मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023

हिमाचल गौरव डाॅ.कृष्ण लाल सहगल को समर्पित, "बांका मुल्का हिमाचला।" By Dr.Rajesh K Chauhan

 हिमाचल गौरव डाॅ.कृष्ण लाल सहगल को समर्पित,"बांका मुल्का हिमाचला।"


डॉ.राजेेेश चौहान  

हिमाचल गौरव, संगीत शिरोमणी, हिमालय शिरोमणी आदि अनेक सम्मानों से विभूषित डाॅ.कृष्ण लाल सहगल को हिमाचली लोक संगीत का भीष्म पितामाह कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। इन्होंने जिस भी गीत को अपनी आवाज़ दी वह प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचा। इनका जन्म 3 अक्टूबर 1949 को पिता गंगाराम और माता राम देवी के घर गांव भुईरा (राजगढ़) ज़िला सिरमौर में हुआ। बाल्यकाल से संगीत के प्रति अपरिमित रुचि होने के कारण ये विद्यालय में आयोजित होने वाली बाल सभाओं में गीत गाया करते थे। बचपन से ही इनकी आवाज़ में इतना माधुर्य था कि इनके गीत सुनकर विद्यालय के अध्यापक जीवन सिंह वर्मा, प्रेम सिंह ठाकुर और हैडमास्टर प्रेमनाथ दस्सन ने इनको पार्श्व गायक कुंदन लाल सहगल के नाम से मेल खाता उपनाम 'सहगल' दे दिया जो इनके नाम के साथ ताउम्र जुड़ा। पारिवारिक कारणों से इन्हें अपनी स्कूल की पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी और पिता के कहने पर अपना पुश्तैनी व्यवसाय अपना लिया। अत्यधिक व्यस्तताओं के बावजूद भी पढ़ाई प्राइवेट छात्र के रुप में जारी रखी। आर्थिक परिस्थितियों के सामने पढ़ाई पूरी करना बड़ी चुनौती था। सुबह 7 किलोमीटर पैदल चलकर राजगढ़ दुकान पहुंचना और रात को पैदल ही वापस घर लौटना दिनचर्या बन गई थी। रास्ते में आते-जाते किताबें पढ़ना आदत और गांव में बिजली न होने के कारण मिट्टी के तेल का दिया जला कर आधी रात तक पढ़ाई करना मजबूरी बन गया था। फिर भी ये अडिग डटे रहे और स्नातक की डिग्री प्राप्त की। इन्होंने सन् 1971 में सिरमौरी लोक गीतों की स्वर परीक्षा आकाशवाणी शिमला से पास की। वहीं से इनकी प्रसिद्धि का दौर शुरू हुआ। 

लोक संगीत की ही भांति शास्त्रीय संगीत और सुगम संगीत में भी इनकी बहुत अच्छी पकड़ है। किसी भी गीत को हू-ब-हू स्वर लिपिबद्ध करने में इनको महारथ हासिल है। शास्त्रीय संगीत की विधिवत शिक्षा इन्होंने प्रोफे़सर अनंत राम चौधरी से प्राप्त की। प्रो. चौधरी के कुशल मार्गदर्शन में इन्होंने संगीत विशारद (गायन तथा तबला वादन) तथा 'संगीत प्रवीण' प्रयाग संगीत समिति इलाहाबाद से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। आकाशवाणी शिमला से सुगम संगीत (गीत ग़ज़ल, भजन) की स्वर परीक्षा भी उत्तीर्ण की। 1980 में केंद्रीय विद्यालय संगठन में संगीत अध्यापक के रूप में इन्होंने सरकारी नौकरी की शुरुआत की। सरकारी सेवा के दौरान भी पढ़ाई जारी रखी और हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से एम.ए., एम.फिल. तथा पीएच.डी. की डिग्री हासिल की। गौरतलब है कि प्राथमिक शिक्षा के अतिरिक्त इनकी सारी पढ़ाई प्राइवेट छात्र के रूप में संपन्न हुई है। 

सन् 1989 में इनकी नियुक्ति महाविद्यालय में संगीत प्राध्यापक (गायन) के पद पर हुई। इन्होंने हिमाचल प्रदेश के विभिन्न महाविद्यालयों में अपनी सेवाएं दी। विद्यार्थियों के प्रति इनके समर्पण, विशेष लगाव और स्नेह के कारण विद्यार्थी इन्हें अत्यधिक प्रेम करते हैं। इनके बहुत से शिष्य आज विद्यालय, महाविद्यालय स्तर पर संगीत शिक्षण का कार्य कर रहे हैं। कुछ शिष्य आकाशवाणी, दूरदर्शन, बाॅलीवुड एवं विभिन्न मंचों के माध्यम से ख़्याति अर्जित कर रहे हैं। 


इन्होंने अपनी सांगीतिक यात्रा के दौरान अनेक उपलब्धियां हासिल की हैं। शिमला, धर्मशाला, जम्मू-कश्मीर, जालंधर आदि आकाशवाणी केंद्रों से इन्होंने अपने सफल कार्यक्रम प्रस्तुत किए हैं। ये आकाशवाणी शिमला के प्रथम व्यक्ति हैं जिन्हें वर्ष 1987 में म्यूज़िक ऑडिशन बोर्ड दिल्ली भारत सरकार द्वारा ग़ज़ल गायन में "बी. हाई" ग्रेड प्राप्त हुआ। वर्ष 1992 में इन्होंने भाषा एवं कला संस्कृति अकादमी, शिमला के सौजन्य से 'इंडिया टुडे' कंपनी द्वारा दो ऑडियो कैसेट में हिमाचली गीतों की रिकॉर्डिंग में महत्वपूर्ण योगदान दिया। 1996 में मुंबई में आप के संगीत निर्देशन में भजन सम्राट 'अनूप जलोटा' की आवाज़ में दो हिमाचली लोक गीतों को रिकॉर्ड करवाया गया। भारत की सर्वश्रेष्ठ म्यूजिक कंपनी टी. सीरीज से हिमाचल के शक्तिपीठों पर आधारित इनके दो ऑडियो एल्बम 'जैकारे मां रे द्वारे' तथा 'मां की महिमा' रिलीज़ हुए हैं। हिमाचली लोकगीतों की ऑडियो कैसेट में लोक माधुरी, लोक रंजनी, स्वरांजलि, मेरी जानी रा बसेरा और नाटी रा फेरा इनकी मशहूर कैसेट्स हैं। इनकी ग़ज़ल एल्बम 'तलाश' और 'इत्तिफा़क़' को भी जनता ने ख़ूब पसंद किया। 

गायक के साथ डाॅ.सहगल अच्छे लेखक भी हैं। इन्होंने अनेक गीतों, ग़ज़लों और भजनों के रचना की है। इनके कई शोध-पत्र व आलेख भाषा कला संस्कृति अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका सोमसी, हिमाचल सरकार की प्रतिष्ठित पत्रिका हिमप्रस्थ एवं संगीत कार्यालय हाथरस, उत्तर प्रदेश की 'संगीत' मासिक पत्रिका में  प्रकाशित हुए हैं। इनके द्वारा लिखित पुस्तक 'गीत मेरी माटी रे' प्रकाशित हो चुकी है तथा 'हिमाचली लोक सर्वर माधुरी' प्रकाशनाधीन है। हिमाचली लोकगीतों की विविध गान-शैलियों और लोक वाद्य यंत्रों पर बजाए जाने वाले तालों पर इनका अध्ययन अनवरत चला हुआ है।

इन्हें वैद्य सूरत सिंह जयंती अलंकरण समारोह में 'कर्मवीर' सम्मान, आकाशवाणी द्वारा आकाशवाणी सम्मान, संचेतना संस्था द्वारा विशिष्ट सम्मान, उदय फोरम द्वारा विशिष्ट सम्मान, शंखनाद संस्था द्वारा विशिष्ट सम्मान, भाषा कला संस्कृति अकादमी के तत्वावधान में साहित्य एवं कला मंच द्वारा 'संगीत शिरोमणी', फ़िल्म कम्पनी दिल्ली द्वारा 'लाइफ़ टाइम एचीवमेंट' पुरस्कार और हिमाचल सरकार द्वारा 'हिमाचल गौरव' आदि पुरस्कारों  से सम्मानित किया जा चुका है। 

ऐसी महान विभूति को समर्पित समारोह था "बांका मुल्का हिमाचला।" जिसका आयोजन गेयटी थियेटर शिमला में किया गया था। इस कार्यक्रम में डाॅ.कृष्ण लाल सहगल को 'हिमालय शिरोमणी' पुरस्कार से सम्मानित किया गया। विख़्यात साहित्यकार एस.आर.हरनोट की परिकल्पना "बांका मुल्का हिमाचला" कार्यक्रम अपने आप में एक नई शुरुआत है। शायद ही इससे पूर्व हिमाचल प्रदेश के किसी भी मंच पर इस तरह का आयोजन हुआ हो। पारंपरिक वाद्य यंत्र, पारंपरिक परिधान, हिमाचल प्रदेश के बारह ज़िलों की लोक संस्कृति की झलक, कभी गुरु की तान में तान मिलाते शिष्य तो कभी शागिर्दों के सुरों को साज़ से संवारते गुरुजी। ऐसी सुरमयी सांझ का साक्षी बना शिमला का ऐतिहासिक गेयटी थियेटर। शायद ही विशुद्ध लोक संस्कृति के संदर्भ में गुरु शिष्य परम्परा का इतना सुंदर मंचन हिमाचल के किसी अन्य मंच पर इससे पूर्व हुआ हो।



25 दिसंबर 2022 रविवार के दिन हिमालय साहित्य एवं संस्कृति मंच, शिमला और आईडीबीआई बैंक, शिमला के संयुक्त संयोजन से हिमाचल प्रदेश के सुविख़्यात लोक गायक डॉ.कृष्ण लाल सहगल के पारंपरिक लोक गीतों के उत्सव का आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम का शीर्षक डॉ.सहगल के एक प्रसिद्ध लोकगीत के नाम पर "बांका मुल्का हिमाचला" रखा गया। इस अभूतपूर्व आयोजन में डॉ. सहगल तथा उनके बीस शागिर्दों ने हिमाचल प्रदेश पारंपरिक वाद्यों के साथ लोक संस्कृति की प्रस्तुतियां दीं। कार्यक्रम की शुरूआत डाॅ. कृष्ण लाल सहगल द्वारा हिमाचली बोली में रचित सरस्वती वंदना से हुई जिसे उन्होंने अपने शिष्यों के साथ मिलकर प्रस्तुत किया। इसके उपरांत डॉ.सविता सहगल ने राग कलावती का सुंदर प्रस्तुतिकरण किया। इसके बाद सभी प्रस्तुतियां पारंपरिक लोक वाद्यों एवं पारम्परिक वेश-भूषा में मंचित हुईं। सूरजमणी की शहनाई के तार जहां हृदय स्पर्शी थे वहीं रमेश धीमान के नगाड़े से उत्पन्न तालाक्षर थिरकने पर मजबूर कर रहे थे। लोकगीतों पर बांसुरी की मीठी-मीठी स्वरलहरियां पहाड़ी लोक संस्कृति की गौरवगाथा का बख़ान करती प्रतीत हो रही थी। इस उत्सव में हिमाचल के लगभग सभी ज़िलों के लोकगीतों की गूंज सुनाई दी।  रेणुका माईए, राजा भर्तृहरि की गाथा, काल़ा बाशा कौऊआ, बुधुआ, बसोआ, हवा टीरो री, मोहणा आदि  लोकगीतों से सभागार मंत्रमुग्ध हो उठा। डॉ.सहगल की स्वरचित रचनाओं और पारंपरिक लोक गीतों की अनवरत लड़ी ने मानों समय की चाल को भी ठहरने पर मजबूर कर दिया हो। मख़मली सधी हुई मनमोहक आवाज़ के जादूगर ने सुरों की ऐसी तान छेड़ी कि श्रोतागण कार्यक्रम समाप्त होने के बाद भी गेयटी के ऐतिहासिक सभागार को छोड़ने का मन नहीं बना पा रहे थे। एक मंच पर एक ही गुरु परंपरा से जनित स्वर, लय, ताल का ऐसा सुरम्य संयोजन वास्तव में ही  परमानंद की अनुभूति था। 


इस तरह के कार्यक्रमों से जहां कला साधकों को मान-सम्मान मिलता है वहीं दूसरी तरफ़ हमारी सुप्राचीन लोक संस्कृति का संरक्षण एवं संवर्धन भी होता है। युवा पीढ़ी तक विशुद्ध लोक संगीत का प्रचार-प्रसार ऐसे ही आयोजनों के माध्यम से हो सकता है। पाश्चात्यीकरण की दौड़ में अपनी परंपराओं को बचाकर रखना एक बड़ी चुनौती है। पश्चिमी सभ्यता की ओर आकर्षित भारतीय समाज को अपनी संस्कृति के चमत्कारिक पहलुओं से परिचित करवाना अतिआवश्यक है। डॉ.कृष्ण लाल सहगल जैसे गुणवान कला साधकों के माध्यम से हम पूर्वजों से मिली विरासत को बड़ी ही सरलता से युवा पीढ़ी तक पहुंचा सकते हैं। सरकारी तथा गैर-सरकारी संस्थाएं इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। हिमालय साहित्य एवं संस्कृति मंच के अध्यक्ष एस.आर.हरनोट की पहल को एक जन-जागरण अभियान के रुप में आने बढ़ाया जाना चाहिए। 

सोमवार, 20 फ़रवरी 2023

नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जीवन चरित्र से प्रेरणा लें युवा - Dr.Rajesh K Chauhan

नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जीवन चरित्र से प्रेरणा लें युवा







                                                                                                डाॅ.राजेश के चौहान, न्यू शिमला

"तुम मुझे ख़ून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा" इस नारे से करोड़ों युवाओं के हृदय में व़तनपरस्ती की अग्निशिखा जगाने वाले भारत माता के वीर सपूत सुभाष चंद्र बोस सदैव युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणास्रोत रहेंगे। हज़ारों खो रहे थे आज़ादी की उस लड़ाई में पर फिर भी ना जज़्बे में कमी थी ना साहस में, मातृभूमि से मोहब्बत के अलिंगन में एक ऐसी सुखद अनुभूति थी, जहां हर दर्द दूर हो जाता और हर ज़ख़्म भी भर जाता था। ऐसा था देश के सच्चे बेटे, आज़ाद हिन्द फ़ौज का नेतृत्व करने वाले, भारत ही नही अपितु विदेशी भूमि से भी भारत की आज़ादी का उदघोष करने वाले, हम सभी के प्रिय नेताजी का विराट व्यक्तित्व।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी, सन 1897 ई. में उड़ीसा के कटक नामक स्थान पर हुआ था। वे 6 बहनों और 8 भाइयों के परिवार में नौवीं संतान और पाँचवें बेटे थे। अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरदचंद्र से था। वे उनसे सदैव ही अपने अनसुलझे प्रश्न व अनौपचारिक संवाद करते रहते थे। शरद बाबू प्रभावती और जानकीनाथ के दूसरे बेटे थे, नेता जी उन्हें 'मेजदा' कहते थे।

बोस का हृदय बाल्यकाल से ही अंग्रेज़ों द्वारा भारतीयों के साथ किए जा रहे अत्याचार देखकर द्रवित रहता था। उन्होंने इस भेदभावपूर्ण व्यवहार को देखकर एक बार अपने भाई से पूछा- "दादा हमें कक्षा में आगे की सीटों पर क्यों बैठने नहीं दिया जाता है?" नेताजी हमेशा जो भी कहा करते थे, पूरे आत्मविश्वास से कहते थे। स्कूल में अंग्रेज़ अध्यापक भी सुभाष द्वारा अर्जित अंक देखकर हैरान रह जाते थे, उनकी बुद्धिमत्ता व सृजनात्मक सोच सभी को चकित करती थी।




अपनी कक्षा में सबसे अधिक अंक अर्जित करने पर भी जब छात्रवृत्ति उस अंग्रेज़ छात्र को दी गई जिसके अंक उनसे कम थे तो वे उखड़ गए और उन्होंने वह मिशनरी स्कूल छोड़ दिया। कुशाग्र बुद्धि के धनी सुभाष छात्र जीवन से ही अरविन्द घोष और स्वामी विवेकानंद जैसे महान विचारकों से प्रभावित हो चुके थे, जिसके चलते उन्होंने उनके दर्शनशास्त्रों का गहन अध्ययन किया।

मिशनरी स्कूल छोड़ने के बाद उनसे अरविंद घोष ने कहा कि,"हम में से प्रत्येक भारतीय को डायनमो जैसा बनना चाहिए, जिससे कि हममें से यदि एक भी व्यक्ति खड़ा हो जाए तो हमारे आस-पास हज़ारों व्यक्ति प्रकाशवान हो जाएं।" उस दिन से अरविन्द जी के ये शब्द सुभाष बाबू के मस्तिष्क में हमेशा गूंजा करते थे। उनके प्रेरणादायी शब्दों का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा।

काॅलेज की पढ़ाई के दौरान देशभक्ति एवं क्रांतिकारी विचारों के चलते उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज के एक अंग्रेज़ प्रोफे़सर की सबके सामने पिटाई कर डाली, जिसके कारण उन्हें कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया। इसके बाद उन्होंने स्कॉटिश चर्च कॉलेज में दाखिला लिया और दर्शनशास्त्र से स्नातकोत्तर परीक्षा उत्तीर्ण की। उनके पिता की हार्दिक इच्छा थी कि उनका बेटा आई.सी.एस. (इंडियन सिविल सर्विस) अधिकारी बने। पिता का मान रखने के लिए आई.सी.एस. बनना स्वीकार किया। इसके लिए सुभाष चन्द्र बोस ने इंग्लैण्ड के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में दाखिला लिया और वर्ष 1920 में उन्होंने अपनी अथक मेहनत के बलबूते, न केवल अच्छे अंकों के साथ चौथा स्थान हासिल करते हुए उत्तीर्ण की। हालांकि सुभाष चन्द्र बोस अपनी अनूठी प्रतिभा के बल पर भारतीय प्रशासनिक सेवा में तो आ गए थे, लेकिन उनका मन बेहद व्यथित और बैचेन था। उनके हृदय में देश की आजादी के लिए क्रांतिकारी आक्रोश का समुद्री ज्वार आकाश को छू रहा था। अंतत: उन्होंने मात्र एक वर्ष बाद ही, 24 वर्ष की उम्र में मई, 1921 में भारतीय प्रशासनिक सेवा को राष्ट्रहित में त्याग दिया और राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलनों में सक्रिय हो गये। आज़ादी की ख़ातिर उच्च नौकरी त्यागने पर सारा देश हैरान रह गया। उन्हें अनेक प्रभावशाली व्यक्तियों द्वारा समझाते हुए कहा गया- तुम जानते भी हो कि तुम लाखों भारतीयों के सरताज़ गए हो, हज़ारों देशवासी तुम्हें नमन करेंगे। तब सुभाष चंद्र बोस ने कहा था- मैं लोगों पर नहीं उनके मनों पर राज करना चाहता हूँ। उनका हृदय सम्राट बनना चाहता हूँ। भारत की सामाजिक दशा पर उनके समकालीन विचार आज भी बड़े मूल्यवान हैं, उनका मानना था कि हमारी सामाजिक स्थिति बद्तर है, जाति-पाति तो है ही, ग़रीब और अमीर की खाई भी समाज को बाँटे हुए है। अनपढ़ता राष्ट्र के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है। इसे दूर करने के लिए संयुक्त प्रयासों की आवश्यकता है। सुभाष जब देश आज़ाद करवाने चले , तो पूरे राष्ट्र को अपने साथ लेकर चल पड़े। गाँधी जी ने  सुभाष को देश को समझने और जानने को कहा। उनका अनुसरण कर वे देश के हर कोने में घूमें और देश को क़रीब से जाना। उन्होंने कांग्रेस के एक अधिवेशन में कहा- "मैं अंग्रेज़ों को देश से निकालना चाहता हूँ। मैं अहिंसा में विश्वास रखता हूँ, किन्तु इस रास्ते पर चलकर स्वतंत्रता काफ़ी देर से मिलने की आशा है।"

उस दौर में सुभाष चंद्र बोस भारतीयता की पहचान ही बन गए थे। हिंदुस्तान के युवा आज भी उनसे सर्वाधिक प्रेरणा लेते हैं। सुभाष भारत की एक ऐसी अमूल्य निधि थे जिन्होंने देश को 'जय हिन्द' का नारा दिया। उन्होंने कहा था कि- "स्वतंत्रता बलिदान चाहती है। आपने आज़ादी के लिए बहुत त्याग किया है, किन्तु अभी प्राणों की आहुति देना शेष है। आज़ादी को आज अपने शीश फूल चढ़ा देने वाले पागल पुजारियों की आवश्यकता है। ऐसे नौजवानों की आवश्यकता है, जो अपना सिर काट कर स्वाधीनता देवी को भेट चढ़ा सकें। तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा। उन्होंने आईएनए को 'दिल्ली चलो' का नारा भी दिया। उनके नारों का अनुसरण करते हुए नौजवानों ने स्वतंत्रता संग्राम में अपना सर्वस्व बलिदान दिया। 

सुभाष चंद्र बोस के जीवन के अनेक पहलू हमें सामाजिक जीवन में एक नई ऊर्जा प्रदान करते हैं। नेताजी एक सफल संगठनकर्ता भी थे। उनका वक्तव्य हर किसी को प्रभावित करने वाला था। उन्होंने देश से बाहर रहकर भी 'स्वतंत्रता आंदोलन' तेज किया।मतभेद होने के बावज़ूद भी वे दूसरे स्वतंत्रता सैनानियों का मान सम्मान करते थे।

21 अक्टूबर, 1943 को उन्होंने आज़ाद हिन्द फ़ौज अर्थात स्वतंत्र भारत की एक सरकार का भी गठन किया था। इस सरकार को जर्मनी, जापान, फिलीपींस, कोरिया, इटली, मानसूकू और आयरलैंड आदि देशो ने मान्यता प्रदान की थी। इस सरकार का अपना बैंक, डाक टिकट और झंडा भी था। इस सरकार ने अपने नागरिकों के मध्य आपसी अभिवादन के समय 'जय हिंद' कहने का निर्णय भी लिया था।

स्वाधीनता के संग्राम में देश के तमाम क्रांतिकारियों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस का व्यक्तित्व जितना रहस्यमयी था उतना ही प्रेरणादायक व अनुप्राणित करने वाला था। अंग्रेज़ी हुक़ूमत के चंगुल से देश को स्वतंत्र कराने के लिए नेताजी के त्याग और बलिदान की गाथाएं सुनकर आज भी बहुत से युवा उन्हें अपना आदर्श मानते हैं। नेताजी का व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर देश-विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में शोध हुए हैं। उनके प्रेरणादायी जीवन चरित्र का अनुसरण कर आज की युवा पीढ़ी अनुशासन, राष्ट्रभक्ति, निर्भयता, नेतृत्व, आत्मचिंतन और कठिन परिश्रम आदि गुणों को आत्मसात कर सकते हैं। 

नववर्ष 2025: नवीन आशाओं और संभावनाओं का स्वागत : Dr. Rajesh Chauhan

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