बुधवार, 26 जून 2019

कला और आस्था का द्योतक है केरल का थैय्यम नृत्यानुष्ठान by - Dr. Rajesh K Chauhan

कला और आस्था का द्योतक है केरल का थैय्यम नृत्यानुष्ठान

By - Dr. Rajesh K Chauhan

"गॉड्स ओन कंट्री" ध्येय वाक्य से प्रसिद्ध केरल दक्षिणात्य  राज्यों में सांस्कृतिक विविधता एवं प्राकृतिक सुंदरता के मामले में अत्यधिक समृद्ध राज्य है। यहां के लोग विरासत में मिली परंपरागत  लोक तथा शास्त्रीय शैलियों को भविष्य के लिए संजोकर रखने में विश्वास रखते हैं। भौगोलिक आधार पर केरल एक छोटा सा प्रदेश है, फिर भी यहां सात शास्त्रीय तथा लगभग पचास से अधिक लोक नृत्यों का अभ्युदय हुआ है। यहां पर परिलक्षित शास्त्रीय एवं लोक नृत्य पूर्ण रूप से विकसित हैं और वहां के स्थानीय लोगों के स्वभाव को संगीत और वेशभूषा के साथ दिखाते हैं। इन नृत्यों को लोगों के जीवन जीने के हिसाब से और लोगों के नृत्य करने के अनुसार ढाला गया है। यहां पर प्रचलित नृत्य अत्यंत मनमोहक व प्राचीन हिंदू ग्रंथों के सिद्धांतों, तकनीकों एवं कला संबद्धता पर पूर्ण या आंशिक रूप से आधारित हैं। इससे यह बात प्रमाणित हो जाती है कि यहां के निवासी कितने कला प्रेमी व प्रायोगिक विचारधारा के हैं। यहां का प्राकृतिक व सांस्कृतिक सौंदर्य दर्शनीय है। केन्द्र सरकार की सेवा के दौरान मुझे लगभग एक वर्ष छह महीने केरल में रहने तथा वहां की संस्कृति को नजदीक से जानने का अवसर प्राप्त हुआ है। उसी दौरान कासरगोड जिला के नीलेश्वर नामक स्थान पर एक मंदिर में हो रहे धार्मिक समारोह थैय्यम को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। केरल के पारंपरिक घन वाद्य पंच (चेण्डी) तथा थायम्बका की गूंज से मंदिर का प्रांगण गूंज रहा था। प्रांगण के चारों तरफ श्रद्धालुओं तथा कला प्रेमियों की भीड़ खड़ी थी। अचानक विशेष प्रकार की कलात्मक पोशाक में सुसज्जित थैय्यम कलाकार मंदिर के चारों तरफ दौड़ लगाते हुए उपस्थित जनसमूह को आशीर्वाद देने लगा तथा दैवीय शैली में लोगों को चारों दिशाओं में जाकर प्रवचन देने लगा तथा वाद्यों की थाप पर मनमोहक भाव भंगिमाओं का प्रदर्शन करने लगा। इसी बीच वह वहां लाए गए मुर्गे को उठाता है और चाकू से उसकी गर्दन अलग कर देवी को रक्त चढ़ाता है। देखते ही देखते वहां का वातावरण गंभीर तथा दिव्यता में तब्दील हो गया। मैं यह सब देखकर काफी हैरान हुआ। हृदय में अचंभित करने वाले इस नृत्यानुष्ठान के बारे में और अधिक जानने की तीक्ष्ण इच्छा उत्पन्न हुई। तत्पश्चात जिज्ञासा वश मैं कन्नूर तथा कासरगोड जिलों के कई गांव में हुए थैय्यम कार्यक्रमों में देर रात तक रुका तथा इसके बारे में जानकारी एकत्रित करने की कोशिश की।
वास्तव में थैय्यम, तैय्यम या थियम केरल प्रदेश के उत्तर मालाबार क्षेत्र का एक  प्रमुख पूजा नृत्यानुष्ठान है। यह नृत्य अनुष्ठान मुख्य रूप से केरल के कासरगोड, कन्नूर, वायनाड, कोष़िक्कोड और कर्नाटक के सीमावर्ती इलाके कोडगु और तुलुनाडु में एक पंथ या समुदाय के द्वारा हजारों वर्ष पुरानी विधाओं और विधियों के माध्यम से निष्पादित किया जा रहा है। यहां के निवासी थैय्यम कलाकार को भगवान का प्रतिरूप मानते हैं तथा उनसे संम्पन्नता  तथा आरोग्यता का आशीर्वाद लेते हैं। थैय्यम कलाकारों तथा मलयालयी लेखक श्री भवानी चीरत, राजगोपालन तथा पेपिता सेठ द्वारा लिखित किताबों से प्राप्त जानकारी के अनुसार देवाट्टम (थैय्यम), पूरवेला, कलियाट्टम आदि शैलियों को उत्तरी मालाबार क्षेत्र में स्थापित तथा प्रचारित करने का श्रेय परशुराम को जाता है। उन्होंने ही इस प्रांत के आदिवासी समुदायों को थैय्यम के निष्पादन की जिम्मेदारी सौंपी थी। इस अनुष्ठान में चढ़ावे के रूप में मांस तथा शराब आदि का प्रयोग किया जाता है इसके बावजूद भी इसे यहां के मंदिरों में अन्य सात्विक अनुष्ठानों की ही भांति बड़ी श्रद्धा से मनाया जाता है।
एक अन्य दंतकथा के अनुसार थैय्यम के उद्भावक के रूप में मनक्काडन गुरुक्कल को माना जाता है। गुरुक्कल वन्नान जाति से संबंधित एक उच्च श्रेणी के कलाकार थे। चिरक्कल प्रदेश के राजा ने एक बार उन्हें उनकी दिव्य शक्तियों की परीक्षा लेने के लिए अपनी राज्यसभा में बुलवाया। राज्य सभा की तरफ यात्रा के दौरान राजा ने उनके लिए कई रुकावटें पैदा की लेकिन गुरुक्कल प्रत्येक रुकावट को दूर कर उनकी सभा में उपस्थित हो गए। उनकी दिव्य शक्तियों से प्रभावित होकर राजा ने उन्हें कुछ देवताओं के पोशाक बनाने की जिम्मेदारी सौंप दी जिसका प्रयोग सुबह नृत्यानुष्ठान में किया जाना था। गुरुक्कल ने सूर्योदय से पहले ही 35 अलग अलग तरह की मनमोहक पोशाकें तैयार कर ली। उनसे प्रभावित होकर राजा ने उन्हें "मनक्काडन" की उपाधि से सम्मानित किया। वर्तमान में उनके द्वारा प्रचलित शैली से तैयार की गई पोशाकें ही थैय्यम कलाकारों द्वारा पहनी जाती हैं।
थैय्यम नृत्यानुष्ठान की प्रथम विधि को तोट्टम कहा जाता है। यह नृत्य साधारण सी पोशाक तथा अल्प श्रंगार के साथ मंदिर के गर्भगृह के सामने किया जाता है। इसमें कलाकार देवी या देवता के चमत्कारिक कार्यों का गान करते हुए थैय्यम के इतिहास पर आधारित जोशीला नृत्य करता है। यह गायन तथा नृत्य अत्याधिक ऊर्जावान तथा उत्साह से भरपूर होता है। तोट्टम प्रदर्शन के पश्चात थैय्यम के मुख्य प्रकार के प्रदर्शन के हेतु कलाकार विदाई ले कर चला जाता है तथा मुख्य क्रिया की तैयारी में जुट जाता है। इस  नृत्यानुष्ठान की तैयारी मुख के श्रृंगार से शुरू की जाती है। इस नृत्य के लिए मुख सज्जा करना अत्यंत कठिन कार्य होता है। पूरे चेहरे पर विभिन्न प्राकृतिक रंगों का प्रयोग करते हुए वीर रस से प्रेरित आकृतियां बनाई जाती हैं। मुख की रंगाई करते समय विभिन्न रेखाएं खींची जाती हैं। इन सभी रेखाओं का अलग-अलग मतलब तथा महत्वता होती है। मुख अलंकार तथा पोशाक कलाकार द्वारा प्रस्तुत की जा रही कहानी एवं उसके इतिहास पर निर्भर करती है। पहनी गई पोशाक से यह मालूम हो जाता है कि थैय्यम की किस शैली तथा भावों का प्रदर्शन किया जा रहा है। वर्तमान में मुच्छिलोट भगवती,  विष्णुमूर्ति, गुलिकन, कण्डाकर्णन, मुत्तप्पन,  ती चामुंडी आदि प्रकार अति जनप्रिय है। टी चामुंडी नामक थैय्यम अत्यंत कठिन एवं जोखिम भरा माना जाता है। इस का प्रस्तुतिकरण करना प्रत्येक कलाकार के लिए अत्यधिक चुनौतीपूर्ण एवं साहसिक कार्य होता है। इस प्रदर्शन के दौरान कलाकार को जलते हुए अंगारों के बीच जाकर नंगे पांव नृत्य करना होता है। इसके दौरान उसकी पोशाक जिसे नारियल के पत्तों के पतले-पतले रेशे निकालकर बनाया जाता है। इश रेशों को कलाकार की कमर में चारों तरफ अत्यंत मनमोहक अंदाज में बांध दिया जाता है। दूर से देखने पर यह सूखी धान की तरह नजर आते हैं। इस नृत्यानुष्ठान के दौरान इस पोशाक को भी आग लगा दी जाती है। कलाकार इस नृत्य के दौरान अपने हाथों में भी दो जलती हुई मशालें  पकड़कर नृत्य करता है।

थैय्यम के प्रत्येक प्रकार में कलाकार स्वयं ही अपनी पोशाक तैयार करता है। पोशाक बनाने के लिए अक्सर नारियल के पत्तों के आवरण का प्रयोग किया जाता है। आवरण को लाल, काले तथा सफेद रंगों से रंगाई कर उस पर विभिन्न प्रकार के चित्र बनाए जाते हैं। इन चित्रों से आवरणऔर भी मनभावन तथा कलात्मक नज़र आते हैं। इसी प्रकार ताज़े तालपत्रों से आंचल, नारियल  के खोखले खोलो से स्तन तथा कमर पर एक लाल रंग का कपड़ा ओढ़ लिया जाता है। सिर की सज्जा के लिए एक कलात्मक ताज भी बनाया जाता है। इस शिरो भूषण का आकार तथा सज्जा भी थैय्यम की कथा पर निर्भर करता है। ताज या शिरोभूषण पोषक का सबसे पवित्र भाग माना जाता है। इसे देवता की मूर्ति के समक्ष ही पहना जाता है। इसे पहनते वक्त पारंपरिक वाद्य यंत्रों पर वीर रस से प्रेरित धुनों के साथ कलाकार अपना प्रतिबिंब आईने में देखता है। इस दौरान कलाकार प्रतिबिंब में दैवीय शक्ति को भी महसूस करता है तथा अपने आप को उसके प्रतिरुप के रूप में प्रस्तुत करता है। तत्पश्चात कलाकार उस पोशाक में सुसज्जित होकर मंदिर के चारों तरफ दौड़ता हुआ जाता है। वह इस दौरान नृत्य की विभिन्न मुद्राओं का प्रदर्शन करता है। इस नृत्य के साथ पारंपरिक वाद्य चेण्डा का भिन्न-भिन्न लयों यथा तालों में लगातार वादन किया जाता है। वाद्य कलाकार भी पारंपरिक परिधानों में सुसज्जित होकर आते हैं। थैय्यम कलाकार उपस्थित सभी भक्तों को उनके पास जाकर आशीर्वाद देता है तथा उनकी समस्याओं का हल भी बताता है। इस नृत्य अनुष्ठान के दौरान वहां पर उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति एक आध्यात्मिक तथा अद्भुत वातावरण को महसूस करता हुआ बड़ा ही श्रद्धा से इस परम्परा को निष्पादित करता है।


बुधवार, 5 जून 2019

अभी भी प्रचलित है महाभारतकालीन खेल नृत्य ठोडा Dr. Rajesh K Chauhan


अभी भी प्रचलित है महाभारतकालीन खेल नृत्य ठोडा     

Dr. Rajesh K Chauhan

परिवर्तन प्रकृति का नियम है और समय के साथ हमारी परंपराओं का परिवर्तित होना भी एक आम बात प्रतीत होती है।परम्परा का अर्थ उन सभी विचारों, आदतों और प्रथाओं का योग है, जो व्यक्तियों के एक समुदाय का होता है, और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होता रहता है। हमारे देश की बहुत सी आदिकालीन परंपराएं आज विलुप्त हो चुकी हैं। इसी प्रकार की प्राचीन परंपराओं में से एक है महाभारतकालीन खेल नृत्य ठोडा। आज भी हिमाचल प्रदेश के जिला सिरमौर, सोलन, शिमला, कुल्लू तथा उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों के बाशिंदों द्वारा इस नृत्य का निर्वहन किया जा रहा है। ठोडा मूल रूप से युद्ध कला से प्रेरित नृत्य है।


जनश्रुतियों के अनुसार ठोडा जिला सिरमौर की योद्धा जाति खुंद द्वारा किया जाने वाला खेल नृत्य है जिसे बिशु मेले के अवसर पर किया जाता था। यह एक प्रकार का तीरंदाजी का खेल है जिसमें दो दलों/टीमों का होना अनिवार्य होता है। एक शाठी और दूसरा  पाशी। इस खेल को कौरवों और पांडवों के बीच हुए युद्ध से जोड़ा जाता है। कौरव सौ थे उसी से नाम पड़ा शाठी तथा पांच पांडवों को पाशी कहकर संबोधित किया जाता था। सिरमौर के कुछ गांव में आज भी यह परंपरा देखने को मिलती है। आज भी वहां के कुछ गांव अपने आप को कौरव वंशीय शाठी मानते हैं और कुछ गांव के लोग अपने आपको पांडवों के वंशज पाशी मानते हैं। शाठी और पाशी विचारधारा के लोगों की आपस में परंपरागत दुश्मनी है। पुरातन में इन दोनों में किसी भी प्रकार की रिश्तेदारी नहीं हुआ करती थी। बावजूद इसके सुख दुख के क्षणों में एक दूसरे के साथ रहते थे। लेकिन आज परिस्थितियां बदल चुकी हैं। वर्तमान में शाठी और पाशी पुरातन दुश्मनी होने के बावजूद एक दूसरे के सहयोगी बने हुए हैं इन दोनों समुदायों में आज रिश्तेदारयां भी हैं व सुख दुख में एक-दूसरे का सहयोग करते हैं। फिर भी बिशु नजदीक आने पर पुरानी रंजिश परवान पकड़ने लगती है। दोनों गांव के लोग एक दूसरे को हराने के लिए तैयारियों में जुट जाते हैं। एक वर्ष जिस गांव में बिशु मेला आयोजित किया जाता है दूसरे वर्ष उस गांव में नहीं किया जाता। दूसरे वर्ष मेले का आयोजन दूसरे गांव में किया जाता है। मेजबान गांव या कबीले का मुखिया मेला शुरू होने से पहले स्थानीय कुलदेवता की पूजा-अर्चना करता है। वह ठोडा खेलने आए लोगों का आतिथ्य तथा जीतने के लिए अपने खिलाड़ियों से मंत्रणा भी करता है। 


कौरव-पांडव युद्ध से प्रेरित ठोडा खेल नृत्य व नाट्य का मिश्रण है। वास्तव में यह तीरंदाजी का खेल है। धनुष बाजी का यह खेल पारम्परिक वाद्य यंत्रों की झंकार के साथ  नृत्यमय हो जाता है। शाठी और पाशी के बीच होने वाला यह युद्ध असल नहीं होता है। यह एक लोक कला का रूप का रूप है और नृत्य शैली में निर्वाहित होता है। स्थानीय बोली में इसे ठोडा कहते हैं। ठोडा खेलने वाले खिलाड़ियों को ठोडोरी कहा जाता है। धनुष तीर के साथ यह युद्ध नृत्य बिना रुके चलता रहता है। दर्शक उत्साह बढ़ाते रहते हैं। नगाड़े बजते रहते हैं। ढोल, दमामू , नगाड़ा आदि वाद्यों पर वीर रस प्रधान तालों का लगातार वादन किया जाता रहता है। युवक युवतियां मिलकर सामूहिक नृत्य भी मिलकर सामूहिक नृत्य भी करते हैं।
ठोडा योद्धाओं में एक दल पाशी यानी पांच पांडवों का और दूसरा दल शाठी यानी सौ कौरवों का नेतृत्व करता है। इसके लिए धनुर्धारी कमर के नीचे मोटे कपड़े, बोरी या मोटी ऊन के वस्त्र लपेटते हैं चूड़ीदार वस्त्र सूथण आदि पहनने का भी प्रचलन है। मोटे मोटे बूट पहने जाते हैं जिन्हें भैंस के चमड़े से बनाया जाता है। इन जूतों को घुटनों तक पहना जाता है। शरीर के ऊपरी भाग में अकसर सफेद रंग की कमीज या जैकेट पहनाजाता है। ठोडे में उपयोग किया जाने वाला धनुष डेढ़ से दो मीटर लंबा होता है। धनुष का निर्माण चांबा नामक एक विशेष लकड़ी से किया जाता है। तीर धनुष के अनुपात में एक से डेढ़ मीटर लम्बा होता है। तीर को स्थानीय भाषा में शरी भी कहा जाता है। इसे बांस की खोखली लकड़ी नरगली या फिरलसे बनाया जाता है। इसके एक तरफ खुले मुंह में  दस से बारह सेंटीमीटर की लकड़ी का एक टुकड़ा लगाया जाता है। यह एक तरफ से चपटा व दूसरी तरफ से पतला व तीखा होता है। चपटा जान बूझ कर रखा जाता है ताकि प्रतिद्वंदी दल के खिलाड़ी की टांग पर प्रहार के समय लगने वाली चोट ज्यादा ना हो। इसी लकड़ी के तीर को ही ठोडा कहा जाता है। इस खेल युद्ध में घुटने से नीचे तीर सफलता से लगने पर खिलाड़ी को विशेष अंक प्रदान किए जाते हैं। खेल के दौरान घुटने से ऊपर वार करना सख्त मना होता है। यदि कोई ऐसा करता है तो उसे फाउल करार दिया जाता है। इस खेल नृत्य में ठोडा नर्तक अपने चुने हुए प्रतिद्वंदी पर ही निशाना साधता है किसी दूसरे पर वार करना निषेध होता है। खेल के दौरान जिस व्यक्ति पर वार किया जाता है वह हाथ में डांगरा लिए नृत्य करते हुए वार को बेकार करने का प्रयास करता है। यदि वह वार विफल करने में सफलता प्राप्त करता है तो वह प्रतिद्वंदी का उपहास उड़ाता है तथा मस्करी करता है। खेल खेल में मनोरंजन का यह सिलसिला लगातार चलता रहता है। फिर दूसरा खिलाड़ी निशाना साधता है। कई खिलाड़ियों को चोट भी लग जाती है किन्तु ठोडा खिलाड़ी कभी भी पीठ दिखाकर नहीं भागता। लोक संगीत की मधुर धुनों के साथ खेल यूं ही चलता  रहता है तथा लगातार जोश का माहौल बना रहता है। इस खेल की समयावधि महाभारत के युद्ध के समान सूर्य डूबने तक निश्चित होती है। अगले दिन फिर से नई उमंग और उत्साह के साथ ठोडा आयोजित किया जाता है। 


वर्तमान समय में यह खेल यदा कदा ही देखने को मिलता है। ज्यादातर युवा इस परम्परागत खेल नृत्य से अनभिज्ञ हैं। गौरतलब है कि सोलन शहर के ऐतिहासिक ठोडो मैदान का नाम भी इसी प्राचीन खेल नृत्य के नाम पर पड़ा है। ठोडो मैदान में मेले अवसर पर प्रत्येक वर्ष विभिन्न दल आते हैं तथा ठोडा खेल प्रतियोगिता में भाग लेते हैं।   

इस खेल रूपी युद्ध में दोनों दल एक दूसरे पर बाणों से तेज प्रहार करते हैं। ठोडा खेल के दौरान तीर से प्रहार करने की सीमा निश्चित होती है। प्रहार केवल घुटने से नीचे लगाने का नियम होता है। घुटनों से ऊपर किया गया प्रहार धर्मयुद्ध की अवहेलना मानी जाती है। महाभारत के युद्ध के समान इस खेल युद्ध में भी यह पहले ही निर्धारित हो जाता है कि कौन सा योद्धा किस योद्धा से युद्ध करेगा। ठोडा के योद्धा तेज तर्रार बाणों के दर्द से बचने के लिए पारम्परिक वाद्य यंत्रों से दी जा रही ताल के साथ अपने पैरों को हिलाकर नृत्य करते रहते हैं। अपने विरोधी को ललकारते जोर जोर से चिल्लाते हुए स्थानीय भाषा में कहते हैं, ये लागा ठोडे रा लड़ाना। खेल के दौरान लगे तीरों के दर्द को जब तक योद्धा सह सके तब तक खेल चला रहता है। यदि दर्द के कारण कोई खिलाड़ी खेलने से मना कर दें तो उसे हारने का इनाम भी दिया जाता है। इस खेल में मैदान छोड़ कर जाना मरने से भी बद्तर माना जाता है। 

परम्पराओं को भावी पीढ़ी तक संजोकर रखना हम सभी की नैतिक जिम्मेदारी है। इस सामाजिक कर्तव्य से आज हम धीरे-धीरे दूर होते जा रहे हैं। पाश्चात्य सभ्यता की चकाचौंध में हम अपने अस्तित्व को ही धुंधला कर रहे हैं। जिला सिरमौर के गिरी पार व गिरी आर क्षेत्र तथा उपरी शिमला के कुछ क्षेत्रों के लोग बधाई के पात्र हैं जिन्होंने अभी तक इस परंपरा को बचा कर रखा है।  यहां के लोग विभिन्न त्योहारों के अवसर पर ठोडा नृत्य व खेल का आयोजन करते हैं तथा उसमें बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ सांस्कृतिक दल भी अपने निजी प्रयासों से प्रदेश के विभिन्न मंचों पर इस नृत्य का प्रदर्शन कर रहे हैं। भाषा एवं संस्कृति विभाग भी यदा कदा इन दलों को आमन्त्रित कर अन्य राज्यों व देशों में भेजता है। राज्य स्तरीय शूलिनी मेले के अवसर पर वहां के प्रसिद्ध ठोडो मैदान में ठोडा प्रतियोगिता करवाई जाती है। इस प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए विभिन्न ठोडा दलों को आमंत्रित किया जाता है तथा विजेता टीम को पुरस्कृत भी किया जाता है। ऊपरी शिमला के कुछ अन्य स्थानीय मेलों में भी ठोडा खेल की प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है।
हिमाचल प्रदेश के अन्य जिलों में भी इस तरह की परंपराएं रही हैं, लेकिन समय के साथ वह धुंधली पड़ गई हैं। सरकार को चाहिए कि इन विधाओं को संरक्षित करने के लिए कुछ सकारात्मक कदम उठाएं। लुप्त होती इन विधाओं को युवा पीढी तक पहुंचाने के लिए प्रदेश में होने वाले विभिन्न मेलों के मंचों पर इनका प्रदर्शन किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त विद्यालय या महाविद्यालय स्तर पर ठोडा तथा अन्य पारम्परिक विधाओं को पाठ्यक्रम में शामिल कर छात्रों को पढा़या जाना चाहिए। ताकि युवा पीढ़ी को भी हमारी परम्पराओं से परिचित करवाया जा सके।

नववर्ष 2025: नवीन आशाओं और संभावनाओं का स्वागत : Dr. Rajesh Chauhan

  नववर्ष 2025: नवीन आशाओं और संभावनाओं का स्वागत साल का अंत हमारे जीवन के एक अध्याय का समापन और एक नए अध्याय की शुरुआत का प्रतीक होता है। यह...