तक फंसे रहे। हिमाचल के कई इलाके हफ्तों तक बाहरी दुनिया से कट गए। सड़कों के टूटने का अर्थ केवल आवागमन का बाधित होना नहीं है — भोजन, दवा, ईंधन, शिक्षा और जीवन के हर साधन से वंचित हो जाना था।
इस त्रासदी के बीच सबसे मार्मिक चित्रण उस सामूहिक पीड़ा का है, जो लोगों के चेहरों पर अंकित हो गई है। जो माँ अपने इकलौते बेटे को बहते हुए देख चुकी है, वह अब किसके लिए जिए? वह किसान जो अपने खेत में शव ढूँढ रहा है। वह अब किसे अन्न देगा? और वह बच्चा जो अब स्कूल की जगह राहत शिविर में है क्या उसका कभी फिर बचपन लौटेगा?
उत्तराखंड और हिमाचल के लोग एक अदृश्य युद्ध लड़ रहे हैं, प्रकृति से नहीं बल्कि अस्तित्व से। हर दिन उनकी परीक्षा है — भोजन की तलाश, पीने के पानी की जद्दोजहद, खोए हुए परिजनों की याद और न खत्म होने वाला इंतज़ार।
सरकारों ने राहत कैंप लगाए, हेलीकॉप्टर भेजे, एनडीआरएफ की टीमें सक्रिय कीं, लेकिन पर्वतीय भूगोल की जटिलताएँ प्रशासन को पंगु बना देती हैं। मशीनें वहाँ नहीं पहुँच पातीं जहाँ ज़रूरत सबसे अधिक है। कभी मौसम बाधा बनता है, तो कभी संसाधनों की कमी। और इन सबके बीच आम आदमी अकेला खड़ा है। एक कोने में इंतजार करता हुआ, किसी चमत्कार का।
प्रश्न यह नहीं कि इतनी आपदाएँ क्यों आ रही हैं और उत्तर सब जानते हैं। अंधाधुंध निर्माण, अवैज्ञानिक सड़क योजनाएँ, सुरंगों की खुदाई, पेड़ों की अंधाधुंध कटाई और पर्वतीय भूगोल की उपेक्षा — यह सब एक साजिश की तरह आपदाओं को न्योता दे रहे हैं। ग्लेशियर पिघल रहे हैं, नदियाँ रूठ रही हैं, और मौसम अपने पुराने स्वभाव को त्याग चुका है। मनुष्य ने हिमालय को देवता नहीं, केवल संसाधन समझा। अब जब वही देवता क्रोधित हैं तो हम उन्हें दोष नहीं दे सकते।
राजनीति इन दिनों मौन है। कभी कोई नेता प्रभावित क्षेत्र का हवाई सर्वेक्षण करता है, तो कभी कोई राहत पैकेज की घोषणा। लेकिन क्या उन घोषणाओं में वह भरोसा है जो मलबे में दबे लोगों को चाहिए? क्या भाषणों से वे घर दोबारा खड़े हो सकते हैं? शायद नहीं। उत्तराखंड और हिमाचल की त्रासदी कोई चुनावी मुद्दा नहीं बनती, क्यूंकि यह ग्रामीण भारत की पीड़ा है जहाँ न तो कैमरे पहुँचते हैं, न वोट बैंक। लेकिन यह पीड़ा देश की आत्मा है, जिसे अनसुना नहीं किया जा सकता।
इन अंधेरे दिनों में भी कहीं-कहीं उम्मीद की रोशनी है। स्थानीय युवाओं की टोली मलबा हटाती है, स्वयंसेवक राहत सामग्री लेकर ऊँचाई तक चढ़ जाते हैं, कुछ शिक्षक बच्चों को टिन की छत के नीचे पढ़ा रहे हैं। महिलाएँ एक-दूसरे के बच्चों को दूध पिला रही हैं और वृद्ध सबकुछ हारकर भी दूसरों को धैर्य बंधा रहे हैं। यह मनुष्यता का शेष बचा हुआ दीपक है जो आँधियों के बीच भी टिमटिमा रहा है।
यह त्रासदी एक संकेत है अंतिम नहीं— कम-से-कम गहन चेतावनी अवश्य है। यदि अब भी हम नहीं जागे तो शायद हिमालय केवल हिम नहीं हाहाकार का प्रतीक बन जाएगा। हमें निर्माण की गति नहीं, उसके विवेक को बढ़ाना होगा। हमें पहाड़ों से लड़ना नहीं, उनके साथ जीना सीखना होगा।
हिमालय अब मौन है लेकिन उसका मौन ही उसका सबसे बड़ा विलाप है। उत्तराखंड और हिमाचल की घाटियाँ अब भी सुंदर हैं — पर अब वहाँ सौंदर्य के साथ एक करुणा, एक डर, और एक अपूरणीय क्षति की छाया भी है। यह छाया तब तक बनी रहेगी जब तक हम केवल विकास नहीं, संतुलन को भी लक्ष्य नहीं बनाते। आपदाएँ एक लेख नहीं, एक प्रार्थना हैं कि मनुष्य फिर से प्रकृति को पूजे, उससे लड़े नहीं। विकास का अर्थ केवल पुल और सड़कें न हों बल्कि पहाड़ों की साँसों को बचाना भी हो। नदियों को फिर से 'जीवनदायिनी' कहा जा सके और बच्चे फिर से नदी के किनारे खेलते हुए गा सकें — "चलो पहाड़ों की ओर, जहाँ जीवन मुस्कुराता है — न कि जहाँ वह चीखता है।"

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