वृद्धों के सम्मान से ही समाज की पहचान : डॉ. राजेश चौहान ( Dr. Rajesh K Chauhan )

 

 वृद्धों के सम्मान से ही समाज की पहचान 

समय का पहिया निरंतर गति में है। पीढ़ियाँ बदलती हैं, जीवन की गति बदलती है, सोच और प्राथमिकताएँ भी रूपांतरित होती जाती हैं। परंतु इन सबके बीच जो नहीं बदलना चाहिए, वह है — संबंधों का मर्म, सम्मान की अनुभूति और मानवीय संवेदना की गहराई। दुर्भाग्यवश आधुनिक समाज में यही सूत्र धीरे-धीरे कमजोर होता जा रहा है।
आज के युग में एक अदृश्य दीवार बुजुर्गों और युवाओं के बीच खड़ी होती जा रही है जिसे हम “जनरेशन गैप” कहते हैं। यह केवल विचारों का नहीं बल्कि अनुभव और अपेक्षाओं का अंतराल भी है।


पहले परिवार संयुक्त होते थे — एक ही छत के नीचे तीन-तीन पीढ़ियाँ। दादा-दादी, माता-पिता, बच्चे, सबके अपने-अपने दायित्व, परंतु आपसी निर्भरता की एक मिठास थी।
दादी की कहानियाँ बच्चों के लिए शिक्षा का माध्यम थीं और पिता के अनुभव बेटे के लिए मार्गदर्शन।
लेकिन आज जब जीवन की गति मशीनों के समान तेज़ हो चुकी है, जब रिश्तों की भाषा “ऑनलाइन कॉल” और “इमोजी” तक सीमित हो गई है तब यह आत्मीयता जैसे पीछे छूटती जा रही है। शहरों की दौड़, रोज़गार की अनिवार्यता और व्यक्तिगत आकांक्षाओं ने पारिवारिक समीकरणों को गहराई से प्रभावित किया है।
रिटायरमेंट के बाद कोई पिता या माँ अपने पैतृक घर में रह जाते हैं — अपने खेत, आँगन, और स्मृतियों के साथ।
वहीं उनका बेटा या बेटी किसी महानगर या विदेश में अपनी आजीविका की डगर तलाश रहा होता है।
यह दोनों ही स्थितियाँ वास्तविक हैं, दोनों ही आवश्यक हैं, लेकिन इनके बीच जो भावनात्मक दूरी बनती है वही समाज के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनती जा रही है।


सेवानिवृत्ति के बाद व्यक्ति का जीवन जैसे एक नया मोड़ लेता है।
जो कभी परिवार की रीढ़ था, वही धीरे-धीरे “बुजुर्ग” कहलाने लगता है।
सुबह की चाय अब साथी की जगह अकेलेपन के साथ पी जाती है।
आँगन में बच्चों की किलकारियाँ नहीं सुनाई देतीं केवल पुरानी यादों की गूंज रह जाती है। गांवों में आज अनेक ऐसे बुजुर्ग हैं जिनके बच्चे दिल्ली, मुंबई या विदेशों में बस गए हैं।
वे फोन करते हैं, पैसे भेजते हैं, पर वह आत्मीयता, वह स्पर्श, वह साथ — अब केवल यादों में रह गया है।
कुछ बुजुर्ग इसे परिस्थिति की मजबूरी मानकर स्वीकार कर लेते हैं, परंतु कुछ के लिए यह भावनात्मक निर्वासन बन जाता है। घर बड़े हो गए हैं लेकिन रहने वाले कम।
लोग पास हैं, लेकिन संबंध दूर चले गए हैं।
रिश्तों के बिखराव में सोशल मीडिया आग में घी का काम कर रहा है। यह दूरी केवल भौगोलिक नहीं, मानसिक और भावनात्मक दूरी भी है, जो समय के साथ बढ़ती जाती है।




हमारे समाज में यह परंपरा रही है कि माता-पिता अपने जीवन की कमाई, घर और ज़मीन-जायदाद बच्चों के नाम कर देते हैं।
वे यह सोचते हैं कि अब बेटे की जिम्मेदारी है — वह उनके बुढ़ापे का सहारा बनेगा।
परंतु हर कहानी का अंत सुखद नहीं होता।
कई बार जब माता-पिता संपत्ति अपने बच्चों के नाम कर देते हैं तब कुछ बेटे-बेटियाँ अपने माता-पिता को बोझ मानने लगते हैं।
जो माँ-बाप जीवनभर उनके लिए संघर्ष करते रहे वही अब उन्हें अपने ही घर में पराया महसूस कराते हैं। कई जगहों पर देखा गया है कि वृद्ध माता-पिता को घर के एक कोने में सीमित कर दिया जाता है।
उनसे बात तक करना बच्चों को “अनावश्यक समय की बर्बादी” लगने लगता है।
वे डॉक्टर के पास जाने की बात करें, तो जवाब मिलता है — “समय नहीं है।”
अगर कभी अपनी पुरानी यादें बाँटना चाहें, तो कहा जाता है — “अब ये बातें पुरानी हो चुकी हैं, पापा!”

यह केवल परिवारों की विफलता नहीं बल्कि हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने की कमजोरी है।
जहाँ “संस्कार” केवल शब्द बनकर रह गए हैं और “कर्तव्य” किसी को याद नहीं।


फिर भी यह कहना भी उचित नहीं कि सारी गलती नई पीढ़ी की है।
आधुनिक समय का दबाव, प्रतिस्पर्धा, नौकरी की अनिश्चितता और आर्थिक संघर्ष — सबने मिलकर आज के युवाओं को सीमाओं में बाँध दिया है।
जो बेटा या बेटी विदेश में है, वे अपने माता-पिता से प्रेम करते हैं, पर हर बार मिलने आ पाना संभव नहीं होता।
कभी-कभी नौकरी का दबाव इतना अधिक होता है कि फुर्सत के कुछ क्षण निकालना भी कठिन हो जाता है। उनकी विवशता भी वास्तविक है।
पर समस्या तब उत्पन्न होती है, जब यह विवशता संवेदना-विहीनता में बदल जाती है।
जब बेटा केवल पैसे भेजकर अपने दायित्व की पूर्ति समझ लेता है और माता-पिता केवल कॉल का इंतज़ार करते रह जाते हैं।
यह भावनात्मक संबंधों की विफलता है, जो धीरे-धीरे पूरे समाज को आत्महीन बना देती है।


अब प्रश्न यह है — क्या इस बढ़ती दूरी को कम किया जा सकता है?
उत्तर है — हाँ, यदि दोनों पीढ़ियाँ एक-दूसरे को समझने का प्रयास करें।

बुजुर्गों को यह स्वीकार करना होगा कि समय बदल गया है।
आज की पीढ़ी के पास अपने संघर्ष हैं, उनकी चुनौतियाँ अलग हैं।
वे केवल अपनी महत्वाकांक्षाओं में नहीं डूबे हैं — वे अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहे हैं।
यदि उन्हें सहयोग, विश्वास और भावनात्मक सहारा मिले, तो वे स्वयं अपने माता-पिता के प्रति और अधिक संवेदनशील होंगे।

दूसरी ओर, युवाओं को यह समझना होगा कि माता-पिता केवल पालनकर्ता नहीं बल्कि उनके अस्तित्व की जड़ हैं।
जब तक वे जीवित हैं, तब तक उनका आशीर्वाद सबसे बड़ी संपत्ति है।
उनकी उपेक्षा करना, उनके अकेलेपन को न समझना — यह केवल नैतिक भूल नहीं अपितु मानवीय असंवेदनशीलता है।


दोनों पीढ़ियों के बीच संवाद ही वह पुल है जो इस दूरी को कम कर सकता है।
हर सप्ताह कुछ मिनट फोन पर बात करना, वीडियो कॉल करना, त्योहारों पर घर जाना — यह बहुत बड़ा निवेश नहीं परंतु अमूल्य भावनात्मक पूंजी है।
यदि युवा अपने माता-पिता के साथ समय नहीं बाँटेंगे तो उनकी आने वाली पीढ़ियाँ भी यही सीखेंगी।
और तब यह समाज पूरी तरह भावशून्य हो जाएगा।


सिर्फ परिवार ही नहीं, समाज और सरकार की भी जिम्मेदारी बनती है कि वे बुजुर्गों के सम्मान और सुरक्षा के लिए ठोस कदम उठाएँ।
वरिष्ठ नागरिक कल्याण केंद्र, डे-केयर होम्स, एकल वृद्धावस्था पेंशन योजनाएँ, और काउंसलिंग सेवाएँ — इन सबको और सशक्त बनाया जाना चाहिए।
गांवों में पंचायत स्तर पर “बुजुर्ग मित्र समिति” जैसी पहलें भी कारगर सिद्ध हो सकती हैं जहाँ स्थानीय लोग बुजुर्गों की जरूरतों का ध्यान रखें। साथ ही, विद्यालयों और कॉलेजों में “संवेदना शिक्षा” के तहत ऐसे कार्यक्रम शामिल किए जाने चाहिए जो युवाओं को अपने बुजुर्गों के प्रति कृतज्ञता और आदर का बोध कराएँ क्योंकि सम्मान की शिक्षा किताबों से नहीं, अनुभव और संस्कारों से मिलती है।


बुजुर्गों को भी अपने जीवन को निराशा के घेरे में बंद नहीं करना चाहिए।
जीवन का हर चरण अर्थपूर्ण है।
रिटायरमेंट का अर्थ “समाप्ति” नहीं बल्कि “नई भूमिका की शुरुआत” है।
वे अपने अनुभव, कला, ज्ञान और मूल्यों को समाज और नई पीढ़ी के साथ बाँट सकते हैं।
यदि वे स्वयं को सक्रिय, आत्मनिर्भर और सकारात्मक बनाए रखें, तो समाज उन्हें बोझ नहीं, प्रेरणा के रूप में देखेगा।


यह संघर्ष किसी एक पक्ष का नहीं, पूरे समाज का दर्पण है जिसमें हम सब प्रतिबिंबित होते हैं।
यदि आज हम अपने माता-पिता की उपेक्षा करेंगे, तो कल हमारे बच्चे भी वही दृष्टांत अपनाएँगे।
पीढ़ियों के बीच यह दूरी तभी मिट सकती है जब हम समझें कि संबंध समय से नहीं, भावनाओं से जीवित रहते हैं। हमें एक ऐसा समाज बनाना होगा जहाँ बुजुर्गों को आदर, सुरक्षा और अपनापन मिले, और युवाओं को अपने संघर्षों में परिवार का नैतिक सहारा।
जहाँ संवाद, सम्मान और संवेदना — तीनों मिलकर एक नई सांस्कृतिक एकता रचें। क्योंकि जब तक घरों में बुजुर्गों की हँसी और अनुभव की गूँज है, तब तक समाज जीवित है और जब वे मौन हो जाएँ — तब सभ्यता केवल प्रगति नहीं, अपनी आत्मा भी खो देती है।


डॉ. राजेश चौहान

शिक्षाविद् एवं साहित्यकार

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