सोमवार, 25 मई 2020

मैं मजदूर हूँ... Mein Mazdoor hoon | Dr.Rajesh Chauhan

मैं मज़दूर हूँ.....
डॉ.राजेश के चौहान
मैं मज़दूर हूं, मैं मजबूर हूँ।
मैं मज़दूर हूँ, मैं मजबूर हूँ ।।

वक़्त ने है रुलाया मुझको, अपनों ने भी सताया है-२
उम्र भर की ख़ूब मेहनत, फिर भी कुछ ना पाया है।।
मैं मज़दूर हूं...

जितने मुझ पर कर सितम तू, मैं तो चलता जाऊंगा-२
सदियों से पिसता रहा हूं, आज भी मुस्काऊँगा।।
मैं मज़दूर हूं...

मंदिर, मस्ज़िद, गुरु का द्वारा, नीव मैंने डाली है-२
सबकी झोली भर दी उसने, मेरी फिर भी ख़ाली है।।
मैं मज़दूर हूं...

पेट भूखा उसमें बच्चा, दूर तक चलती रही।
बाद प्रसव के भी तो मैं बस, मीलों ही चलती रही।।
मैं मज़दूर हूं...



Dr. Rajesh K Chauhan डॉ.राजेश कुमार चौहान (१० दिसंबर १९८४) एक भारतीय लेखक, गायक, रचनाकार और गीतकार हैं। एक परिपक्व फीचर लेखक के रूप में इनकी अलग पहचान है। इनके द्वारा लिखी गई पुस्तक "संगीताभिलाषी" अमेज़न पर सर्वाधिक बिकने वाली पुस्तकों में से एक है। अनेक शोध-पत्र,आलेख और कवर स्टोरी लिख चुके डॉ.राजेश कई गीतों के रचनाकार भी हैं। वतन पे मर मिटेंगे, ज़िन्दगी की रीत, मैं मज़दूर हूँ, देवों की भूमि हिमाचल, के.वी. गान आदि इनकी विशिष्ठ रचनाएं हैं। हिमाचल प्रदेश के युवा साहित्यकारों में इनका नाम अग्रणी पंक्ति में आता है।


जीवन परिचय

डॉ.राजेश का जन्म 10 दिसम्बर 1984 को हिमाचल (लानाचेता) में हुआ। इनकी माता का नाम जयवंती चौहान और पिता का नाम नरेश चौहान है। इनका बचपन शिमला में बीता और स्कूली शिक्षा भी वहीं से सम्पन्न हुई। इन्होंने हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से संगीत विषय में पीएच.डी.की उपाधि प्राप्त की। नेट/जे.आर.एफ. उत्तीर्ण कर अनुसंधान के लिए पांच वर्षों तक यूजीसी की फेलोशिप भी प्राप्त की। हिमाचल के सुविख्यात गायक डॉ.कृष्ण लाल सहगल की आवाज़ से आकर्षित होकर स्कूली शिक्षा के बाद महाविद्यालय में इन्होंने संगीत को एक विषय के रुप में पढ़ना शुरु किया। विश्वविद्यालय में प्रवेश पाकर संगीत की शिक्षा को आगे बढ़ाया। इसी दौरान अपने साथियों के मिलकर "संगीत छात्र कल्याण संगठन हिमाचल प्रदेश" का निर्माण किया। ये कई वर्षों तक इस संगठन के अध्यक्ष भी रहे। महाविद्यालयों शैक्षणिक और संस्थानों विद्यालयोंमें संगीत शिक्षा शुरु करवाने के उद्देश्य से बनाए गए इस संगठन के माध्यम से इन्होंने अनेक बार सरकार तक अपनी बात पहुंचाने के प्रयास किए। संगीत विषय को सभी शैक्षणिक संस्थानों में शुरु करवाने के पक्ष में इन्होंने हिमाचल प्रदेश के सभी ज़िलों में हस्ताक्षर अभियान भी चलाया। संगठन की इस मुहिम के पक्ष में प्रदेश के लगभग डेढ़ लाख लोगों ने हस्ताक्षर किए। अनेक बार हिमाचल के अलग-अलग शहरों में शांतिपूर्ण ढंग से प्रर्दशन भी किए। इस सन्दर्भ में इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय, पंजाब विश्वविद्यालय, गुरुनानक देव विश्वविद्यालय अमृतसर इत्यादि में जाकर विभिन्न बैठकों का आयोजन भी किया परिणामस्वरूप हिमाचल प्रदेश के महाविद्यालयों में संगीत प्राध्यापकों के काफ़ी पद सृजित किए गए।


लेखन कार्य

डॉ.राजेश चौहान के लेखन कार्य की शुरुआत हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में हुई। पीएचडी थीसिस के साथ-साथ इन्होंने अपनी बहु-प्रचलित पुस्तक संगीताभिलाषी का लेखन कार्य भी शुरु कर दिया था। इस दौरान इन्होंने शोध-पत्र और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए लेख लिखने की शुरुआत की।


थैय्यम : एक कलात्मक परंपरा।

परंपरा से दूर होता लोक संगीत।

संगीत एक उत्तम औषधि।

समाज के शिल्पकार की बढ़ती चुनौतियां।

शान्ति के अग्रदूत थे नेल्सन मंडेला।

संस्कार विहीन युवा समाज के लिए हानिकर।

संगीत मानवता के भावों के विस्फोट के रुप में सामने आता है।

लॉकडाउन में ऑनलाइन कक्षाएं एक बड़ी चुनौती।

मैं मज़दूर हूँ, बेहद मजबूर हूँ।

नारी के अपमान से ध्वस्त हुआ था सिरमौरी ताल।

भारतीय कला और संस्कृति का सम्मान है नई शिक्षा नीति।

हाटी संस्कृति।

हर युवा हो राष्ट्र निर्माण में भागीदार।

सांडु रे मदाना च झीला रा पाणी...

मानवीय भावों की सरगम है संगीत।

संगीत को समर्पित व्यक्तित्व - प्रो.नंदलाल गर्ग।

नारी बलिदान से जनित अनुपम कृति है रुक्मणी कुंड।

अब के सावन प्रलय भारी।

व्यासपुर से बिलासपुर तक।

हिमाचली लोकसंगीत के पितामह- एस.डी.कश्यप।

विशुद्ध लोकसंगीत के संरक्षक संगीत गुरु डाॅ. कृष्ण लाल सहगल।

बमूलियन सभ्यता के खोजकर्ता मानवविज्ञानी डॉ. अनेक राम सांख्यान।

अभी भी प्रचलित है महाभारतकालीन खेल नृत्य ठोडा 

बेटियों की सुरक्षा : देश की बड़ी चिंता आदि इनके द्वारा लिखे गए महत्वपूर्ण आलेख हैं।



रविवार, 24 मई 2020

मैं मज़दूर हूँ, बेहद मजबूर हूँ

मैं मज़दूर हूँ, बेहद मजबूर हूँ...


-डॉ. राजेश के. चौहान

मैं मज़दूर हूँ, बेहद मजबूर हूँ। ये बात आज के परिप्रेक्ष्य में सोलह आना सत्य प्रतीत होती है। कोरोना के कारण उत्पन्न स्थिति में इस देश में सबसे दयनीय स्थिति मज़दूरों की ही बनी हुई है। अपने परिजनों से मीलों दूर लाखों श्रमिक दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं। दावे कुछ भी किए जा रहे हों लेकिन वास्तविकता किसी से छिपी नहीं है। 'राष्ट्र निर्माता' शब्द से अलंकृत श्रमिक वर्ग चहुंओर उपेक्षा का ही पात्र बनता दृष्टिगोचर है। उद्योग-धंधे बंद होने के कारण फैक्टरी मालिकों ने जहां अपना पल्ला झाड़ लिया है, वहीं प्रशासन भी इनके लिए ज़्यादा कुछ करने में असफल ही रहा। परिवहन की व्यवस्था न होने के कारण हजारों-लाखों श्रमिक पैदल ही सैकड़ों/हज़ारों किलोमीटर दूर अपने गांव की ओर पलायन करते दिखे। मीलों दूर अपने गांव की यात्रा कई अभागों की अंतिम यात्रा भी बनी। बावजूद इसके भी मजबूरियों का दौर थमता नज़र नहीं आ रहा है।
प्रसव पीड़ा के चलते सैंकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्रा, बच्चे को जन्म देना और फिर से लम्बी यात्रा पर तपती गर्मी में ठोकरें खाने के लिए निकल जाना किसी भी स्त्री के साहस की चरम सीमा है। मेरी नज़र में ये श्रमिक महिला भी किसी वीरांगना से कम नहीं है। इस तरह के अनेकों किस्से और कहानियां लॉकडाउन के बीच देश के हर कोने से देखने,सुनने को मिलीं। सदियों से पीड़ित, उपेक्षित, असहाय और ग़रीबी के अभिषाप से ग्रस्त मज़दूर लॉकडाउन में भी सबसे अधिक मजबूर दिखा।
कोरोना त्रासदी में देश को संम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने कई बार देश की जनता से बात की। उन्होंने समस्त उद्योगपतियों, निजी कंपनियों और अन्य संस्थाओं से अपील की थी कि, कामगारों और  कर्मचारियों  का विशेष ध्यान रखा जाए और उन्हें काम से न निकालने की बात कही। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसी स्थिति दिख नहीं रही है। सामान्य कर्मी तो दूर की बात है, कम्पनियों में ऊंचे पैकेज पर कार्यरत पूर्ण व्यवसायिक कर्मियों तक की आजीविका पर भी गंभीर संकट आ खड़ा हुआ है। बल्कि यूँ कहें कि मज़दूर ही नहीं आईटीआई से लेकर आईआईटी तक के युवाओं की नौकरी या रोज़गार खतरे में है, कई कम्पनियों में कर्मचारियों की छंटनी की रूप रेखा बन चुकी है और कई तैयार कर रही हैं।
देश के बड़े-बड़े शहरों में मेहनत करके आजीविका चला रहे लाखों कामगार अपने को असहाय समझते हुए विगत दिनों पलायन को मजबूर हैं, कुछ लॉकडाउन हटने का इंतजार कर रहे हैं और कुछ पैदल ही सैंकडों किलोमीटर की यात्रा कर अपने-अपने गाँव कस्बों की तरफ लौट रहे हैं। उद्योगों में तमाम कार्य असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों और कारीगरों द्वारा ही किया जाता है, इन लोगों ने कोरोना संकट के इस कठिन काल को जिस तरह भुगता है अथवा भुगत रहे हैं उससे लगता है कि आने वाले कुछ वर्षों में उनकी वापसी थोड़ी कठिन अवश्य होगी। इससे दो तरह की दिक्कतें स्वाभाविक रूप से होंगी एक तरफ तो बड़े शहरों में इन मजदूरों की कमी के कारण विभिन्न औद्योगिक इकाइयों को पूरी क्षमता में चला पाना मुश्किल होगा वहीं गाँवों और कस्बों में वापस लौटी मजदूरों और कामगारों की बड़ी संख्या के लिए रोजगार और आजीविका के विकल्प ढूंढना और स्थापित करना भी बड़ी चुनौती होगी। ग्रामीण क्षेत्रों में इतनी बड़ी संख्या में रोजगार मुहैया करवाना सरकार के लिए कठिन कार्य होगा।

प्रवासी श्रमिकों की घर वापसी न करवा पाना कहीं न कहीं सरकार की भी मजबूरी है। शासन-प्रशासन के लिए सिरदर्द बन चुका यह मुद्दा, चर्चा का विषय बन चुका है। इतना तय है कि इस संदर्भ मे जो भी निर्णय लिये जाएंगे उनकी आलोचना की बड़ी सरल गुंजाइश बनी ही रहेगी। देखना है कि किस प्रकार आलोचना की चिंता न करते हुये विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री व प्रधानमंत्री जी कठोर निर्णय लेते हुये इस समस्या से देश को बहार निकालते हैं या नहीं। राष्ट्रीय कार्यक्षमता की पूंजी इस श्रमिक वर्ग को घर पहुंचाने के दौड़ में यदि देश में कहीं भी कोरोना का सामुदायिक संक्रमण फैल गया तो पूरा देश भीषण संकट की चपेट में आ जाएगा। 
 भारत में लगभग बारह करोड़ प्रवासी श्रमिक हैं जो विभिन्न नगरों, महानगरों में जाकर असंगठित क्षेत्रों से कमाकर जीवन यापन करते हैं। इनके पास सुविधा के नाम पर किराये का कमरा, साइकिल,रिक्शा या मोटरसाइकिल और एक मोबाइल रहता है। मोबाइल या अन्य सामान शौक या सुविधा के लिये नहीं अपितु रोज़गार की जरूरतों को पूरा करने के लिये खरीदा जाता है। सैकड़ों किमी दूर गांवों में बसे अपने सगे संबंधियों और मित्रों से संपर्क कर अपनी मानसिक थकान भी मोबाइल पर बात कर मिट जाती है। अधिकतर मज़दूरों के बैंक में खाते भी नहीं होते हैं।  यदि खाता है भी तो बैंक बैलेंस अधिक नहीं होता है। इस हाल में महामारी से उपजे संकट, भूख, बेरोजगारी व भय की दुखद परिस्थिति में शहरों में जीवन बसर करना कठिन हो गया है, मजबूरन अपना स्थान छोड़कर गांव की ओर लौटने को मजबूर हो रहे हैं।
नेशनल सैंपल सर्वे के अनुसार लगभग पचास प्रतिशत  श्रमिक अकेले ही नगरों में काम करने हेतु आते हैं। इनकी स्त्रियां और बच्चे गांव में ही रहते हैं। बहुत ही सीमित भौतिक आवश्यकताओं में जीवन बसर करने वाले इन अकेले पुरुष मजदूरों को शहरों में केवल भोजन, रहने के लिए एक डोरमेट्री व मोबाइल रिचार्ज देकर आसानी से शहरों में रोका जा सकता है। प्रवासी मजदूरों की इस बड़ी संख्या का सत्तरह प्रतिशत आयु वर्ग तीस वर्ष से कम की आयु का है, यह आंकड़ा कहीं न कहीं सरकार के लिए राहत पहुंचाने वाला है। इन नौजवानों श्रमिकों को मूलभूत सुविधायें देकर अपने-अपने वर्तमान स्थानों पर रोककर रखा जा सकता है। इन्हें बस रेल से इनके गांव भेजना भी सुरक्षित नहीं है।  इन नौजवानों का जहां हैं वही बने रहना सामुदायिक संक्रमण को रोककर राष्ट्र की एक बड़ी मदद कर सकता है।   
         भारत में लगभग बत्तीस करोड़, साठ लाख आंतरिक माइग्रेट्स श्रमिक हैं। इनमें भी बड़ी संख्या सीजनल माइग्रेंटस की है  जो आसपास के जिलों में काम की तलाश में जाते हैं तथा शेष लगभग बारह करोड़ प्रवासी ऐसे हैं जो एक राज्य से दूसरे राज्य में मजदूरी करने जाते है। प्रवासी श्रमिकों की इस समस्या की गंभीरता को इससे भी समझा जा सकता है कि संयुक्त राष्ट्र के अंतराष्ट्रीय श्रम संगठन आई. एल. ओ. ने भी इनकी वर्तमान हालत पर चेतावनी दी है। अपनी रिपोर्ट  "कोविड-19 और वैश्विक कामकाज" में कोरोना वायरस संकट को दूसरे विश्व युद्ध के बाद सबसे भयानक त्रासदी बताया है। रिपोर्ट में कहा गया है  कि, "भारत में अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में काम करने वालों की हिस्सेदारी लगभग नब्बे प्रतिशत है, इसमें से लगभग चालीस करोड़ श्रमिकों के सामने गरीबी में फंसने का खतरा है"। श्रम संगठन की इस रिपोर्ट से स्थिति की गंभीरता आसानी से समझी जा सकती है।
एक तरफ मज़दूरों का दर्द है और दूसरी तरफ सरकार की विडंबना है, अब देखना यह है कि राष्ट्र निर्माता को राहत पहुंचाने के लिए सरकार कौन सा सकारात्मक कदम उठाती है।

-डॉ. राजेश के. चौहान
drrajeshrose@gmail.com


https://youtu.be/CO88PKTMY1Q

शनिवार, 2 मई 2020

थैय्यम : एक कलात्मक परंपरा - Dr.Rajesh K Chauhan ( Thyyam - An artistic tradition )

 थैय्यम : एक कलात्मक परंपरा

  

- डॉ.राजेश के चौहान

"गॉड्स ओन कंट्री" ध्येय वाक्य से प्रसिद्ध केरल दक्षिणात्य  राज्यों में सांस्कृतिक विविधता एवं प्राकृतिक सुंदरता के मामले में अत्यधिक समृद्ध राज्य है। यहां के लोग विरासत में मिली परंपरागत  लोक तथा शास्त्रीय शैलियों को भविष्य के लिए संजोकर रखने में विश्वास रखते हैं। भौगोलिक आधार पर केरल एक छोटा सा प्रदेश है, फिर भी यहां सात शास्त्रीय तथा लगभग पचास से अधिक लोक नृत्यों का अभ्युदय हुआ है। यहां पर परिलक्षित शास्त्रीय एवं लोक नृत्य पूर्ण रूप से विकसित हैं और वहां के स्थानीय लोगों के स्वभाव को संगीत और वेशभूषा के साथ दिखाते हैं। इन नृत्यों को लोगों के जीवन जीने के हिसाब से और लोगों के नृत्य करने के अनुसार ढाला गया है। यहां पर प्रचलित नृत्य अत्यंत मनमोहक व प्राचीन हिंदू ग्रंथों के सिद्धांतों, तकनीकों एवं कला संबद्धता पर पूर्ण या आंशिक रूप से आधारित हैं। इससे यह बात प्रमाणित हो जाती है कि यहां के निवासी कितने कला प्रेमी व प्रायोगिक विचारधारा के हैं। यहां का प्राकृतिक व सांस्कृतिक सौंदर्य दर्शनीय है। केन्द्र सरकार की सेवा के दौरान मुझे लगभग एक वर्ष छह महीने केरल में रहने तथा वहां की संस्कृति को नजदीक से जानने का अवसर प्राप्त हुआ है। उसी दौरान कासरगोड जिला के नीलेश्वर नामक स्थान पर एक मंदिर में हो रहे धार्मिक समारोह थैय्यम को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। केरल के पारंपरिक घन वाद्य पंच (चेण्डी) तथा थायम्बका की गूंज से मंदिर का प्रांगण गूंज रहा था। प्रांगण के चारों तरफ श्रद्धालुओं तथा कला प्रेमियों की भीड़ खड़ी थी। अचानक विशेष प्रकार की कलात्मक पोशाक में सुसज्जित थैय्यम कलाकार मंदिर के चारों तरफ दौड़ लगाते हुए उपस्थित जनसमूह को आशीर्वाद देने लगा तथा दैवीय शैली में लोगों को चारों दिशाओं में जाकर प्रवचन देने लगा तथा वाद्यों की थाप पर मनमोहक भाव भंगिमाओं का प्रदर्शन करने लगा। इसी बीच वह वहां लाए गए मुर्गे को उठाता है और चाकू से उसकी गर्दन अलग कर देवी को रक्त चढ़ाता है। देखते ही देखते वहां का वातावरण गंभीर तथा दिव्यता में तब्दील हो गया। मैं यह सब देखकर काफी हैरान हुआ। हृदय में अचंभित करने वाले इस नृत्यानुष्ठान के बारे में और अधिक जानने की तीक्ष्ण इच्छा उत्पन्न हुई। तत्पश्चात जिज्ञासा वश मैं कन्नूर तथा कासरगोड जिलों के कई गांव में हुए थैय्यम कार्यक्रमों में देर रात तक रुका तथा इसके बारे में जानकारी एकत्रित करने की कोशिश की।

वास्तव में थैय्यम, तैय्यम या थियम केरल प्रदेश के उत्तर मालाबार क्षेत्र का एक  प्रमुख पूजा नृत्यानुष्ठान है। यह नृत्य अनुष्ठान मुख्य रूप से केरल के कासरगोड, कन्नूर, वायनाड, कोष़िक्कोड और कर्नाटक के सीमावर्ती इलाके कोडगु और तुलुनाडु में एक पंथ या समुदाय के द्वारा हजारों वर्ष पुरानी विधाओं और विधियों के माध्यम से निष्पादित किया जा रहा है। यहां के निवासी थैय्यम कलाकार को भगवान का प्रतिरूप मानते हैं तथा उनसे संम्पन्नता  तथा आरोग्यता का आशीर्वाद लेते हैं। थैय्यम कलाकारों तथा मलयालयी लेखक श्री भवानी चीरत, राजगोपालन तथा पेपिता सेठ द्वारा लिखित किताबों से प्राप्त जानकारी के अनुसार देवाट्टम (थैय्यम), पूरवेला, कलियाट्टम आदि शैलियों को उत्तरी मालाबार क्षेत्र में स्थापित तथा प्रचारित करने का श्रेय परशुराम को जाता है। उन्होंने ही इस प्रांत के आदिवासी समुदायों को थैय्यम के निष्पादन की जिम्मेदारी सौंपी थी। इस अनुष्ठान में चढ़ावे के रूप में मांस तथा शराब आदि का प्रयोग किया जाता है इसके बावजूद भी इसे यहां के मंदिरों में अन्य सात्विक अनुष्ठानों की ही भांति बड़ी श्रद्धा से मनाया जाता है।
एक अन्य दंतकथा के अनुसार थैय्यम के उद्भावक के रूप में मनक्काडन गुरुक्कल को माना जाता है। गुरुक्कल वन्नान जाति से संबंधित एक उच्च श्रेणी के कलाकार थे। चिरक्कल प्रदेश के राजा ने एक बार उन्हें उनकी दिव्य शक्तियों की परीक्षा लेने के लिए अपनी राज्यसभा में बुलवाया। राज्य सभा की तरफ यात्रा के दौरान राजा ने उनके लिए कई रुकावटें पैदा की लेकिन गुरुक्कल प्रत्येक रुकावट को दूर कर उनकी सभा में उपस्थित हो गए। उनकी दिव्य शक्तियों से प्रभावित होकर राजा ने उन्हें कुछ देवताओं के पोशाक बनाने की जिम्मेदारी सौंप दी जिसका प्रयोग सुबह नृत्यानुष्ठान में किया जाना था। गुरुक्कल ने सूर्योदय से पहले ही 35 अलग अलग तरह की मनमोहक पोशाकें तैयार कर ली। उनसे प्रभावित होकर राजा ने उन्हें "मनक्काडन" की उपाधि से सम्मानित किया। वर्तमान में उनके द्वारा प्रचलित शैली से तैयार की गई पोशाकें ही थैय्यम कलाकारों द्वारा पहनी जाती हैं।
थैय्यम नृत्यानुष्ठान की प्रथम विधि को तोट्टम कहा जाता है। यह नृत्य साधारण सी पोशाक तथा अल्प श्रंगार के साथ मंदिर के गर्भगृह के सामने किया जाता है। इसमें कलाकार देवी या देवता के चमत्कारिक कार्यों का गान करते हुए थैय्यम के इतिहास पर आधारित जोशीला नृत्य करता है। यह गायन तथा नृत्य अत्याधिक ऊर्जावान तथा उत्साह से भरपूर होता है। तोट्टम प्रदर्शन के पश्चात थैय्यम के मुख्य प्रकार के प्रदर्शन के हेतु कलाकार विदाई ले कर चला जाता है तथा मुख्य क्रिया की तैयारी में जुट जाता है। इस  नृत्यानुष्ठान की तैयारी मुख के श्रृंगार से शुरू की जाती है। इस नृत्य के लिए मुख सज्जा करना अत्यंत कठिन कार्य होता है। पूरे चेहरे पर विभिन्न प्राकृतिक रंगों का प्रयोग करते हुए वीर रस से प्रेरित आकृतियां बनाई जाती हैं। मुख की रंगाई करते समय विभिन्न रेखाएं खींची जाती हैं। इन सभी रेखाओं का अलग-अलग मतलब तथा महत्वता होती है। मुख अलंकार तथा पोशाक कलाकार द्वारा प्रस्तुत की जा रही कहानी एवं उसके इतिहास पर निर्भर करती है। पहनी गई पोशाक से यह मालूम हो जाता है कि थैय्यम की किस शैली तथा भावों का प्रदर्शन किया जा रहा है। वर्तमान में मुच्छिलोट भगवती,  विष्णुमूर्ति, गुलिकन, कण्डाकर्णन, मुत्तप्पन,  ती चामुंडी आदि प्रकार अति जनप्रिय है। टी चामुंडी नामक थैय्यम अत्यंत कठिन एवं जोखिम भरा माना जाता है। इस का प्रस्तुतिकरण करना प्रत्येक कलाकार के लिए अत्यधिक चुनौतीपूर्ण एवं साहसिक कार्य होता है। इस प्रदर्शन के दौरान कलाकार को जलते हुए अंगारों के बीच जाकर नंगे पांव नृत्य करना होता है। इसके दौरान उसकी पोशाक जिसे नारियल के पत्तों के पतले-पतले रेशे निकालकर बनाया जाता है। इश रेशों को कलाकार की कमर में चारों तरफ अत्यंत मनमोहक अंदाज में बांध दिया जाता है। दूर से देखने पर यह सूखी धान की तरह नजर आते हैं। इस नृत्यानुष्ठान के दौरान इस पोशाक को भी आग लगा दी जाती है। कलाकार इस नृत्य के दौरान अपने हाथों में भी दो जलती हुई मशालें  पकड़कर नृत्य करता है।

थैय्यम के प्रत्येक प्रकार में कलाकार स्वयं ही अपनी पोशाक तैयार करता है। पोशाक बनाने के लिए अक्सर नारियल के पत्तों के आवरण का प्रयोग किया जाता है। आवरण को लाल, काले तथा सफेद रंगों से रंगाई कर उस पर विभिन्न प्रकार के चित्र बनाए जाते हैं। इन चित्रों से आवरणऔर भी मनभावन तथा कलात्मक नज़र आते हैं। इसी प्रकार ताज़े तालपत्रों से आंचल, नारियल  के खोखले खोलो से स्तन तथा कमर पर एक लाल रंग का कपड़ा ओढ़ लिया जाता है। सिर की सज्जा के लिए एक कलात्मक ताज भी बनाया जाता है। इस शिरो भूषण का आकार तथा सज्जा भी थैय्यम की कथा पर निर्भर करता है। ताज या शिरोभूषण पोषक का सबसे पवित्र भाग माना जाता है। इसे देवता की मूर्ति के समक्ष ही पहना जाता है। इसे पहनते वक्त पारंपरिक वाद्य यंत्रों पर वीर रस से प्रेरित धुनों के साथ कलाकार अपना प्रतिबिंब आईने में देखता है। इस दौरान कलाकार प्रतिबिंब में दैवीय शक्ति को भी महसूस करता है तथा अपने आप को उसके प्रतिरुप के रूप में प्रस्तुत करता है। तत्पश्चात कलाकार उस पोशाक में सुसज्जित होकर मंदिर के चारों तरफ दौड़ता हुआ जाता है। वह इस दौरान नृत्य की विभिन्न मुद्राओं का प्रदर्शन करता है। इस नृत्य के साथ पारंपरिक वाद्य चेण्डा का भिन्न-भिन्न लयों यथा तालों में लगातार वादन किया जाता है। वाद्य कलाकार भी पारंपरिक परिधानों में सुसज्जित होकर आते हैं। थैय्यम कलाकार उपस्थित सभी भक्तों को उनके पास जाकर आशीर्वाद देता है तथा उनकी समस्याओं का हल भी बताता है। इस नृत्य अनुष्ठान के दौरान वहां पर उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति एक आध्यात्मिक तथा अद्भुत वातावरण को महसूस करता हुआ बड़ा ही श्रद्धा से इस परम्परा को निष्पादित करता है।

डॉ.राजेश के चौहान
rajeshchauhanpops

नववर्ष 2025: नवीन आशाओं और संभावनाओं का स्वागत : Dr. Rajesh Chauhan

  नववर्ष 2025: नवीन आशाओं और संभावनाओं का स्वागत साल का अंत हमारे जीवन के एक अध्याय का समापन और एक नए अध्याय की शुरुआत का प्रतीक होता है। यह...