हिमाचल के महान संगीतज्ञ पद्मश्री पंडित सोमदत्त बट्टू : डॉ राजेश चौहान
पंडित सोमदत्त बट्टू
भारतीय संगीत की परंपरा केवल रागों, स्वरों या तालों की सीमित परिधि नहीं है, यह आत्मा का वह अनंत संवाद है जो मनुष्य को उसके ईश्वर से जोड़ता है। इस दिव्य परंपरा में अनेक ऐसे साधक हुए जिन्होंने संगीत को केवल पेशा नहीं बल्कि साधना माना। हिमाचल प्रदेश की सुरम्य घाटियों से लेकर अंतर्राष्ट्रीय मंचों तक, भारतीय शास्त्रीय संगीत को अपने अद्वितीय स्वर से गौरवान्वित करने वाले ऐसे ही एक महान गायक, आचार्य और साधक हैं — पंडित सोमदत्त बट्टू। उनका जीवन एक जीवंत उदाहरण है कि किस प्रकार समर्पण, अनुशासन और साधना से कोई व्यक्ति केवल कलाकार नहीं बल्कि एक संस्था बन जाता है।
पंडित सोमदत्त बट्टू का जन्म 5 जुलाई 1937 (आधिकारिक जन्मतिथि : 11 अप्रैल 1938) को हिमाचल प्रदेश के ज़िला कांगड़ा की तहसील नूरपुर के जसूर नामक गाँव में हुआ। यह वही क्षेत्र है जहाँ की मिट्टी में कला और संस्कृति की खुशबू गहराई तक बसी है। उनके पूज्य पिता श्री रामलाल बट्टू स्वयं एक उत्कृष्ट संगीतज्ञ थे और माता श्रीमती चानन देवी धार्मिक एवं संस्कारवान गृहिणी थीं। परिवार में संगीत का वातावरण जन्म से ही था। घर में जब भी सुर उठते, तो नन्हे सोमदत्त के हृदय में वह किसी दिव्य आह्वान की तरह उतर जाते। यही कारण था कि बाल्यावस्था से ही उनमें संगीत के प्रति गहरी अभिरुचि विकसित हो गई। बट्टू परिवार की संगीत-परंपरा श्याम चौरासी घराने से जुड़ी थी। उनके पिता श्री रामलाल बट्टू ने अपनी संगीत शिक्षा श्याम चौरासी घराने के उस्ताद इनायत खाँ साहब से प्राप्त की थी, जो प्रसिद्ध गायक जोड़ी नज़ाकत अली – सलामत अली के पूर्वज थे। इस प्रकार संगीत की नींव सोमदत्त जी को अपने ही घर से मिली और वही उनका पहला विद्यालय बना।
बाल्यकाल में ही उनके पिता ने उन्हें संगीत की औपचारिक शिक्षा देना प्रारंभ किया। पाँच वर्ष की आयु से उन्होंने स्वर-साधना आरंभ कर दी थी। रियाज़ के समय घर के वातावरण में घुली हुई रागों की मिठास उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गई। पारिवारिक परंपरा के बाद उनके संगीत शिक्षण का दूसरा चरण आरंभ हुआ जब उन्होंने प्रसिद्ध संगीताचार्य पंडित कुंजलाल शर्मा (नकोदर, पंजाब) से गायन की शिक्षा प्राप्त की। पंडित कुंजलाल शर्मा ग्वालियर घराने के महान आचार्य पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के शिष्य थे। अतः सोमदत्त जी को इस घराने की परिपक्वता, विस्तार और शुद्धता का गहन संस्कार मिला।
इसके पश्चात उन्होंने पटियाला घराने के प्रख्यात कलाकार पंडित कुंदन लाल शर्मा से शिक्षा ग्रहण की। पंडित कुंदन लाल शर्मा ने स्वयं शिक्षा पटियाला के महान गायक उस्ताद आशिक अली खाँ से प्राप्त की थी, जो प्रसिद्ध “तान कप्तान” उस्ताद फतेह अली खाँ के सुपुत्र थे। इस प्रकार पंडित सोमदत्त बट्टू, पटियाला घराने की गायकी के सीधे उत्तराधिकारी बने।
दिल्ली में रहते हुए उनकी भेंट इन्दौर घराने के महान गायक उस्ताद अमीर खाँ साहब से हुई। अमीर खाँ साहब की गहन, ध्यानपूर्ण गायकी ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि उन्होंने उनसे भी तालीम लेनी शुरू कर दी। इस प्रकार पंडित सोमदत्त बट्टू ने ग्वालियर, पटियाला, पंजाब और इन्दौर — चारों घरानों से शिक्षा प्राप्त कर एक ऐसी गायकी विकसित की जिसमें परंपरा, अनुशासन और नवाचार का अद्भुत संगम दिखाई देता है।
पंडित बट्टू का संगीत केवल स्वर-साधना नहीं था — वह जीवन-साधना थी। उनके मामा जी की नियुक्ति शिमला वेस्टर्न कमांड में हुई थी। उनके आग्रह पर ही सोमदत्त जी ने अपनी जन्मभूमि लौटने और संगीत का प्रचार-प्रसार करने का निश्चय किया। इस प्रकार सन् 1955 में वे पहली बार शिमला आए और यहीं से हिमाचल प्रदेश में शास्त्रीय संगीत के प्रचार की यात्रा प्रारंभ हुई।
शिमला आने पर उनका पहला सार्वजनिक कार्यक्रम गेयटी थियेटर में हुआ। उस समय (1955-56) हिमाचल में शास्त्रीय संगीत के प्रति लोगों का झुकाव बहुत सीमित था। परंतु उनके गायन की मधुरता और गहराई ने श्रोताओं के हृदय को तुरंत स्पर्श किया। इसी बीच 9 जून 1955 को शिमला में आकाशवाणी केंद्र खुला, जहाँ से उनकी ग़ज़लें और शास्त्रीय प्रस्तुतियाँ नियमित रूप से प्रसारित होने लगीं। यह हिमाचल प्रदेश में शास्त्रीय संगीत के नये युग का प्रारंभ था।
शिमला में संगीत प्रचार के साथ-साथ उन्होंने अपने करियर की औपचारिक शुरुआत की। सन् 1958 में उन्होंने भारत सरकार मुद्रणालय, शिमला में कार्य प्रारंभ किया, परंतु शीघ्र ही उनकी रुचि शिक्षण की ओर बढ़ी और वे ललित कला महाविद्यालय, शिमला में संगीत शिक्षक नियुक्त हुए। बाद में 1988 में उन्हें राजकीय महाविद्यालय कोटशेरा, चौड़ा मैदान में स्थानांतरित किया गया। इसके अतिरिक्त उन्होंने राजकीय महाविद्यालय संजौली में भी प्राध्यापक के रूप में कार्य किया।
लगभग 40 वर्षों तक उन्होंने शिमला के विभिन्न महाविद्यालयों में संगीत का प्राध्यापन किया। उनका शिक्षण केवल नोटेशन या रागों की व्याख्या तक सीमित नहीं था, वे अपने छात्रों को संगीत के आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और नैतिक पहलुओं से भी परिचित कराते थे। उनके शिष्य आज देशभर के विश्वविद्यालयों, कॉलेजों और सांस्कृतिक संस्थानों में प्रतिष्ठित पदों पर कार्यरत हैं।
पंडित सोमदत्त बट्टू का विवाह 17 फरवरी 1961 को शीला बट्टू से हुआ। विवाह के पश्चात भी उनकी संगीत साधना में कोई बाधा नहीं आई बल्कि उनकी धर्मपत्नी ने सदैव प्रेरणा और सहयोग का कार्य किया। शीला बट्टू स्वयं भी संगीत में गहरी रुचि रखती हैं, अतः इस दंपत्ति का जीवन संगीत-साधना का प्रतीक बन गया। उनके तीन पुत्र और एक पुत्री हैं जो अपने-अपने कार्य क्षेत्रों में सफल हैं।
पंडित सोमदत्त बट्टू की गायकी में स्वर की शुद्धता, भाव की गहनता और आलाप की गांभीर्यता तीनों का अद्भुत संतुलन है। उनकी प्रस्तुति में पटियाला घराने की रचनात्मकता, ग्वालियर घराने की दृढ़ता, और इन्दौर घराने की आत्मिक गंभीरता स्पष्ट झलकती है। वे कहते हैं — “संगीत केवल मनोरंजन नहीं, यह आत्मा की भाषा है। जब स्वर मन से निकले तो वह साधना बन जाता है।”
उनकी बंदिशों में लयकारी की सूक्ष्मता, तानों की तीव्रता, और भावाभिव्यक्ति का विस्तार—तीनों ही एक साथ विद्यमान रहते हैं। यही कारण है कि उनके गायन को सुनना केवल ‘श्रवण’ नहीं बल्कि एक अनुभव होता है।
भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद् (आईसीसीआर) के तत्वावधान में पंडित बट्टू ने अनेक देशों की यात्राएँ कीं — केन्या, नाइजीरिया, यूनाइटेड किंगडम, संयुक्त राज्य अमेरिका, त्रिनिदाद, टोबैगो और पाकिस्तान में उन्होंने भारतीय संगीत की गरिमा को मंच पर प्रस्तुत किया। उनकी प्रस्तुतियाँ केवल प्रदर्शन नहीं अपितु भारत की सांस्कृतिक आत्मा का संप्रेषण थीं। उन्होंने पाकिस्तान में आयोजित सार्क सम्मेलन में सुप्रसिद्ध गायिका आबिदा परवीन के साथ मंच साझा किया — जो अपने आप में एक ऐतिहासिक क्षण था।
भारत में भी उन्होंने हरि बल्लभ संगीत सम्मेलन (जालंधर), स्वामी हरिदास संगीत सम्मेलन (मुंबई), साहित्य कला परिषद् (दिल्ली), पंजाब कला भवन (चंडीगढ़), संगीत नाटक अकादमी, और अनेक राज्य स्तरीय सांस्कृतिक मंचों पर अपनी प्रस्तुतियाँ दीं। 1958 में उन्होंने अपने संगीत से भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को मंत्रमुग्ध किया। 22 नवम्बर 1962 को उन्होंने पंडित जवाहरलाल नेहरू के समक्ष प्रस्तुति दी। इसके अतिरिक्त वे श्रीमती इंदिरा गांधी, डॉ. संजीव रेड्डी, ज्ञानी जैल सिंह तथा श्री राजीव गांधी जैसे राष्ट्रनेताओं के समक्ष भी अपनी कला का प्रदर्शन कर चुके हैं। यह उपलब्धि दर्शाती है कि पंडित सोमदत्त बट्टू न केवल हिमाचल के बल्कि सम्पूर्ण भारत के सांगीतिक दूत हैं।
उनकी ख्याति ऐसी थी कि फिल्म-जगत की अनेक नामी हस्तियों ने उन्हें मुंबई आने और फिल्म संगीत में कार्य करने का प्रस्ताव दिया। परंतु पंडित बट्टू ने इन सब प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया। वे मानते थे — “जहाँ मेरी जन्मभूमि है, वहीं संगीत का प्रसार करूँगा। मेरा नाम भले छोटा रहे, पर मेरा संगीत हिमाचल की मिट्टी से जुड़ा रहे।” उनके इस निर्णय ने उन्हें लोकल से ग्लोबल स्तर तक सम्मान दिलाया — क्योंकि उन्होंने नाम से अधिक मूल्य को प्राथमिकता दी।
पंडित सोमदत्त बट्टू केवल कलाकार नहीं बल्कि एक गहन संगीत-विद् और लेखक भी हैं। उनके लेख भारतीय संगीत की तकनीकी और दार्शनिक गहराई को उद्घाटित करते हैं। भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला ने उनकी विद्वत्तापूर्ण सामग्री को अपने प्रतिष्ठित संकलन “Man and Music in India” में शामिल किया है — जो उनकी वैचारिक ऊँचाई का प्रमाण है। उन्होंने संगीत के आधुनिक रुझानों, परंपरा और नवाचार के संतुलन, तथा भारतीयता के सांगीतिक स्वरूप पर गहन शोध प्रस्तुत किया है। उनके लेखों और वक्तव्यों में हमेशा यह भाव प्रमुख रहा कि — “संगीत किसी धर्म, भाषा या जाति का नहीं — यह मानवता की आत्मा है।”
संगीत के क्षेत्र में उनके अमूल्य योगदान को अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों द्वारा मान्यता मिली है, जिनमें प्रमुख हैं —
पद्मश्री (2024) — भारत सरकार द्वारा प्रदत्त चौथा सर्वोच्च नागरिक सम्मान।
संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (2022) — भारतीय शास्त्रीय संगीत में आजीवन योगदान के लिए।
हिमाचल गौरव पुरस्कार (2016) — हिमाचल सरकार द्वारा राज्य की सांस्कृतिक उन्नति हेतु।
पंजाब संगीत रत्न पुरस्कार (2015) — पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला द्वारा।
आकाशवाणी संगीत सम्मेलन पुरस्कार (2014)
परम सभ्याचार सम्मान एवं लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड (2012) — पंजाबी अकादमी, दिल्ली द्वारा।
भाई मरदाना संगीत सम्मेलन पुरस्कार — पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला द्वारा।
सप्तक सम्मान — भाषा एवं संस्कृति विभाग, हिमाचल प्रदेश द्वारा।
सरदार सोहन सिंह सम्मान — पंजाबी विश्वविद्यालय द्वारा।
ये सभी पुरस्कार केवल उनके गायन की श्रेष्ठता का नहीं, बल्कि उनके व्यक्तित्व की पवित्रता और समर्पण का भी प्रतीक हैं।
एक सच्चा कलाकार तभी पूर्ण होता है जब वह गुरु भी बनता है। पंडित सोमदत्त बट्टू के असंख्य शिष्य आज देश-विदेश के संगीत संस्थानों में कार्यरत हैं। वे न केवल गायन की तकनीक बल्कि संगीत के पीछे की भावना और अनुशासन भी सिखाते हैं। उनका मानना है —“गुरु का कार्य केवल स्वर सिखाना नहीं, बल्कि शिष्य के भीतर संगीत का संस्कार जगाना है।” वे अपने विद्यार्थियों से कहा करते हैं —“राग की तालीम तभी सार्थक है जब तुम स्वर में विनम्रता और जीवन में मर्यादा रखो। ”उनके शिष्यों की यह विशेषता रही कि उन्होंने केवल राग नहीं सीखें बल्कि संस्कार भी सीखें।
पंडित बट्टू का संगीत दर्शन अत्यंत गहरा और आध्यात्मिक है। उनके अनुसार — “संगीत ईश्वर से संवाद का माध्यम है। यह आत्मा का साधन है, मनुष्य को विनम्र बनाता है और समाज को जोड़ता है। ”वे मानते हैं कि संगीत का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि मानवता का परिष्कार है। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि संगीत में साधना, अनुशासन और विनम्रता का समन्वय ही कलाकार को महान बनाता है।
वर्तमान में पंडित सोमदत्त बट्टू गाँव होरी, पी.ओ.ब्योलिआ (कसुम्पटी) शिमला में रहते हैं। अपनी उन्नत आयु के बावजूद वे संगीत से निरंतर जुड़े हुए हैं। समय-समय पर आकाशवाणी, दूरदर्शन और सांस्कृतिक आयोजनों में भाग लेते रहते हैं। उनका घर आज भी संगीत-रसिकों और शिष्यों के लिए प्रेरणा का तीर्थ है। वह अपनी मधुर मुस्कान, सहज व्यवहार और गहन विद्वत्ता से हर मिलने वाले के मन में श्रद्धा उत्पन्न करते हैं।
पंडित सोमदत्त बट्टू का जीवन हिमाचल प्रदेश की सांगीतिक आत्मा का जीवंत प्रतीक है। उन्होंने न केवल संगीत को साधा, बल्कि उसे जीया। उनकी गायकी में हिमाचल की मिट्टी की सादगी, भारतीय परंपरा की गहराई और आत्मा की मधुरता का अनुपम संगम है। वे एक ऐसे साधक हैं जिन्होंने अपनी जन्मभूमि को त्यागे बिना ही विश्व के कोनों में भारतीय संगीत का परचम फहराया। उनका जीवन संदेश देता है —
“संगीत केवल स्वर नहीं, वह जीवन का सत्य है; और जो उसे साध लेता है, वह स्वयं एक राग बन जाता है। ”पंडित सोमदत्त बट्टू आज भी भारतीय शास्त्रीय संगीत के उन स्वर्णिम स्तंभों में गिने जाते हैं जिनकी साधना, विद्वत्ता और विनम्रता आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी रहेगी। उनके स्वर हिमाचल की वादियों से उठकर जब समूचे विश्व में गूंजते हैं, तो लगता है — जैसे देवभूमि के देवदार भी सुर में झूम उठे हों।
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