आख़िर विकास किस कीमत पर? - डॉ. राजेश चौहान ( Dr. Rajesh K Chauhan )

 आख़िर विकास किस कीमत पर?

हिमाचल प्रदेश अपनी प्राकृतिक सुंदरता, बर्फ से ढके ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों, कल-कल बहती नदियों और हरे-भरे बाग-बगीचों के कारण सदैव लोगों को आकर्षित करता रहा है। इस प्रदेश की पहचान इसकी शांति, सादगी और प्रकृति से गहरे जुड़े जीवन में रही है। सदियों से यहाँ का समाज पर्वतीय जीवनशैली और पर्यावरण के संतुलन के साथ जीता आया है। लेकिन पिछले कुछ दशकों में जब विकास की तेज़ लहर इस राज्य में पहुँची, तो उसने यहाँ की नाज़ुक पारिस्थितिकी और परंपरागत जीवन के ताने-बाने को गहराई से प्रभावित करना शुरू कर दिया।

सड़कों का विस्तार, बाँधों और हाइड्रो प्रोजेक्टों का निर्माण, पर्यटन को बढ़ाने की होड़ और अनियंत्रित निर्माण ने हिमाचल के नाजुक पर्यावरण पर गहरा दबाव डाला है। नतीजा यह हुआ कि अब यहाँ विकास के साथ-साथ आपदा का सिलसिला भी तेज़ी से बढ़ता जा रहा है। जहाँ कभी लोग पहाड़ों की सुंदरता देखने आते थे, वहीं अब खबरों में अक्सर भूस्खलन, क्लाउडबर्स्ट, फ्लैश फ्लड और सड़कों के टूटने जैसी घटनाएँ सुर्खियाँ बनती हैं।

पिछले कुछ वर्षों के आँकड़े गवाही देते हैं कि आपदाएँ अब अपवाद नहीं रहीं बल्कि एक खतरनाक सामान्य स्थिति का रूप ले चुकी हैं। शिमला, मंडी, कुल्लू और किन्नौर जैसे जिलों में बार-बार भारी तबाही देखने को मिल रही है। वर्षा के मौसम में नदियों का उफान, पहाड़ियों का धसकना और राजमार्गों का बह जाना अब साधारण दृश्य बन गया है। सैकड़ों मकान मलबे में तब्दील हो जाते हैं, वाहनों के साथ यात्रियों की जानें जाती हैं, और परिवार अपनों को खोकर जीवनभर का दर्द झेलते हैं। इन आपदाओं का असर केवल इंसानों तक सीमित नहीं है, यह पशुधन, खेतों, बागानों और जंगलों को भी गंभीर रूप से प्रभावित करता है।

इस त्रासदी के लिए केवल प्रकृति को दोषी ठहराना उचित नहीं है। सच तो यह है कि हमारी विकास-नीतियाँ और लालच ने इन आपदाओं को और भयावह बना दिया है। बड़े-बड़े हाइड्रोइलेक्टिक प्रोजेक्ट नदियों की धारा मोड़कर घाटियों का संतुलन बिगाड़ रहे हैं और भूगर्भीय स्थिरता को खतरे में डाल रहे हैं। पहाड़ों को काटकर सड़कों का विस्तार और सुरंगों का निर्माण बिना ठोस भू-वैज्ञानिक अध्ययन के किया जा रहा है। ढलानों पर बहुमंज़िला इमारतें खड़ी की जा रही हैं, जिनका बोझ ये नाजुक पहाड़ सह ही नहीं सकते। नदियों के किनारे अव्यवस्थित निर्माण बाढ़ के खतरे को कई गुना बढ़ा देता है। यही कारण है कि जब असामान्य वर्षा होती है या ग्लेशियर तेज़ी से पिघलते हैं, तो प्रकृति अपना संतुलन खोकर विनाशकारी रूप धारण कर लेती है।

सबसे अधिक पीड़ादायक यह है कि इन आपदाओं का बोझ सबसे ज़्यादा गरीब और साधारण परिवारों पर पड़ता है। वे लोग जिनकी पूरी आजीविका थोड़ी-सी ज़मीन, एक घर और छोटे से बाग-बगीचे पर टिकी होती है, हर बार सबकुछ खोकर शून्य पर आ जाते हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सेवाएँ ठप हो जाती हैं, रोजगार के अवसर समाप्त हो जाते हैं और लोग विस्थापन की पीड़ा झेलने को मजबूर होते हैं। पर्यटन, जो हिमाचल की अर्थव्यवस्था का अहम आधार है, बार-बार इन आपदाओं से प्रभावित होता है। होटल और ट्रांसपोर्ट उद्योग को भारी नुकसान उठाना पड़ता है और हज़ारों लोगों की जीविका छिन जाती है। वहीं, सेब और अन्य फल बागवानी, जिस पर प्रदेश की अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा आधारित है, बदलते मौसम और आपदाओं से गंभीर संकट का सामना कर रही है।


इस परिस्थिति में यह प्रश्न बार-बार उठता है कि क्या विकास का अर्थ केवल सड़कें, होटल, बाँध और बिजली परियोजनाएँ हैं? क्या विकास का मूल्यांकन केवल आर्थिक लाभ और पर्यटन की बढ़ोत्तरी से किया जाना चाहिए या फिर उसे इस आधार पर परखा जाना चाहिए कि वह स्थानीय लोगों को कितना सुरक्षित और सम्मानजनक जीवन दे पा रहा है? विकास तब ही सार्थक है जब वह समाज को सशक्त करे, पर्यावरण की रक्षा करे और आने वाली पीढ़ियों को स्थिर व सुरक्षित भविष्य सौंपे। यदि हर साल दर्जनों ज़िंदगियाँ आपदा की भेंट चढ़ें, हज़ारों परिवार विस्थापित हों और प्रकृति अपनी विनाशकारी शक्ति से हमें चेतावनी देती रहे, तो यह विकास कितना मानवीय और टिकाऊ है?

हिमाचल को अब एक नए विकास मॉडल की आवश्यकता है। ऐसा मॉडल, जो केवल आर्थिक लाभ पर आधारित न हो बल्कि पर्यावरणीय सुरक्षा और सामाजिक न्याय को केंद्र में रखकर बनाया जाए। संवेदनशील इलाकों में निर्माण पर सख़्त नियंत्रण, परियोजनाओं का वैज्ञानिक मूल्यांकन, नदियों और ढलानों पर ‘नो कंस्ट्रक्शन ज़ोन’ लागू करना, जंगलों और जलस्रोतों का संरक्षण और आपदा-पूर्व चेतावनी प्रणाली को मज़बूत करना अनिवार्य है। साथ ही स्थानीय समुदायों की भागीदारी को बढ़ावा देना होगा, क्योंकि पर्वतीय जीवन का वास्तविक अनुभव और ज्ञान उन्हीं के पास है।

विकास का वास्तविक अर्थ यही होना चाहिए कि पहाड़ सुरक्षित रहें, नदियाँ स्वच्छ और प्रवाहमान रहें, जंगल जीवित रहें और लोग भयमुक्त जीवन जी सकें। आर्थिक प्रगति तभी टिकाऊ है जब वह प्रकृति और समाज दोनों के साथ न्याय करे। अन्यथा हर वर्ष आपदा के मलबे से उठते हुए हमें यही सवाल पूछना पड़ेगा—“आख़िर विकास किस कीमत पर?”


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