बुधवार, 5 जून 2019

अभी भी प्रचलित है महाभारतकालीन खेल नृत्य ठोडा Dr. Rajesh K Chauhan


अभी भी प्रचलित है महाभारतकालीन खेल नृत्य ठोडा     

Dr. Rajesh K Chauhan

परिवर्तन प्रकृति का नियम है और समय के साथ हमारी परंपराओं का परिवर्तित होना भी एक आम बात प्रतीत होती है।परम्परा का अर्थ उन सभी विचारों, आदतों और प्रथाओं का योग है, जो व्यक्तियों के एक समुदाय का होता है, और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होता रहता है। हमारे देश की बहुत सी आदिकालीन परंपराएं आज विलुप्त हो चुकी हैं। इसी प्रकार की प्राचीन परंपराओं में से एक है महाभारतकालीन खेल नृत्य ठोडा। आज भी हिमाचल प्रदेश के जिला सिरमौर, सोलन, शिमला, कुल्लू तथा उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों के बाशिंदों द्वारा इस नृत्य का निर्वहन किया जा रहा है। ठोडा मूल रूप से युद्ध कला से प्रेरित नृत्य है।


जनश्रुतियों के अनुसार ठोडा जिला सिरमौर की योद्धा जाति खुंद द्वारा किया जाने वाला खेल नृत्य है जिसे बिशु मेले के अवसर पर किया जाता था। यह एक प्रकार का तीरंदाजी का खेल है जिसमें दो दलों/टीमों का होना अनिवार्य होता है। एक शाठी और दूसरा  पाशी। इस खेल को कौरवों और पांडवों के बीच हुए युद्ध से जोड़ा जाता है। कौरव सौ थे उसी से नाम पड़ा शाठी तथा पांच पांडवों को पाशी कहकर संबोधित किया जाता था। सिरमौर के कुछ गांव में आज भी यह परंपरा देखने को मिलती है। आज भी वहां के कुछ गांव अपने आप को कौरव वंशीय शाठी मानते हैं और कुछ गांव के लोग अपने आपको पांडवों के वंशज पाशी मानते हैं। शाठी और पाशी विचारधारा के लोगों की आपस में परंपरागत दुश्मनी है। पुरातन में इन दोनों में किसी भी प्रकार की रिश्तेदारी नहीं हुआ करती थी। बावजूद इसके सुख दुख के क्षणों में एक दूसरे के साथ रहते थे। लेकिन आज परिस्थितियां बदल चुकी हैं। वर्तमान में शाठी और पाशी पुरातन दुश्मनी होने के बावजूद एक दूसरे के सहयोगी बने हुए हैं इन दोनों समुदायों में आज रिश्तेदारयां भी हैं व सुख दुख में एक-दूसरे का सहयोग करते हैं। फिर भी बिशु नजदीक आने पर पुरानी रंजिश परवान पकड़ने लगती है। दोनों गांव के लोग एक दूसरे को हराने के लिए तैयारियों में जुट जाते हैं। एक वर्ष जिस गांव में बिशु मेला आयोजित किया जाता है दूसरे वर्ष उस गांव में नहीं किया जाता। दूसरे वर्ष मेले का आयोजन दूसरे गांव में किया जाता है। मेजबान गांव या कबीले का मुखिया मेला शुरू होने से पहले स्थानीय कुलदेवता की पूजा-अर्चना करता है। वह ठोडा खेलने आए लोगों का आतिथ्य तथा जीतने के लिए अपने खिलाड़ियों से मंत्रणा भी करता है। 


कौरव-पांडव युद्ध से प्रेरित ठोडा खेल नृत्य व नाट्य का मिश्रण है। वास्तव में यह तीरंदाजी का खेल है। धनुष बाजी का यह खेल पारम्परिक वाद्य यंत्रों की झंकार के साथ  नृत्यमय हो जाता है। शाठी और पाशी के बीच होने वाला यह युद्ध असल नहीं होता है। यह एक लोक कला का रूप का रूप है और नृत्य शैली में निर्वाहित होता है। स्थानीय बोली में इसे ठोडा कहते हैं। ठोडा खेलने वाले खिलाड़ियों को ठोडोरी कहा जाता है। धनुष तीर के साथ यह युद्ध नृत्य बिना रुके चलता रहता है। दर्शक उत्साह बढ़ाते रहते हैं। नगाड़े बजते रहते हैं। ढोल, दमामू , नगाड़ा आदि वाद्यों पर वीर रस प्रधान तालों का लगातार वादन किया जाता रहता है। युवक युवतियां मिलकर सामूहिक नृत्य भी मिलकर सामूहिक नृत्य भी करते हैं।
ठोडा योद्धाओं में एक दल पाशी यानी पांच पांडवों का और दूसरा दल शाठी यानी सौ कौरवों का नेतृत्व करता है। इसके लिए धनुर्धारी कमर के नीचे मोटे कपड़े, बोरी या मोटी ऊन के वस्त्र लपेटते हैं चूड़ीदार वस्त्र सूथण आदि पहनने का भी प्रचलन है। मोटे मोटे बूट पहने जाते हैं जिन्हें भैंस के चमड़े से बनाया जाता है। इन जूतों को घुटनों तक पहना जाता है। शरीर के ऊपरी भाग में अकसर सफेद रंग की कमीज या जैकेट पहनाजाता है। ठोडे में उपयोग किया जाने वाला धनुष डेढ़ से दो मीटर लंबा होता है। धनुष का निर्माण चांबा नामक एक विशेष लकड़ी से किया जाता है। तीर धनुष के अनुपात में एक से डेढ़ मीटर लम्बा होता है। तीर को स्थानीय भाषा में शरी भी कहा जाता है। इसे बांस की खोखली लकड़ी नरगली या फिरलसे बनाया जाता है। इसके एक तरफ खुले मुंह में  दस से बारह सेंटीमीटर की लकड़ी का एक टुकड़ा लगाया जाता है। यह एक तरफ से चपटा व दूसरी तरफ से पतला व तीखा होता है। चपटा जान बूझ कर रखा जाता है ताकि प्रतिद्वंदी दल के खिलाड़ी की टांग पर प्रहार के समय लगने वाली चोट ज्यादा ना हो। इसी लकड़ी के तीर को ही ठोडा कहा जाता है। इस खेल युद्ध में घुटने से नीचे तीर सफलता से लगने पर खिलाड़ी को विशेष अंक प्रदान किए जाते हैं। खेल के दौरान घुटने से ऊपर वार करना सख्त मना होता है। यदि कोई ऐसा करता है तो उसे फाउल करार दिया जाता है। इस खेल नृत्य में ठोडा नर्तक अपने चुने हुए प्रतिद्वंदी पर ही निशाना साधता है किसी दूसरे पर वार करना निषेध होता है। खेल के दौरान जिस व्यक्ति पर वार किया जाता है वह हाथ में डांगरा लिए नृत्य करते हुए वार को बेकार करने का प्रयास करता है। यदि वह वार विफल करने में सफलता प्राप्त करता है तो वह प्रतिद्वंदी का उपहास उड़ाता है तथा मस्करी करता है। खेल खेल में मनोरंजन का यह सिलसिला लगातार चलता रहता है। फिर दूसरा खिलाड़ी निशाना साधता है। कई खिलाड़ियों को चोट भी लग जाती है किन्तु ठोडा खिलाड़ी कभी भी पीठ दिखाकर नहीं भागता। लोक संगीत की मधुर धुनों के साथ खेल यूं ही चलता  रहता है तथा लगातार जोश का माहौल बना रहता है। इस खेल की समयावधि महाभारत के युद्ध के समान सूर्य डूबने तक निश्चित होती है। अगले दिन फिर से नई उमंग और उत्साह के साथ ठोडा आयोजित किया जाता है। 


वर्तमान समय में यह खेल यदा कदा ही देखने को मिलता है। ज्यादातर युवा इस परम्परागत खेल नृत्य से अनभिज्ञ हैं। गौरतलब है कि सोलन शहर के ऐतिहासिक ठोडो मैदान का नाम भी इसी प्राचीन खेल नृत्य के नाम पर पड़ा है। ठोडो मैदान में मेले अवसर पर प्रत्येक वर्ष विभिन्न दल आते हैं तथा ठोडा खेल प्रतियोगिता में भाग लेते हैं।   

इस खेल रूपी युद्ध में दोनों दल एक दूसरे पर बाणों से तेज प्रहार करते हैं। ठोडा खेल के दौरान तीर से प्रहार करने की सीमा निश्चित होती है। प्रहार केवल घुटने से नीचे लगाने का नियम होता है। घुटनों से ऊपर किया गया प्रहार धर्मयुद्ध की अवहेलना मानी जाती है। महाभारत के युद्ध के समान इस खेल युद्ध में भी यह पहले ही निर्धारित हो जाता है कि कौन सा योद्धा किस योद्धा से युद्ध करेगा। ठोडा के योद्धा तेज तर्रार बाणों के दर्द से बचने के लिए पारम्परिक वाद्य यंत्रों से दी जा रही ताल के साथ अपने पैरों को हिलाकर नृत्य करते रहते हैं। अपने विरोधी को ललकारते जोर जोर से चिल्लाते हुए स्थानीय भाषा में कहते हैं, ये लागा ठोडे रा लड़ाना। खेल के दौरान लगे तीरों के दर्द को जब तक योद्धा सह सके तब तक खेल चला रहता है। यदि दर्द के कारण कोई खिलाड़ी खेलने से मना कर दें तो उसे हारने का इनाम भी दिया जाता है। इस खेल में मैदान छोड़ कर जाना मरने से भी बद्तर माना जाता है। 

परम्पराओं को भावी पीढ़ी तक संजोकर रखना हम सभी की नैतिक जिम्मेदारी है। इस सामाजिक कर्तव्य से आज हम धीरे-धीरे दूर होते जा रहे हैं। पाश्चात्य सभ्यता की चकाचौंध में हम अपने अस्तित्व को ही धुंधला कर रहे हैं। जिला सिरमौर के गिरी पार व गिरी आर क्षेत्र तथा उपरी शिमला के कुछ क्षेत्रों के लोग बधाई के पात्र हैं जिन्होंने अभी तक इस परंपरा को बचा कर रखा है।  यहां के लोग विभिन्न त्योहारों के अवसर पर ठोडा नृत्य व खेल का आयोजन करते हैं तथा उसमें बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ सांस्कृतिक दल भी अपने निजी प्रयासों से प्रदेश के विभिन्न मंचों पर इस नृत्य का प्रदर्शन कर रहे हैं। भाषा एवं संस्कृति विभाग भी यदा कदा इन दलों को आमन्त्रित कर अन्य राज्यों व देशों में भेजता है। राज्य स्तरीय शूलिनी मेले के अवसर पर वहां के प्रसिद्ध ठोडो मैदान में ठोडा प्रतियोगिता करवाई जाती है। इस प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए विभिन्न ठोडा दलों को आमंत्रित किया जाता है तथा विजेता टीम को पुरस्कृत भी किया जाता है। ऊपरी शिमला के कुछ अन्य स्थानीय मेलों में भी ठोडा खेल की प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है।
हिमाचल प्रदेश के अन्य जिलों में भी इस तरह की परंपराएं रही हैं, लेकिन समय के साथ वह धुंधली पड़ गई हैं। सरकार को चाहिए कि इन विधाओं को संरक्षित करने के लिए कुछ सकारात्मक कदम उठाएं। लुप्त होती इन विधाओं को युवा पीढी तक पहुंचाने के लिए प्रदेश में होने वाले विभिन्न मेलों के मंचों पर इनका प्रदर्शन किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त विद्यालय या महाविद्यालय स्तर पर ठोडा तथा अन्य पारम्परिक विधाओं को पाठ्यक्रम में शामिल कर छात्रों को पढा़या जाना चाहिए। ताकि युवा पीढ़ी को भी हमारी परम्पराओं से परिचित करवाया जा सके।

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