संगीत चिकित्सा से रोगोपचार - डॉ. राजेश चौहान शिक्षाविद एवं साहित्यकार
संगीत चिकित्सा से रोगोपचार
डॉ. राजेश चौहान
शिक्षाविद एवं साहित्यकार
जब सुबह की पहली किरण धरती को छूती है और हवा में पक्षियों की मधुर चहचहाहट घुल जाती है, तब संसार में एक अदृश्य और निरंतर धुन उठती है—कोमल, सहज और अविच्छिन्न। प्रसन्नता हो या विषाद, शिशु का हल्का रोना हो या वृद्ध का नादान हँसना, हर ध्वनि कुछ कहती है। वेदों की पंक्ति ‘नादो वै ब्रह्म’ इस सत्य की ओर इशारा करती है कि सम्पूर्ण सृष्टि ध्वनि के अनन्त रूपों का प्रतिबिम्ब है। यही नाद जब संख्या, स्वर और लय में ढलता है, तब उसे हम संगीत कहते हैं। संगीत केवल शोभा और सौन्दर्य का साधन नहीं है, यह उपचार है, साधना है और जीवन-ऊर्जा भी है। विज्ञान ने भी इसे स्वीकार किया है। मेरा विश्वास है कि संगीत को केवल मनोरंजन के लिए नहीं, बल्कि चिकित्सा की एक जीवंत और सहज विधा के रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए—एक ऐसी विधा जो तन, मन और आत्मा के समग्र संतुलन में अनन्य योगदान देती है।
मानव जीवन की तीव्रता और जटिलता ने आज उसकी अंदरूनी धाराओं को कलुषित कर दिया है। दौड़ती-भागती दुनिया में मनुष्य का ध्यान तन्तुओं की तरह बिखर गया है। उसी के साथ ही तनाव, अवसाद, अनिद्रा, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप और अनेक मानसिक अस्वस्थताएँ हमारे जीवन में आम हो चली हैं। इन विकारों का परम्परागत औषधीय उपचार भले सहायता करता हो परन्तु कई बार वह अन्तःकरण की तंग गलियों तक नहीं पहुँच पाता। ऐसे क्षणों में संगीत एक मौन वैद्य के समान प्रकट होता है—निस्वार्थ, सुलभ और बिना किसी दुष्प्रभाव के। यह वह शक्ति है जो बिना स्पर्श किये, बिना निगलने की गोलियाँ लिए, शरीर के भीतर घुसकर नाड़ी-कम्पन, रक्त प्रवाह और मस्तिष्क की तरंगों में सूक्ष्म समन्वय कर देती है। यही कारण है कि विश्व के अनेक प्रतिष्ठित चिकित्सालयों और पुनर्वास केन्द्रों ने ‘म्यूज़िक थेरपी’ को अपने उपचार-संदर्भ में शामिल किया है और इसके ठोस फल देखे हैं।
संगीत के चिकित्सीय प्रभाव का आधार कभी केवल आस्थागत नहीं रहा, अनेक वैज्ञानिक और प्रायोगिक प्रमाण इसे पुष्ट करते हैं। आधुनिक न्यूरोसाइंस ने प्रमाणित किया है कि संगीत सुनने पर मस्तिष्क के वे हिस्से सक्रिय होते हैं जो भावनाओं, स्मृति, ध्यान और शारीरिक क्रियान्वयन को नियंत्रित करते हैं। संगीत सुनने से डोपामिन और एंडोर्फिन जैसे रसायनों का स्राव बढ़ता है, जो भावनात्मक सुख और दर्दनिरोधक के रूप में कार्य करते हैं। यही नहीं, संगीत हृदय की धड़कन को स्थिर करता है, रक्तचाप को नियंत्रित करता है और श्वसन प्रणाली में समन्वय लाता है। क्लिनिकल प्रयोगों में यह भी प्रमाणित हुआ है कि ऑपरेशन के पश्चात धीमा और मधुर संगीत सुनाने से मरीजों में दर्द की अनुभूति कम होती है तथा रिकवरी की गति बढ़ती है। बच्चों में संगीत आधारित प्रोग्राम से भाषा विकारों और ऑटिज़्म से प्रभावित बच्चों में संवाद और सामाजिक व्यवहार में सकारात्मक परिवर्तन देखा गया है। वृद्धावस्था में स्मृति-रोगियों पर संगीत के प्रभाव ने कई बार उनकी खोई हुई स्मृतियों को झलकाने में सहयोग दिया है। इन तथ्यात्मक प्रमाणों से स्पष्ट है कि संगीत केवल भावनाओं का आवेग नहीं बल्कि एक वैज्ञानिक रूप से परिभाषित उपचार प्रणाली भी है।
भारतीय संस्कृति में संगीत का चिकित्सीय प्रयोग सदियों से प्रचलित रहा है। शास्त्रों में रागों के समय, स्वर-संयोजन और ताल के सांस्कृतिक नियमों का एक विस्तृत ढाँचा मिलता है। हमारे ऋषियों और संगीताचार्यों ने अनुभव किया था कि कुछ स्वर और लय मानव मनोवृत्तियों पर विशेष प्रभाव डालते हैं। इसी अनुभव ने राग-रागिनियों की वह समृद्ध परम्परा को जन्म दिया जो आज भी श्रोताओं के ह्रदय में अनिवार्य भावोत्पादन करती है। भैरव की गंभीरता, दरबारी की गम्भीर उदासीनता, यमन की शीतलता, बागेश्री की प्रभावशाली करुणा—ये गुण केवल सुन्दरता के लिए नहीं, वे मनोवैज्ञानिक और शारीरिक स्तर पर संतुलन स्थापित करने के लिए भी उत्तम हैं। रागों के सूक्ष्म उतार-चढ़ाव न केवल मनोभावों को प्रभावित करते हैं बल्कि शरीर के अनुनाद-तंत्र को भी व्यवस्थित करते हैं।
इस संदर्भ में प्राचीन ग्रन्थों और आधुनिक शोध दोनों की भाषा मेल खाती है। आयुर्वेदिक सिद्धान्तों के अनुसार शरीर में तीन दोष—वात, पित्त और कफ—यदि असंतुलित हों तो रोग उत्पन्न होते हैं। संगीत के विविध स्वर और ताल इन्हीं दोषों पर विनियमन करने में समर्थ माने गए हैं। यहीं से ‘रागोपचार’ की परम्परा जुड़ी है—रोगानुसार रागों का चयन, समयानुसार उनका आचरण और अनुनासिक अभ्यास मानव शरीर को सशक्त करने का माध्यम बनाते हैं। शोधार्थियों ने वनस्पति पर संगीत के प्रभाव के भी कई प्रयोग किए हैं, जिनमें पौधों की वृद्धि दर, फलन और फूलों की अवधि में स्पष्ट वृद्धि देखी गई। इन प्रयोगों ने ध्वनि-तरंगों की जीवविकासशक्ति को मान्यता दी है और यह प्रश्न उठाया है कि यदि पौधों पर संगीत का प्रभाव इतना प्रत्यक्ष है तो प्रबल संवेदनशील मानव-शरीर पर उसका क्या प्रभाव होगा। आधुनिक विज्ञान के उत्तर स्पष्ट हैं—मनुष्य पर संगीत के जैविक प्रभाव और भी अधिक गतिशील और बहुआयामी होते हैं।
हमारी दैनन्दिन ज़िन्दगी में संगीत का स्थान केवल आनन्द-उद्गम नहीं, वरन् उपकरणों के रूप में भी उपयोगी है। रियाज़ एक प्रकार का शारीरिक व्यायाम है, स्वर साधना फेफड़ों की क्षमता बढ़ाती है, श्वसन तंत्र को मजबूत बनाती है और कंठ-संरचना को साधकर रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाती है। कण्ठ में होने वाली साँसों की लय-समायोजन से ना केवल आक्सीजन का आदान-प्रदान सुधरता है बल्कि मानसिक केन्द्रों में शांति और संतुलन भी स्थापित होता है। गायन, वादन, नृत्य —इन सभी के माध्यम से मानव समुदाय में सामूहिक चेतना का संचार होता है जो सामाजिक समरसता और भावनात्मक सहानुभूति को बढ़ाता है। यही कारण है कि विभिन्न संस्कृतियों में जन्म, विवाह, श्राद्ध और त्योहारों पर संगीत का अनिवार्य स्थान होता है—क्योंकि संगीत ने सदियों से मनुष्य के संवेदनात्मक और सामूहिक जीवन को पोषित किया है।
विशेषतः मानसिक स्वास्थ्य पर संगीत का प्रभाव अत्यंत उल्लेखनीय है। आज अवसाद, चिंता विकार, बढ़ती उम्र से जुड़ी मानसिक क्षयता और युद्ध से प्रभावित मनोवैज्ञानिक आघात अनेक देशों की स्वास्थ्य चिंताओं में शुमार हैं। म्यूज़िक थेरपी इन समस्याओं का ऐसा सरल और प्रभावी समाधान प्रस्तुत करती है जिसे बड़े-बड़े रोगी समूह अपनाने लगे हैं। एक शांत राग या मधुर संगीतमय श्रृंखला का निरन्तर श्रवण, निर्देशित वादन, तथा सामूहिक गायन-व्यवहार रोगी की भाव-स्थिति को बदल देते हैं। संगीत न केवल रोगी की संवेदनशीलता को उठाता है बल्कि उसके भीतर आत्मीयता, विश्वास और जीवन में उद्देश्य का भी संचार करता है। जो व्यक्ति आत्म-लगाव व आत्म-विश्वास खो चुके होते हैं, संगीत के माध्यम से उनमें पुनरुत्थान की भावना उत्पन्न होती है। नतीजा यह होता है कि वे दवा पर ही निर्भर न रहकर, जीवन के प्रति नई आशा के साथ आगे बढ़ते हैं।
हम अनुभव करते हैं कि संगीत का प्रभाव केवल मनुष्यों तक सीमित नहीं, पशु और वनस्पति भी इससे प्रभावित होते हैं। इतिहास में अनेक घटनाएँ वर्णित हैं—राग सुनाकर हाथी, शेर को शांत करना, बेजुबान हिरन को बुलाना, वर्षा हेतू तानसेन द्वारा राग-मेघ मल्हार का प्रयोग—ये कथाएँ आदिम युग से संगीत-शक्ति की मान्यता का प्रमाण हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी यह सत्य निकला है कि ध्वनि-तरंगों से पौधों के प्रोटोप्लाज़्मा में गतिशीलता और क्लोरोप्लास्ट की क्रियाशीलता प्रभावित होती है जिससे फोटोसिंथेसिस और बढ़वार में सुधार आता है। जो प्रयोग अन्नामलाई विश्वविद्यालय के वृक्ष-विभाग एवं कुछ अन्य संस्थानों द्वारा किए गए, उनके निष्कर्ष बताते हैं कि जिन पौधों को संगीत सुनाया गया उनमें फूलन और फलन की संख्या अधिक तथा जीवनकाल भी तुलनात्मक रूप से लम्बा होता है। अतः यह तर्क कि संगीत केवल मानव के लिये है, ह्रासपूर्ण है—संगीत सवित्री है, वह सम्पूर्ण जीवमंडल को स्पर्श करता है।
समाज के छोटे-छोटे प्रयोगों से लेकर क्लिनिकल अनुसंधानों तक, संगीत ने अनेक रूपों में चमत्कारिक परिणाम दिए हैं। प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों के लिये संगीत-आधारित शिक्षण से उनकी स्मरण-शक्ति, ध्यान-क्षमता और रचनात्मकता में वृद्धि देखी गई है। वृद्धाश्रमों में नियमित संगीत-सत्रों से बुज़ुर्गों की आत्मीयता एवं जीने की इच्छा में इजाफा हुआ, अकेलापन घटा और सामाजिक भागीदारी बढ़ी। अस्पतालों के ऑपरेशन थिएटर में संगीत बजाने से ऑपरेशन से पहले के भय में कमी और बाद में दर्द सहने की क्षमता में सुधार दर्ज किया गया। कार्डियोलॉजी में संगीत के प्रयोग से हृदय की हालत पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा, रक्तचाप में समंजस आया तथा दवा-निर्भरता में कमी आई। ऑटिस्टिक बच्चों पर नियमित ताल-आधारित व्यायाम और संगीत थेरपी से उनकी भाषा एवं सामाजिक संवाद की कुशलता बेहतर हुई। इन सभी अनुभवों का सार यही है कि संगीत न केवल संवेदना को जगाता है बल्कि जीवन की कार्यकुशलता और स्वास्थ्य-सुधार में प्रत्यक्ष योगदान देता है।
भारत में संगीत चिकित्सा की परम्परा और आधुनिक अनुसंधान जब मिलते हैं तो एक नई संभावनापूर्ण दिशाएँ खुलती हैं। आर्युवेद ने स्वर के प्रभाव का उल्लेख कर रखा है। सामवेद में तो मंत्रोच्चार व रागों के उपयोग का वर्णन प्रत्यक्ष मिलता है। प्राचीन संगीताचार्यों ने स्वर-आचरण के अनुरूप शरीर के विशिष्ट अंगों और चक्रों से सम्बन्ध स्थापित कर दिया था। योगदर्शन में भी स्वरों के माध्यम से चक्र-संतुलन का सिद्धान्त पाया गया है। इन प्राचीन ज्ञान-श्रुतियों के साथ समकालीन वैज्ञानिक विधियाँ यदि संयुक्त की जाएँ तो संगीत चिकित्सा का दायरा और प्रभाव दोनों गहरे और व्यापक बन सकते हैं। आधुनिक तकनीक के उपयोग से रागों के कम्पन, आवृति और प्रभाव को मापक यंत्रों द्वारा नापा जा सकता है, इन्हें चिकित्सीय मानक में पिरोकर रोगानुसार निर्देशित संगीत-सेशन्स डिज़ाइन किए जा सकते हैं। एक समेकित संगीत-चिकित्सा कार्यक्रम में शारीरिक व्यायाम, श्वास-प्रश्वास अभ्यास, निर्देशित श्रवण, सक्रिय गायन और सामूहिक अनुराग सम्मिलित किए जा सकते हैं—ऐसा कार्यक्रम न केवल रोगियों की शारीरिक समस्याओं को संबोधित करेगा बल्कि उनकी भावात्मक और सामाजिक जरूरतों का भी सम्यक समाधान देगा।
फिर भी यह मानना आवश्यक है कि संगीत चिकित्सा को अन्ध-संस्कार के साथ जोड़ना उचित नहीं। यह मात्र आस्था का प्रश्न नही, यह व्यावहारिक और क्रमबद्ध चिकित्सा है। इसे अपनाने के लिये प्रशिक्षित संगीत-चिकित्सक, मनोवैज्ञानिक और क्लिनिकल स्टाफ का समन्वय आवश्यक है। अकारण रागों का प्रसारण या मात्र मधुर संगीत सुनाने से सब कुछ ठीक हो जायेगा—यह धारणा अव्यावहारिक है। परन्तु जब संगीत को वैज्ञानिक मानकों और रोग-विशेष अनुरूप नियोजित किया जाता है, तब इसके लाभ सुस्पष्ट और दीर्घकालिक होते हैं। इसी लिये विश्व के कई विश्वविद्यालयों में संगीत चिकित्सा के पाठ्यक्रम स्थापित किए गये हैं और प्रशिक्षित चिकित्सा संगीतज्ञों द्वारा नियंत्रित क्लिनिकल अभ्यास हो रहे हैं।
संगीत का प्रभाव आध्यात्मिक आयाम में भी अत्यन्त गहन है। जब कोई मानव स्वयं के भीतर डूबकर रागाराधना करता है, तब न केवल उसकी मानसिक थकान घटती है बल्कि वह आत्मिक उन्नति की ओर बढ़ता है—करुणा, क्षमा, और सेवा की भावनायें उसमें स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होती हैं। संगीत ने सदियों से साधु-सन्तों, कवियों और तत्त्वज्ञों को आध्यात्मिक अनुभव दिये हैं। भजन-कीर्तन और संगीतमय साधना ने समाज में नैतिकता और सहानुभूति के बीज बोए हैं। एक व्यक्ति जो नियमित रूप से स्वास्थ्य वर्धक संगीत के साथ जीवन बिताता है, वह केवल शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ नहीं रहता, वह सामाजिक रूप से सहानुभूतिशील, प्रेमपूर्ण और अन्य लोगों के प्रति संवेदनशील भी बनता है। संगीत ने मानवता के लिये वह सशक्त आधार प्रदान किया है जिससे समाज में सामूहिक संतुलन और मानसिक समरसता संभव हुई है।
अंततः यह समझना आवश्यक है कि संगीत सिर्फ़ सुनने का विषय नहीं बल्कि जीने का मार्ग है। रात्रि के सन्नाटे में जब कोई मधुर राग कानों में पिरोकर हमारे भीतर पहुँचता है तब हम अनायास ही अपने भीतर के आँसुओं और हँसी दोनों को अपनाते हैं। यही संगीत की शक्ति है—वह दर्द में भी सौन्दर्य दिखाता है और खुशी में भी गम्भीरता का अहसास कराता है। जीवन के टूटे हुए हिस्सों को जोड़ने, मन के खोए हुए हिस्सों को पुनः जगाने और आत्मा के अँधेरे को प्रकाश देने में संगीत का स्थान अतुलनीय है। यदि हर व्यक्ति अपने जीवन में प्रतिदिन कुछ समय संगीत के लिये निकाल दे—सुबह की शीतल बेला में एक राग, सायंकाल की शिथिल घड़ी में एक भजन—तो मात्र पंद्रह से बीस मिनट का यह अभ्यास उसके समग्र स्वास्थ्य और संतुलन में अद्भुत परिवर्तन सृजित कर सकता है।
इस लेख का समापन मैं उसी भाव के साथ करत हूँ, जो संगीत के प्रति मेरी गहरी श्रद्धा और आस्था की व्यंजना करता है। संगीत केवल लहरी, ताल और स्वर नहीं, वह जीवन का वह अनमोल स्रोत है जो हमें हमारी आत्मा से जोड़ देता है। संगीत का अनुभव औषधि से भी अधिक प्रभावी होता है क्योंकि यह बिना किसी नकारात्मक प्रभाव के मन और शरीर दोनों को पोषित करता है। अतः आज के आधुनिक युग में जब हर सुख-सुविधा उपलब्ध होने के पश्चात भी मनुष्य आत्मिक रूप से शिथिल दिखाई देता है, तब संगीत ही वह साधन है जो भीतर की प्यास को बुझा कर जीवन को नए अर्थ दे सकता है। जीवन के कठिन क्षणों में संगीत हमारा साथी बनकर आता है—मौन बना देता है, हृदय कठोरता को मृदु कर देता है और अंततः एक नई दिशा प्रदान कर देता है। संगीत चिकित्सा केवल विज्ञान नहीं, वह एक धर्म है—मानवता की सेवा हेतू, प्रेम व दया के लिए और आत्मा की शुद्धि के लिए।
भारतीय राग-चिकित्सा के मूल तत्व
राग-चिकित्सा भारतीय संगीत विज्ञान की एक प्राचीन विधि है, जो केवल मनोरंजन नहीं बल्कि शरीर, मन और चेतना के स्वास्थ्य के लिए उपयोग होती है। इसका आधार तीन मुख्य सिद्धांत हैं—स्वर–चक्र, भाव–रस अनुनाद और समय-सिद्धांत।
भारतीय शास्त्रीय संगीत के सात मूल स्वर—सा, रे, गा, मा, पा, ध, नि—मानव शरीर के सात प्रमुख चक्रों से जुड़े हैं। रागों में विशेष स्वर-संयोजन संबंधित चक्र को सक्रिय कर मानसिक और शारीरिक ऊर्जा संतुलित करते हैं। उदाहरण के तौर पर भैरवी राग मूलाधार चक्र को सक्रिय कर तनाव और भय कम करता है। आधुनिक शोध दिखाते हैं कि राग श्रवण हृदय गति, रक्तचाप और तनाव हार्मोन पर सकारात्मक प्रभाव डालता है।
राग केवल स्वरों का क्रम नहीं बल्कि भावनाओं और मानसिक अवस्थाओं की अभिव्यक्ति हैं। राग यमन शांति और आशा, बिहाग समर्पण और आनंद, तथा मालकौंस भय और दर्द को कम करने में सहायक होता है। राग श्रवण से मानसिक स्थिति सुधारती है और हृदय, श्वसन और तंत्रिका तंत्र पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
हर राग का प्रभाव विशेष समय पर अधिक होता है। प्रातःभैरव और भटियार मानसिक स्पष्टता बढ़ाते हैं, मध्याह्न शुद्ध सारंग, भीमप्लासी जैसे राग सक्रियता लाते हैं, सांझ यमन और विहाग भावनात्मक शांति और रात्रि मालकौंस गहरा विश्राम प्रदान करता है। समयानुसार राग सुनने से शरीर के साथ सामंजस्य बनता है, नींद, रक्तचाप और मानसिक ऊर्जा संतुलित रहती है। राग श्रवण तनाव और अवसाद कम करता है, रक्तचाप नियंत्रित करता है, अनिद्रा में लाभकारी है, स्मरणशक्ति और ध्यान बढ़ाता है और भावनात्मक शांति प्रदान करता है।
राग-चिकित्सा एक जीवंत विज्ञान और कला का सम्मिलन है। यह स्वर, भाव, समय और चक्र के माध्यम से शरीर और मन में संतुलन लाती है। आधुनिक शोध और परंपरागत अनुभव दिखाते हैं कि राग सुनना, गायन या वादन मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभकारी है। इसे मुख्य चिकित्सा का विकल्प नहीं बल्कि सहायक उपचार के रूप में अवश्य अपनाया जाना चाहिए।
रोगोपचार में उपयोगी कुछ राग
राग भूपाली
मन में प्रसन्नता लाता है, चिंता कम करता है और ध्यान की क्षमता बढ़ाता है।
राग मोहनम्
सिरदर्द व माइग्रेन में राहत देने वाला माना जाता है; मन को हल्का व शांत बनाता है।
राग खमाज
मनोवैज्ञानिक तनाव घटाने और भावनात्मक संतुलन बनाने में सहायक।
मेघ-मल्हार एवं मियाँ मल्हार
गर्मी, थकान, अस्थमा व सांस सम्बन्धी समस्याओं में परम्परागत रूप से उपयोगी माने जाते हैं और शरीर को शीतलता देते हैं।
राग मुलतानी
आँखों की थकान, शाम के समय मानसिक बोझ व तनाव कम करने में सहायक माना गया है।
राग मिश्र मांड (मांड)
मन को हल्का और स्थिर करता है। घबराहट कम करता है।
राग शिवरंजनी
अवसाद, भावनात्मक दर्द और बेचैनी में राहत देने वाला माना जाता है।
राग भैरवी (समूह)
गहरी चिंता, अनिद्रा, तनाव, भावनात्मक अस्थिरता में अत्यन्त उपयोगी और मन को स्थिर करके शांति देता है।
राग अहिर भैरव
उच्च रक्तचाप कम करने, सुबह के समय मानसिक संतुलन और स्पष्टता लाने के लिए श्रेष्ठ।
राग पूरीया धनाश्री
रक्तचाप में आराम, चिड़चिड़ापन कम करने और ध्यान केंद्रित करने में सहायक।
राग चंद्रकौंस
गहरी मानसिक शांति और विश्राम प्रदान करता है; हृदय की बेचैनी कम करने में उपयोगी।
राग मध्यमवती
तंत्रिकातंत्र से जुड़े विकारों, तनाव और मानसिक असंतुलन में उपयोगी माना जाता है।
राग चारुकेशी
मन को शांत, प्रसन्न और संतुलित रखने में सहायता करती है।
राग हंसध्वनि
स्मरणशक्ति बढ़ाने, ध्यान शक्ति को स्थिर करने और सकारात्मक भावों को जागृत करने वाला।
राग कल्याणी / यमन का दक्षिण भारतीय रूप
हृदय-स्वास्थ्य, मानसिक संतुलन और आंतरिक शांति के लिए लाभकारी मानी गई।
राग मायामालवगौड़
ध्यान और चक्र-साधना में उपयोग; मानसिक स्थिरता और नाड़ी-संतुलन में सहायक।
राग नट भैरव
पाचन सम्बन्धी समस्याओं और उदर-अशांति में पारम्परिक उपयोग का उल्लेख मिलता है।
राग पटदीप
पाचन शक्ति सुधारता है, शरीर की आंतरिक गर्मी को संतुलित करता है।
राग भीमपलासी
अत्यधिक चिंता, घबराहट और मानसिक तनाव कम करने में सहायक।
भारत में संगीत चिकित्सा
भारत में संगीत-चिकित्सा का क्षेत्र तेजी से विकसित हो रहा है और देश भर में कई संस्थाएँ, संगठन तथा अस्पताल इसे स्वास्थ्य और मानसिक संतुलन के एक प्रभावी साधन के रूप में बढ़ावा दे रहे हैं। राष्ट्रीय स्तर पर इंडियन एसोसिएशन ऑफ म्यूज़िक थेरेपी, संगीत चिकित्सा शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र और इंडियन म्यूज़िक थेरेपी एसोसिएशन जैसे संगठन सक्रिय रूप से कार्य कर रहे हैं। ये संस्थाएँ संगीत-चिकित्सा के सिद्धांतों का प्रसार करती हैं, शोध को प्रोत्साहित करती हैं और प्रशिक्षित थेरापिस्ट तैयार करने के लिए प्रमाणित कोर्स व कार्यशालाएँ आयोजित करती हैं। इसी प्रकार, नाद सेंटर और टी.वी. साईराम फाउंडेशन भारत में संगीत-चिकित्सा जागरूकता और वैज्ञानिक अनुसंधान के सबसे महत्वपूर्ण केंद्रों में शामिल हैं। ये संस्थाएँ लंबे समय से संगीत-आधारित उपचार पर शोध, सेमिनार और अंतरराष्ट्रीय स्तर की गतिविधियाँ आयोजित कर रही हैं।
देश में संगीत-चिकित्सा की वैज्ञानिक समझ को मजबूत करने में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो-साइंसेज़, बेंगलुरु का म्यूज़िक कॉग्निशन लैब भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। यहाँ संगीत और मस्तिष्क के संबंध, तनाव प्रबंधन, न्यूरोलॉजिकल विकारों तथा मानसिक स्वास्थ्य पर संगीत के प्रभाव पर गहन शोध किया जाता है। इस शोध का उपयोग उपचार और पुनर्वास कार्यक्रमों में भी किया जा रहा है।
संगीत-चिकित्सा केवल शोध और प्रशिक्षण तक सीमित नहीं है बल्कि कई प्रमुख अस्पतालों में इसे चिकित्सकीय प्रक्रिया के रूप में शामिल किया गया है। कोकिलाबेन धीरूभाई अंबानी हॉस्पिटल मुंबई, जहांगीर हॉस्पिटल पुणे और साकरा वर्ल्ड हॉस्पिटल बेंगलुरु में रिहैबिलिटेशन और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं के अंतर्गत संगीत-चिकित्सा का उपयोग किया जाता है। इसके अलावा, देश के अग्रणी कैंसर अस्पताल जैसे अपोलो अस्पताल समूह और टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल मुंबई भी कैंसर मरीजों के दर्द प्रबंधन, तनाव कम करने, अनिद्रा और भावनात्मक संतुलन के लिए संगीत-चिकित्सा को उपचार का हिस्सा बना रहे हैं। कई अन्य पल्लिएटिव केयर और कैंसर केंद्र भी संगीत-आधारित हस्तक्षेप का उपयोग करके रोगियों की जीवन-गुणवत्ता सुधारने में योगदान दे रहे हैं।
समग्र रूप से देखें तो भारत में संगीत-चिकित्सा एक उभरता हुआ लेकिन अत्यंत प्रभावी चिकित्सा-विकल्प बन चुका है। मानसिक तनाव, अवसाद, अनिद्रा, दर्द निवारण, बच्चों के विकास, बुजुर्गों की स्मृति संबंधी समस्याएँ और कैंसर उपचार के दौरान भावनात्मक सहारे जैसे कई क्षेत्रों में इसका उपयोग बढ़ रहा है। अलग-अलग संगठन, शोध संस्थान और अस्पताल मिलकर इसे प्रमाणित और वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति बनाने की दिशा में सार्थक प्रयास कर रहे हैं।
हिमाचल प्रदेश में संगीत चिकित्सा
हिमाचल प्रदेश में संगीत-चिकित्सा से जुड़े कार्य अभी प्रारम्भिक लेकिन महत्वपूर्ण चरण में हैं। राज्य में इस दिशा में सबसे उल्लेखनीय पहल आईआईटी मंडी द्वारा शुरू किया गया संगीत एवं संगीत-चिकित्सा का शोध कार्यक्रम है, जहाँ संगीत को मानसिक स्वास्थ्य, तनाव-नियंत्रण और न्यूरो-साइंस के संदर्भ में वैज्ञानिक रूप से अध्ययन किया जा रहा है। संगीत विभाग हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय भी समय-समय पर इससे संबंधित कार्यशालाएं और सेमिनार आयोजित करवाता रहता है। इसके साथ ही हिमाचल प्रदेश पुलिस के प्रशिक्षण केंद्रों में तनाव कम करने तथा मानसिक संतुलन बढ़ाने के उद्देश्य से साउंड हीलिंग सत्र आयोजित किए जा रहे हैं, जो संगीत-आधारित उपचार का व्यावहारिक प्रयोग है। धर्मशाला और शिमला जैसे क्षेत्रों में भी निजी स्तर पर सिंगिंग बाउल, मंत्र-ध्वनि तथा ध्वनि-आधारित विश्राम तकनीकों का उपयोग मानसिक शांति और वेलनेस के लिए किया जा रहा है। हालांकि, प्रदेश के सरकारी अस्पतालों में संगीत-चिकित्सा को अभी औपचारिक चिकित्सा-विभाग के रूप में स्थापित नहीं किया गया है लेकिन वेलनेस, काउंसलिंग और पुनर्वास कार्यक्रमों में संगीत का सहायक उपचार के रूप में प्रयोग लगातार बढ़ रहा है। समग्र रूप से हिमाचल में संगीत-चिकित्सा शोध, तनाव प्रबंधन और वेलनेस कार्यक्रमों के रूप में धीरे-धीरे अपना विस्तार कर रही है।
हिमाचल प्रदेश में संगीत-चिकित्सा को प्रभावी रूप से प्रारम्भ करने के लिए आवश्यक है कि इसे राज्य के प्रमुख स्वास्थ्य संस्थानों—जैसे एम्स बिलासपुर, आईजीएमसी शिमला, टांडा मेडिकल कॉलेज, तथा बड़े जिला अस्पतालों—में औपचारिक चिकित्सा-विकल्प के रूप में शामिल किया जाए। मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों, मनोवैज्ञानिकों, कैंसर उपचार केंद्रों और पुनर्वास इकाइयों में संगीत-चिकित्सा को वैज्ञानिक पद्धति के साथ लागू किया जाए, ताकि रोगियों के तनाव, अवसाद, दर्द प्रबंधन और भावनात्मक संतुलन में ठोस सुधार लाया जा सके। विश्वविद्यालय स्तर पर इसका विशेष पाठ्यक्रम तैयार किया जाना चाहिए। इस पाठ्यक्रम में चिकित्सक, संगीतविद और शोधार्थी मिलकर काम कर सकें, शोध कर सकें और व्यावहारिक अनुभव प्राप्त कर सकें। इससे संगीत-चिकित्सा को न केवल एक शैक्षणिक विषय के रूप में मान्यता मिलेगी बल्कि इसे क्लिनिकल और सामाजिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी प्रभावी ढंग से लागू किया जा सकेगा। हिमाचल की समृद्ध लोक-संगीत परंपराएँ और शांत प्राकृतिक वातावरण इस चिकित्सा को अतिरिक्त मजबूती प्रदान कर सकते हैं। यदि अस्पतालों में प्रशिक्षित संगीत-चिकित्सकों और संगीतज्ञों की नियुक्ति, अनुसंधान कार्यक्रमों की शुरुआत और संगीत एवं चिकित्सकीय विशेषज्ञों के संयुक्त प्रयास किए जाएँ तो हिमाचल प्रदेश संगीत-चिकित्सा के क्षेत्र में एक अग्रणी राज्य बनकर उभर सकता है और हजारों रोगियों के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन ला सकता है।


टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें