नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जीवन चरित्र से प्रेरणा लें युवा
डाॅ.राजेश के चौहान, न्यू शिमला
"तुम मुझे ख़ून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा" इस नारे से करोड़ों युवाओं के हृदय में व़तनपरस्ती की अग्निशिखा जगाने वाले भारत माता के वीर सपूत सुभाष चंद्र बोस सदैव युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणास्रोत रहेंगे। हज़ारों खो रहे थे आज़ादी की उस लड़ाई में पर फिर भी ना जज़्बे में कमी थी ना साहस में, मातृभूमि से मोहब्बत के अलिंगन में एक ऐसी सुखद अनुभूति थी, जहां हर दर्द दूर हो जाता और हर ज़ख़्म भी भर जाता था। ऐसा था देश के सच्चे बेटे, आज़ाद हिन्द फ़ौज का नेतृत्व करने वाले, भारत ही नही अपितु विदेशी भूमि से भी भारत की आज़ादी का उदघोष करने वाले, हम सभी के प्रिय नेताजी का विराट व्यक्तित्व।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी, सन 1897 ई. में उड़ीसा के कटक नामक स्थान पर हुआ था। वे 6 बहनों और 8 भाइयों के परिवार में नौवीं संतान और पाँचवें बेटे थे। अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरदचंद्र से था। वे उनसे सदैव ही अपने अनसुलझे प्रश्न व अनौपचारिक संवाद करते रहते थे। शरद बाबू प्रभावती और जानकीनाथ के दूसरे बेटे थे, नेता जी उन्हें 'मेजदा' कहते थे।
बोस का हृदय बाल्यकाल से ही अंग्रेज़ों द्वारा भारतीयों के साथ किए जा रहे अत्याचार देखकर द्रवित रहता था। उन्होंने इस भेदभावपूर्ण व्यवहार को देखकर एक बार अपने भाई से पूछा- "दादा हमें कक्षा में आगे की सीटों पर क्यों बैठने नहीं दिया जाता है?" नेताजी हमेशा जो भी कहा करते थे, पूरे आत्मविश्वास से कहते थे। स्कूल में अंग्रेज़ अध्यापक भी सुभाष द्वारा अर्जित अंक देखकर हैरान रह जाते थे, उनकी बुद्धिमत्ता व सृजनात्मक सोच सभी को चकित करती थी।
अपनी कक्षा में सबसे अधिक अंक अर्जित करने पर भी जब छात्रवृत्ति उस अंग्रेज़ छात्र को दी गई जिसके अंक उनसे कम थे तो वे उखड़ गए और उन्होंने वह मिशनरी स्कूल छोड़ दिया। कुशाग्र बुद्धि के धनी सुभाष छात्र जीवन से ही अरविन्द घोष और स्वामी विवेकानंद जैसे महान विचारकों से प्रभावित हो चुके थे, जिसके चलते उन्होंने उनके दर्शनशास्त्रों का गहन अध्ययन किया।
मिशनरी स्कूल छोड़ने के बाद उनसे अरविंद घोष ने कहा कि,"हम में से प्रत्येक भारतीय को डायनमो जैसा बनना चाहिए, जिससे कि हममें से यदि एक भी व्यक्ति खड़ा हो जाए तो हमारे आस-पास हज़ारों व्यक्ति प्रकाशवान हो जाएं।" उस दिन से अरविन्द जी के ये शब्द सुभाष बाबू के मस्तिष्क में हमेशा गूंजा करते थे। उनके प्रेरणादायी शब्दों का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा।
काॅलेज की पढ़ाई के दौरान देशभक्ति एवं क्रांतिकारी विचारों के चलते उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज के एक अंग्रेज़ प्रोफे़सर की सबके सामने पिटाई कर डाली, जिसके कारण उन्हें कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया। इसके बाद उन्होंने स्कॉटिश चर्च कॉलेज में दाखिला लिया और दर्शनशास्त्र से स्नातकोत्तर परीक्षा उत्तीर्ण की। उनके पिता की हार्दिक इच्छा थी कि उनका बेटा आई.सी.एस. (इंडियन सिविल सर्विस) अधिकारी बने। पिता का मान रखने के लिए आई.सी.एस. बनना स्वीकार किया। इसके लिए सुभाष चन्द्र बोस ने इंग्लैण्ड के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में दाखिला लिया और वर्ष 1920 में उन्होंने अपनी अथक मेहनत के बलबूते, न केवल अच्छे अंकों के साथ चौथा स्थान हासिल करते हुए उत्तीर्ण की। हालांकि सुभाष चन्द्र बोस अपनी अनूठी प्रतिभा के बल पर भारतीय प्रशासनिक सेवा में तो आ गए थे, लेकिन उनका मन बेहद व्यथित और बैचेन था। उनके हृदय में देश की आजादी के लिए क्रांतिकारी आक्रोश का समुद्री ज्वार आकाश को छू रहा था। अंतत: उन्होंने मात्र एक वर्ष बाद ही, 24 वर्ष की उम्र में मई, 1921 में भारतीय प्रशासनिक सेवा को राष्ट्रहित में त्याग दिया और राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलनों में सक्रिय हो गये। आज़ादी की ख़ातिर उच्च नौकरी त्यागने पर सारा देश हैरान रह गया। उन्हें अनेक प्रभावशाली व्यक्तियों द्वारा समझाते हुए कहा गया- तुम जानते भी हो कि तुम लाखों भारतीयों के सरताज़ गए हो, हज़ारों देशवासी तुम्हें नमन करेंगे। तब सुभाष चंद्र बोस ने कहा था- मैं लोगों पर नहीं उनके मनों पर राज करना चाहता हूँ। उनका हृदय सम्राट बनना चाहता हूँ। भारत की सामाजिक दशा पर उनके समकालीन विचार आज भी बड़े मूल्यवान हैं, उनका मानना था कि हमारी सामाजिक स्थिति बद्तर है, जाति-पाति तो है ही, ग़रीब और अमीर की खाई भी समाज को बाँटे हुए है। अनपढ़ता राष्ट्र के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है। इसे दूर करने के लिए संयुक्त प्रयासों की आवश्यकता है। सुभाष जब देश आज़ाद करवाने चले , तो पूरे राष्ट्र को अपने साथ लेकर चल पड़े। गाँधी जी ने सुभाष को देश को समझने और जानने को कहा। उनका अनुसरण कर वे देश के हर कोने में घूमें और देश को क़रीब से जाना। उन्होंने कांग्रेस के एक अधिवेशन में कहा- "मैं अंग्रेज़ों को देश से निकालना चाहता हूँ। मैं अहिंसा में विश्वास रखता हूँ, किन्तु इस रास्ते पर चलकर स्वतंत्रता काफ़ी देर से मिलने की आशा है।"
उस दौर में सुभाष चंद्र बोस भारतीयता की पहचान ही बन गए थे। हिंदुस्तान के युवा आज भी उनसे सर्वाधिक प्रेरणा लेते हैं। सुभाष भारत की एक ऐसी अमूल्य निधि थे जिन्होंने देश को 'जय हिन्द' का नारा दिया। उन्होंने कहा था कि- "स्वतंत्रता बलिदान चाहती है। आपने आज़ादी के लिए बहुत त्याग किया है, किन्तु अभी प्राणों की आहुति देना शेष है। आज़ादी को आज अपने शीश फूल चढ़ा देने वाले पागल पुजारियों की आवश्यकता है। ऐसे नौजवानों की आवश्यकता है, जो अपना सिर काट कर स्वाधीनता देवी को भेट चढ़ा सकें। तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा। उन्होंने आईएनए को 'दिल्ली चलो' का नारा भी दिया। उनके नारों का अनुसरण करते हुए नौजवानों ने स्वतंत्रता संग्राम में अपना सर्वस्व बलिदान दिया।
सुभाष चंद्र बोस के जीवन के अनेक पहलू हमें सामाजिक जीवन में एक नई ऊर्जा प्रदान करते हैं। नेताजी एक सफल संगठनकर्ता भी थे। उनका वक्तव्य हर किसी को प्रभावित करने वाला था। उन्होंने देश से बाहर रहकर भी 'स्वतंत्रता आंदोलन' तेज किया।मतभेद होने के बावज़ूद भी वे दूसरे स्वतंत्रता सैनानियों का मान सम्मान करते थे।
21 अक्टूबर, 1943 को उन्होंने आज़ाद हिन्द फ़ौज अर्थात स्वतंत्र भारत की एक सरकार का भी गठन किया था। इस सरकार को जर्मनी, जापान, फिलीपींस, कोरिया, इटली, मानसूकू और आयरलैंड आदि देशो ने मान्यता प्रदान की थी। इस सरकार का अपना बैंक, डाक टिकट और झंडा भी था। इस सरकार ने अपने नागरिकों के मध्य आपसी अभिवादन के समय 'जय हिंद' कहने का निर्णय भी लिया था।
स्वाधीनता के संग्राम में देश के तमाम क्रांतिकारियों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस का व्यक्तित्व जितना रहस्यमयी था उतना ही प्रेरणादायक व अनुप्राणित करने वाला था। अंग्रेज़ी हुक़ूमत के चंगुल से देश को स्वतंत्र कराने के लिए नेताजी के त्याग और बलिदान की गाथाएं सुनकर आज भी बहुत से युवा उन्हें अपना आदर्श मानते हैं। नेताजी का व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर देश-विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में शोध हुए हैं। उनके प्रेरणादायी जीवन चरित्र का अनुसरण कर आज की युवा पीढ़ी अनुशासन, राष्ट्रभक्ति, निर्भयता, नेतृत्व, आत्मचिंतन और कठिन परिश्रम आदि गुणों को आत्मसात कर सकते हैं।
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