मैं मज़दूर हूँ, बेहद मजबूर हूँ...
-डॉ. राजेश के. चौहान
मैं मज़दूर हूँ, बेहद मजबूर हूँ। ये बात आज के परिप्रेक्ष्य में सोलह आना सत्य प्रतीत होती है। कोरोना के कारण उत्पन्न स्थिति में इस देश में सबसे दयनीय स्थिति मज़दूरों की ही बनी हुई है। अपने परिजनों से मीलों दूर लाखों श्रमिक दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं। दावे कुछ भी किए जा रहे हों लेकिन वास्तविकता किसी से छिपी नहीं है। 'राष्ट्र निर्माता' शब्द से अलंकृत श्रमिक वर्ग चहुंओर उपेक्षा का ही पात्र बनता दृष्टिगोचर है। उद्योग-धंधे बंद होने के कारण फैक्टरी मालिकों ने जहां अपना पल्ला झाड़ लिया है, वहीं प्रशासन भी इनके लिए ज़्यादा कुछ करने में असफल ही रहा। परिवहन की व्यवस्था न होने के कारण हजारों-लाखों श्रमिक पैदल ही सैकड़ों/हज़ारों किलोमीटर दूर अपने गांव की ओर पलायन करते दिखे। मीलों दूर अपने गांव की यात्रा कई अभागों की अंतिम यात्रा भी बनी। बावजूद इसके भी मजबूरियों का दौर थमता नज़र नहीं आ रहा है।
प्रसव पीड़ा के चलते सैंकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्रा, बच्चे को जन्म देना और फिर से लम्बी यात्रा पर तपती गर्मी में ठोकरें खाने के लिए निकल जाना किसी भी स्त्री के साहस की चरम सीमा है। मेरी नज़र में ये श्रमिक महिला भी किसी वीरांगना से कम नहीं है। इस तरह के अनेकों किस्से और कहानियां लॉकडाउन के बीच देश के हर कोने से देखने,सुनने को मिलीं। सदियों से पीड़ित, उपेक्षित, असहाय और ग़रीबी के अभिषाप से ग्रस्त मज़दूर लॉकडाउन में भी सबसे अधिक मजबूर दिखा।
कोरोना त्रासदी में देश को संम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने कई बार देश की जनता से बात की। उन्होंने समस्त उद्योगपतियों, निजी कंपनियों और अन्य संस्थाओं से अपील की थी कि, कामगारों और कर्मचारियों का विशेष ध्यान रखा जाए और उन्हें काम से न निकालने की बात कही। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसी स्थिति दिख नहीं रही है। सामान्य कर्मी तो दूर की बात है, कम्पनियों में ऊंचे पैकेज पर कार्यरत पूर्ण व्यवसायिक कर्मियों तक की आजीविका पर भी गंभीर संकट आ खड़ा हुआ है। बल्कि यूँ कहें कि मज़दूर ही नहीं आईटीआई से लेकर आईआईटी तक के युवाओं की नौकरी या रोज़गार खतरे में है, कई कम्पनियों में कर्मचारियों की छंटनी की रूप रेखा बन चुकी है और कई तैयार कर रही हैं।
देश के बड़े-बड़े शहरों में मेहनत करके आजीविका चला रहे लाखों कामगार अपने को असहाय समझते हुए विगत दिनों पलायन को मजबूर हैं, कुछ लॉकडाउन हटने का इंतजार कर रहे हैं और कुछ पैदल ही सैंकडों किलोमीटर की यात्रा कर अपने-अपने गाँव कस्बों की तरफ लौट रहे हैं। उद्योगों में तमाम कार्य असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों और कारीगरों द्वारा ही किया जाता है, इन लोगों ने कोरोना संकट के इस कठिन काल को जिस तरह भुगता है अथवा भुगत रहे हैं उससे लगता है कि आने वाले कुछ वर्षों में उनकी वापसी थोड़ी कठिन अवश्य होगी। इससे दो तरह की दिक्कतें स्वाभाविक रूप से होंगी एक तरफ तो बड़े शहरों में इन मजदूरों की कमी के कारण विभिन्न औद्योगिक इकाइयों को पूरी क्षमता में चला पाना मुश्किल होगा वहीं गाँवों और कस्बों में वापस लौटी मजदूरों और कामगारों की बड़ी संख्या के लिए रोजगार और आजीविका के विकल्प ढूंढना और स्थापित करना भी बड़ी चुनौती होगी। ग्रामीण क्षेत्रों में इतनी बड़ी संख्या में रोजगार मुहैया करवाना सरकार के लिए कठिन कार्य होगा।
प्रवासी श्रमिकों की घर वापसी न करवा पाना कहीं न कहीं सरकार की भी मजबूरी है। शासन-प्रशासन के लिए सिरदर्द बन चुका यह मुद्दा, चर्चा का विषय बन चुका है। इतना तय है कि इस संदर्भ मे जो भी निर्णय लिये जाएंगे उनकी आलोचना की बड़ी सरल गुंजाइश बनी ही रहेगी। देखना है कि किस प्रकार आलोचना की चिंता न करते हुये विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री व प्रधानमंत्री जी कठोर निर्णय लेते हुये इस समस्या से देश को बहार निकालते हैं या नहीं। राष्ट्रीय कार्यक्षमता की पूंजी इस श्रमिक वर्ग को घर पहुंचाने के दौड़ में यदि देश में कहीं भी कोरोना का सामुदायिक संक्रमण फैल गया तो पूरा देश भीषण संकट की चपेट में आ जाएगा।
भारत में लगभग बारह करोड़ प्रवासी श्रमिक हैं जो विभिन्न नगरों, महानगरों में जाकर असंगठित क्षेत्रों से कमाकर जीवन यापन करते हैं। इनके पास सुविधा के नाम पर किराये का कमरा, साइकिल,रिक्शा या मोटरसाइकिल और एक मोबाइल रहता है। मोबाइल या अन्य सामान शौक या सुविधा के लिये नहीं अपितु रोज़गार की जरूरतों को पूरा करने के लिये खरीदा जाता है। सैकड़ों किमी दूर गांवों में बसे अपने सगे संबंधियों और मित्रों से संपर्क कर अपनी मानसिक थकान भी मोबाइल पर बात कर मिट जाती है। अधिकतर मज़दूरों के बैंक में खाते भी नहीं होते हैं। यदि खाता है भी तो बैंक बैलेंस अधिक नहीं होता है। इस हाल में महामारी से उपजे संकट, भूख, बेरोजगारी व भय की दुखद परिस्थिति में शहरों में जीवन बसर करना कठिन हो गया है, मजबूरन अपना स्थान छोड़कर गांव की ओर लौटने को मजबूर हो रहे हैं।
-डॉ. राजेश के. चौहान
मैं मज़दूर हूँ, बेहद मजबूर हूँ। ये बात आज के परिप्रेक्ष्य में सोलह आना सत्य प्रतीत होती है। कोरोना के कारण उत्पन्न स्थिति में इस देश में सबसे दयनीय स्थिति मज़दूरों की ही बनी हुई है। अपने परिजनों से मीलों दूर लाखों श्रमिक दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं। दावे कुछ भी किए जा रहे हों लेकिन वास्तविकता किसी से छिपी नहीं है। 'राष्ट्र निर्माता' शब्द से अलंकृत श्रमिक वर्ग चहुंओर उपेक्षा का ही पात्र बनता दृष्टिगोचर है। उद्योग-धंधे बंद होने के कारण फैक्टरी मालिकों ने जहां अपना पल्ला झाड़ लिया है, वहीं प्रशासन भी इनके लिए ज़्यादा कुछ करने में असफल ही रहा। परिवहन की व्यवस्था न होने के कारण हजारों-लाखों श्रमिक पैदल ही सैकड़ों/हज़ारों किलोमीटर दूर अपने गांव की ओर पलायन करते दिखे। मीलों दूर अपने गांव की यात्रा कई अभागों की अंतिम यात्रा भी बनी। बावजूद इसके भी मजबूरियों का दौर थमता नज़र नहीं आ रहा है।
प्रसव पीड़ा के चलते सैंकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्रा, बच्चे को जन्म देना और फिर से लम्बी यात्रा पर तपती गर्मी में ठोकरें खाने के लिए निकल जाना किसी भी स्त्री के साहस की चरम सीमा है। मेरी नज़र में ये श्रमिक महिला भी किसी वीरांगना से कम नहीं है। इस तरह के अनेकों किस्से और कहानियां लॉकडाउन के बीच देश के हर कोने से देखने,सुनने को मिलीं। सदियों से पीड़ित, उपेक्षित, असहाय और ग़रीबी के अभिषाप से ग्रस्त मज़दूर लॉकडाउन में भी सबसे अधिक मजबूर दिखा।
कोरोना त्रासदी में देश को संम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने कई बार देश की जनता से बात की। उन्होंने समस्त उद्योगपतियों, निजी कंपनियों और अन्य संस्थाओं से अपील की थी कि, कामगारों और कर्मचारियों का विशेष ध्यान रखा जाए और उन्हें काम से न निकालने की बात कही। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसी स्थिति दिख नहीं रही है। सामान्य कर्मी तो दूर की बात है, कम्पनियों में ऊंचे पैकेज पर कार्यरत पूर्ण व्यवसायिक कर्मियों तक की आजीविका पर भी गंभीर संकट आ खड़ा हुआ है। बल्कि यूँ कहें कि मज़दूर ही नहीं आईटीआई से लेकर आईआईटी तक के युवाओं की नौकरी या रोज़गार खतरे में है, कई कम्पनियों में कर्मचारियों की छंटनी की रूप रेखा बन चुकी है और कई तैयार कर रही हैं।
देश के बड़े-बड़े शहरों में मेहनत करके आजीविका चला रहे लाखों कामगार अपने को असहाय समझते हुए विगत दिनों पलायन को मजबूर हैं, कुछ लॉकडाउन हटने का इंतजार कर रहे हैं और कुछ पैदल ही सैंकडों किलोमीटर की यात्रा कर अपने-अपने गाँव कस्बों की तरफ लौट रहे हैं। उद्योगों में तमाम कार्य असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों और कारीगरों द्वारा ही किया जाता है, इन लोगों ने कोरोना संकट के इस कठिन काल को जिस तरह भुगता है अथवा भुगत रहे हैं उससे लगता है कि आने वाले कुछ वर्षों में उनकी वापसी थोड़ी कठिन अवश्य होगी। इससे दो तरह की दिक्कतें स्वाभाविक रूप से होंगी एक तरफ तो बड़े शहरों में इन मजदूरों की कमी के कारण विभिन्न औद्योगिक इकाइयों को पूरी क्षमता में चला पाना मुश्किल होगा वहीं गाँवों और कस्बों में वापस लौटी मजदूरों और कामगारों की बड़ी संख्या के लिए रोजगार और आजीविका के विकल्प ढूंढना और स्थापित करना भी बड़ी चुनौती होगी। ग्रामीण क्षेत्रों में इतनी बड़ी संख्या में रोजगार मुहैया करवाना सरकार के लिए कठिन कार्य होगा।
प्रवासी श्रमिकों की घर वापसी न करवा पाना कहीं न कहीं सरकार की भी मजबूरी है। शासन-प्रशासन के लिए सिरदर्द बन चुका यह मुद्दा, चर्चा का विषय बन चुका है। इतना तय है कि इस संदर्भ मे जो भी निर्णय लिये जाएंगे उनकी आलोचना की बड़ी सरल गुंजाइश बनी ही रहेगी। देखना है कि किस प्रकार आलोचना की चिंता न करते हुये विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री व प्रधानमंत्री जी कठोर निर्णय लेते हुये इस समस्या से देश को बहार निकालते हैं या नहीं। राष्ट्रीय कार्यक्षमता की पूंजी इस श्रमिक वर्ग को घर पहुंचाने के दौड़ में यदि देश में कहीं भी कोरोना का सामुदायिक संक्रमण फैल गया तो पूरा देश भीषण संकट की चपेट में आ जाएगा।
भारत में लगभग बारह करोड़ प्रवासी श्रमिक हैं जो विभिन्न नगरों, महानगरों में जाकर असंगठित क्षेत्रों से कमाकर जीवन यापन करते हैं। इनके पास सुविधा के नाम पर किराये का कमरा, साइकिल,रिक्शा या मोटरसाइकिल और एक मोबाइल रहता है। मोबाइल या अन्य सामान शौक या सुविधा के लिये नहीं अपितु रोज़गार की जरूरतों को पूरा करने के लिये खरीदा जाता है। सैकड़ों किमी दूर गांवों में बसे अपने सगे संबंधियों और मित्रों से संपर्क कर अपनी मानसिक थकान भी मोबाइल पर बात कर मिट जाती है। अधिकतर मज़दूरों के बैंक में खाते भी नहीं होते हैं। यदि खाता है भी तो बैंक बैलेंस अधिक नहीं होता है। इस हाल में महामारी से उपजे संकट, भूख, बेरोजगारी व भय की दुखद परिस्थिति में शहरों में जीवन बसर करना कठिन हो गया है, मजबूरन अपना स्थान छोड़कर गांव की ओर लौटने को मजबूर हो रहे हैं।
नेशनल सैंपल सर्वे के अनुसार लगभग पचास प्रतिशत श्रमिक अकेले ही नगरों में काम करने हेतु आते हैं। इनकी स्त्रियां और बच्चे गांव में ही रहते हैं। बहुत ही सीमित भौतिक आवश्यकताओं में जीवन बसर करने वाले इन अकेले पुरुष मजदूरों को शहरों में केवल भोजन, रहने के लिए एक डोरमेट्री व मोबाइल रिचार्ज देकर आसानी से शहरों में रोका जा सकता है। प्रवासी मजदूरों की इस बड़ी संख्या का सत्तरह प्रतिशत आयु वर्ग तीस वर्ष से कम की आयु का है, यह आंकड़ा कहीं न कहीं सरकार के लिए राहत पहुंचाने वाला है। इन नौजवानों श्रमिकों को मूलभूत सुविधायें देकर अपने-अपने वर्तमान स्थानों पर रोककर रखा जा सकता है। इन्हें बस रेल से इनके गांव भेजना भी सुरक्षित नहीं है। इन नौजवानों का जहां हैं वही बने रहना सामुदायिक संक्रमण को रोककर राष्ट्र की एक बड़ी मदद कर सकता है।
भारत में लगभग बत्तीस करोड़, साठ लाख आंतरिक माइग्रेट्स श्रमिक हैं। इनमें भी बड़ी संख्या सीजनल माइग्रेंटस की है जो आसपास के जिलों में काम की तलाश में जाते हैं तथा शेष लगभग बारह करोड़ प्रवासी ऐसे हैं जो एक राज्य से दूसरे राज्य में मजदूरी करने जाते है। प्रवासी श्रमिकों की इस समस्या की गंभीरता को इससे भी समझा जा सकता है कि संयुक्त राष्ट्र के अंतराष्ट्रीय श्रम संगठन आई. एल. ओ. ने भी इनकी वर्तमान हालत पर चेतावनी दी है। अपनी रिपोर्ट "कोविड-19 और वैश्विक कामकाज" में कोरोना वायरस संकट को दूसरे विश्व युद्ध के बाद सबसे भयानक त्रासदी बताया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि, "भारत में अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में काम करने वालों की हिस्सेदारी लगभग नब्बे प्रतिशत है, इसमें से लगभग चालीस करोड़ श्रमिकों के सामने गरीबी में फंसने का खतरा है"। श्रम संगठन की इस रिपोर्ट से स्थिति की गंभीरता आसानी से समझी जा सकती है।
एक तरफ मज़दूरों का दर्द है और दूसरी तरफ सरकार की विडंबना है, अब देखना यह है कि राष्ट्र निर्माता को राहत पहुंचाने के लिए सरकार कौन सा सकारात्मक कदम उठाती है।
-डॉ. राजेश के. चौहान
drrajeshrose@gmail.com
एक तरफ मज़दूरों का दर्द है और दूसरी तरफ सरकार की विडंबना है, अब देखना यह है कि राष्ट्र निर्माता को राहत पहुंचाने के लिए सरकार कौन सा सकारात्मक कदम उठाती है।
-डॉ. राजेश के. चौहान
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https://youtu.be/CO88PKTMY1Q
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