Dr.Rajesh K Chauhan
जन समुदाय में प्रचलित परंपरागत गायन, वादन और
नृत्य को लोक संगीत कहते हैं। लोक संगीत का सीधा संबंध हमारी लोक संस्कृति से है। लोकगीत
प्रकृति के उद्गार हैं। साहित्य की छंदबद्धता एवं अलंकारों से मुक्त रहकर ये
मानवीय संवेदनाओं के संवाहक के रूप में माधुर्य प्रवाहित कर हमें तन्मयता के लोक
में पहुंचा देते हैं। लोकगीतों के विषय, सामान्य मानव की सहज
संवेदना से जुडे हुए होते हैं। इन गीतों में प्राकृतिक सौंदर्य, सुख-दुःख,
विभिन्न संस्कारों और जन्म-मृत्यु को बड़े ही हृदयस्पर्शी ढंग से प्रस्तुत किया
गया होता है। लोकगीतों की रचनाएँ लोकभाषा में ही होती हैं। इन गीतों में शास्त्रीय
संगीत की भांति किसी भी प्रकार के नियम या बंधन का प्रावधान नहीं होता। विभिन्न
ॠतुओं के सहजतम प्रभाव से अनुप्राणित ये लोकगीत प्रकृति रस में लीन हो उठते हैं।
बारह मासा, छैमासा तथा चौमासा इत्यादि गीत इस कथन की सत्यता
के प्रामाण हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि लोकगीतों में धरती गाती
है, पर्वत गाते हैं, नदियां गाती हैं,
फसलें गाती हैं। उत्सव, मेले और अन्य अवसरों
पर मधुर कंठों में लोक समूह लोकगीत गाते हैं।
हिमाचल प्रदेश को देवभूमि के नाम से भी पुकारा
जाता है। अपनी पुरातन संस्कृति, समृद्ध सांस्कृतिक विरासत एवं परम्पराओं के कारण विश्व के मानचित्र पर
इसकी अलग पहचान है। यहाँ की प्राचीन लोक संस्कृति में सुमधुर गीत-संगीत, देवालय, शक्तिपीठ, प्राचीन
वाद्ययंत्र, खान-पान, तीज़-त्यौहार एवं
पारंपरिक वेशभूषाएं शामिल हैं। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद हिमाचल प्रदेश ने
प्रत्येक क्षेत्र में विकास की ऊंची छलांग लगाई है। वैश्वीकरण के कारण आज सम्पूर्ण
विश्व एक सूत्र में बंधता प्रतीत हो रहा है। विकसित देशों की तर्ज़ पर आज यहाँ का
युवा वर्ग भी आधुनिकता का कदमताल कर रहा है। यहाँ की संस्कृति पर पाश्चात्य
संस्कृति का प्रभाव अत्यधिक तेज़ गति से पड़ता दृष्टिगोचर हो रहा है। खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा, गीत-संगीत
इन सभी पर पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। ऊन का लोहिया, ऊन का चूड़ीदार पायजामा, कमर में ऊन की गाची, सिर पर गोल हिमाचली टोपी, कुर्ता, पायजामा, साफा इत्यादि पुरुषों के तथा ऊन की अचकन
या रेजटा, चूड़ीदार पायजामा, सिर पर
ढाटू, घागरा, चोली इत्यादि महिलाओं के
पारंपरिक परिधान हैं। ये पोशाकें अब ग्रामीण क्षेत्रों में भी किसी विशेष अवसर पर
ही देखने को मिलती हैं। यदा-कदा प्रदेश में होने वाले मेलों में लोक कलाकार भी
पारंपरिक परिधानों का प्रयोग लोक संस्कृति का प्रदर्शन करने के लिए करते हैं।
हिमाचल का लोक संगीत भी यहाँ की लोक संस्कृति की
भांति अति प्राचीन एवं समृद्ध है। जन्म से लेकर मृत्यु तक की प्रत्येक अवस्था के
गीत यहाँ के लोकसंगीत की ख़ासियत है। हस्नू खेलनू, मुंडन संस्कार, यज्ञोपवीत एवं विवाह संस्कार गीत
इत्यादि। इसके अतिरिक्त वीरगाथाएं, देवगीत, प्रकृति गीत, प्रेम गीत, विरह
गीत, शृंगारिक गीत यहाँ सदियों से गाये-बजाए जा रहे हैं।
लोकगीतों के साथ लोकवाद्ययंत्रों का प्रयोग संगति हेतू किया जाता है। नगाड़ा, झांझ, मंजीरा, खड़ताल, चिमटा, घड़ा, थाली, घुंघरू, हुड़क, रणसिंगा, ढमामा, दमगट, नगारट, गुज्जू, डोरू, करनाल, तुरही, बांसुरी व शहनाई आदि यहाँ के पारंपरिक वाद्य
हैं। इन लोक वाद्यों के साथ गाया गया लोकगीत सुनते ही मन रोमांचित होकर अनायास ही झूमने
लगता है। लोक संगीत हमें अपनी जन्मभूमि की मिट्टी की खुशबू का आभास कराता है, जो अन्य किसी भी संगीत के श्रवण द्वारा संभव नहीं है।
सदियों से चली आ रही समृद्ध संस्कृति के परिचायक
हमारे लोकगीत हमें हमारे गौरवमई अतीत का स्मरण करवाते हैं। बहुत से ऐसे लोकगीत हैं
जो आज भी हमें प्राचीन घटनाओं की याद ताज़ा करवा रहे हैं। ये गीत एक बहुत लंबा सफ़र
तय कर पीढ़ी दर पीढ़ी हम तक पहुंचे हैं। ज़िला सिरमौर के ‘ढोली जा मेरे
बोलो टीलूआ, भरतरी गाथा गीत, बिशू गीत
म्हारे बिशू के जाणा, ज़िला शिमला के ‘पारे
बोलो ढाको दे रिडुया तेरे, रोंदे लागे चेखीएं, ज़िला चंबा के फुलमु-रांझू, कुंजू-चंचलो, राजा-गद्दन,
भूककु-गद्दी, लच्छी, नुआला, एंचलिया, चंबा की रानी के बलिदान का साक्षी सूहीगीत
व सुकरात, कांगड़ा के राजा हरिसिंह का गीत ‘हरिसिंह राजेया, नूरपुरे दिये खतरेटीए, घोड़ी, विवाह गीत, ज़िला मंडी
के निर्मण्डा रीए ब्राहम्णीए, मनी रामा पटवारिया, न मन्या ओ हंसा, बिलासपुर के प्रसिद्ध मोहणा, गम्भरी, बालो, झुंज्युटी आदि पुरातन
में घटित सच्ची घटनाओं पर आधारित लोकगीत हैं जो आज भी जनमानस में उतने ही प्रचलित
हैं जितने उस समये थे जब इनकी रचना की गयी थी।
आज हमारा पारंपरिक लोक संगीत आधुनिकता की
जगमगाहट में अपनी पहचान खोता दृष्टिगोचर हो रहा है। पारंपरिक वाद्यों के स्थान पर
आज पाश्चात्य वाद्यों का ही प्रयोग किया जा रहा है। परिणामस्वरूप हमारे प्राचीन
वाद्ययंत्र विलुप्त होने की कगार पर पहुँच गए हैं। आज का युवा नहीं जानता की
रणसिंगा, नगाड़ा, करनाल, गुज्जू, तुरही आदि वाद्य कैसे दिखते हैं, कहाँ के हैं और
किस प्रकार के वाद्य हैं। इसके विपरीत गिटार, पियानो जैसे
पाश्चात्य वाद्य यंत्रों की उन्हें पूरी जानकारी होती है क्योंकि आजकल पारंपरिक गीतों
में भी इन्हीं ही प्रयोग किया जा रहा है।
लोकगीत
लोकवाद्यों की संगत व लोकनृत्य पारंपरिक पोशाक में ही चितरंजक लगता है। प्रदेश के
बाहर भी हमें हमारी लोक संस्कृति के कारण ही जाना-पहचाना जाता है। भविष्य के लिए
इसे संजोए रखना हमारी नैतिक ज़िम्मेदारी है। हिमाचल में वर्ष भर सैंकड़ों मेलों का
आयोजन सरकार द्वारा करवाया जाता है, लेकिन उन मेलों में लोक संस्कृति के साथ किए जा रहे खिलवाड़ के प्रति कोई
भी जवाबदेह नहीं है। पारंपरिक लोकगीतों का मंच प्रदर्शन गिटार, पीयानो, ओक्टो-पैड जैसे पाश्चात्य वाद्य यंत्रों व
जींस / टॉप जैसे वस्त्रों के साथ करना कहाँ तक उचित है?
सस्ती लोकप्रियता के लिए युवा कलाकारों द्वारा परंपरा के साथ किया जा खिलवाड़
निदनीय है। सरकार को भी इस दिशा में सकारात्मक क़दम उठाने चाहिए। पारंपरिक गीतों के
साथ छेड़छाड़ कतयी बर्दाष्ट नहीं की जानी चाहिए। प्रदेश में होने वाले मेलों में लोक
कलाकारों के लिए हिमाचली वाद्यों एवं पारंपरिक वेश-भूषा का प्रयोग अनिवार्य किया
जाना चाहिए।
इसके अतिरिक्त विद्यालय स्तर से संगीत की शिक्षा
आरंभ कर पारंपरिक लोक संगीत को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। वर्तमान में
केवल शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ही विद्यालयों, महाविद्यालयों में दी जा रही है।
लोक संगीत व वाद्ययंत्र न के बराबर सिखाये जाते हैं। लोक संगीत को प्रारम्भिक शिक्षा में
शामिल कर तथा प्राचीन लोकगीतों एवं वाद्ययंत्रों के ज्ञाता स्वरसाधक कलाकारों को
अधिक से अधिक मंच प्रदान कर ही हम हिमाचल की लोक संस्कृति एवं लोक संगीत को भविष्य
के लिए विशुद्ध रूप में बचा सकते है।
अति उत्तम
जवाब देंहटाएंThanks sir
हटाएंRightly said
जवाब देंहटाएंThanks sir
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