Dr. Rajesh Kumar Chauhan is an Indian author, singer, creator, and lyricist. He is well-known for his distinct identity as a mature feature writer. His book "Sangeetabhilashi" is one of the best-selling books on Amazon. Having written numerous research papers, articles, and cover stories, Dr. Rajesh is also the creator of many songs. Among the young litterateurs of Himachal Pradesh, his name stands out in the forefront. This website will provide you access to the literary works of Dr. Rajesh.
रियासत कालीन कहलूर को आज हम बिलासपुर के नाम से पुकारते हैं। कहलूर रियासत में अवस्थित सात पहाड़ियों (त्यूंण, स्यूंण, कोट, नैना देवी, झंझियार, बहादरपुर और बंदला) के कारण इसे सतधार भी कहा जाता है। अनेक उतार-चढ़ाव देख चुकी इस रियासत की नींव बिलासपुर गजे़टियर के अनुसार बीरचंद ने 697 ई. में रखी जबकि डॉ. हचिसन एण्डवोगल की पुस्तक 'हिस्ट्री ऑफ़ पंजाब हिल स्टेट' के अनुसार बीरचंद ने कहलूर रियासत की स्थापना 900 ई. में की थी। वीरचंद मूलतः बुदेलखण्ड ( मध्य प्रदेश ) चन्देरी के चंदेल राजपूत थे। सतलुज पार कर उसने सर्वप्रथम रुहंड ठाकुरों को हराकर किला स्थापित किया जो बाद में कोट - कहलूर किला कहलाया। अपने तैंतीस वर्षों के शासनकाल में वीरचंद ने हिमाचल की 12 ठकुराइयों ( बाघल , कुनिहार , बेजा , धामी , क्योंथल , कुठाड , जुब्बल , बघाट , भजी , महलोग , मागल , बलसन ) को जीत कर कहलूर रियासत का विस्तार किया। उसने नैणा के आग्रह पर नैना देवी मंदिर की स्थापना की और उसके नीचे अपनी राजधानी बनाई। बीरचंद के बाद उसके वंशज इस रियासत पर भारत गणराज्य में इसके विलय (1954 ई.) तक यहां राज करते रहे।
कहलूर रियासत के चौंतीसवें शासक राजा दीपचंद ने सन् 1654 ईस्वी में अपनी राजधानी सुन्हाणी से व्यासपुर स्थानांतरित की थी। व्यासपुर में रंगनाथ, खनेश्वर, नर्वदेश्वर, गोपाल मंदिर, मुरली मनोहर मंदिर, बाह का ठाकुरद्वारा, ककड़ी का ठाकुरद्वारा, नालू का ठाकुरद्वारा, खनमुखेश्वर इत्यादि प्राचीन मंदिर और व्यास नामक गुफ़ा थी। इन मंदिरों में सबसे प्राचीन रंगनाथ मंदिर शिव को समर्पित था। कहा जाता है कि पुरातन काल में महर्षि वेद व्यास ने यहाँ सतलुज नदी के किनारे तपस्या की थी। ऐसी भी मान्यता है कि व्यास गुफ़ा में ही उन्होंने महाकाव्य महाभारत की रचना की थी। सम्भवतः इसी गुफ़ा के नाम पर इस स्थान का नाम व्यासपुर और फिर बिलासपुर पड़ा। राजा दीप चंद ने बिलासपुर में रंगमहल, धौलरा महल, रंगनाथ मंदिर के सामने धर्मशाला और देवमती मंदिर का निर्माण करवाया था। इस शहर ने राजसी शानो-शौक़त से लेकर आधुनिक बिलासपुर तक अनेक उतार चढ़ाव देखे हैं।
लोग इसे डूबी हुई संस्कृति का शहर भी कहते हैं। यहां की सांस्कृतिक एवं पुरातात्विक धरोहर देश के विकास की ख़ातिर जल समाधि ले चुकी है। यह स्थल कभी उजाड़-वियावान हुआ करता था। इस शहर को चंदेल वंश के राजा दीपचंद ने अपनी राजधानी के रूप में विकसित किया था जो औरंगज़ेब का समकालीन था। कहलूर किले ने कई ऐतिहासिक बदलाव देखे हैं। यह रियासत स्वतंत्र होते हुए भी परोक्ष रूप में मुग़ल बादशाह के अधीनस्थ रियासतों में से एक थी। यहां के राजा मुग़लों को कर देकर अपनी सत्ता बनाए हुए थे।
शुतुद्रि की निर्मल धारा के तट पर बसे इस सुरम्य शहर में सांडु का मैदान आकर्षण का केन्द्र हुआ करता था जहां नगरवासी टहलने आया करते थे। कालांतर में 'गंभरी' (प्रसिद्ध लोक गायिका) के गिद्दे भी यहीं कहीं हुआ करते थे, मैदान टमकों से गुंजायमान रहता था, इर्द-गिर्द बैलों की चौकड़ियां दृष्टिगोचर होती थीं। सायंकाल के समय सूर्य रश्मियां जल लहरियों पर बिछती हुई प्रतीत होती थीं। इस शहर की सुंदरता का वर्णन कई विदेशी यात्रियों ने अपने संस्मरणों में भी किया है। यहां बने मकानों की छतें टीन या घास की हुआ करती थीं। प्रत्येक हिन्दू घर के आंगन में तुलसी टियाला होता था। सतलुज नदी के तट पर प्राकृतिक जल स्रोतों पर जन-साधारण स्नान करते थे। शहर के एक छोर पर मुरली मनोहर का मंदिर था। राजा द्वारा आम जनता के लिए स्नानागार व पक्की बावड़ियां बनवाई गई थीं। पेयजल लोग पंचरुखी से भरकर लाया करते थे। शहर में उस समय बिजली नहीं हुआ करती थी।
पुराने शहर में शिव को समर्पित भगवान रंगनाथ का मंदिर वास्तुकला व पुरातात्विक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण था। प्रतिहार शैली में निर्मित यह मंदिर लगभग आठवीं - नौवीं शताब्दी में बनाया गया था। इस परिसर में मुख्य मंदिर के अतिरिक्त चार अन्य लघु मंदिर थे। मुख्य मंदिर बाज़ार से लगभग पन्द्रह फ़ीट की ऊंचाई पर था। उसके सामने पत्थर से बनी नंदी की प्रतिमा स्थापित की गई थी। मंदिर तक पहुंचने के लिए पत्थर की सीढ़ियां थीं। इतिहासज्ञों के अनुसार चन्देल वंश की उन्चासवीं पीढ़ी में राजा ईलदेव ने रंगनाथ मंदिर की स्थापना की थी। अपने जीवन के अंतिम वर्ष उन्होंने अपनी भार्या विमलादेवी के साथ उत्तरी हिमालय में सतलुज नदी के किनारे व्यास गुफ़ा के निकट तपस्या में व्यतीत किए। वे शिव भक्त थे। अपने अंतिम क्षणों तक वह इसी मंदिर में शिव आराधना करते रहे। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनकी रानी विमला देवी भी वहीं सती हो गई। उनके पुत्र जयजयदेव ने अपने माता-पिता की याद में रंगनाथ का सुंदर मंदिर बनवाया और उसमें राजा ईलदेव तथा रानी विमलादेवी की मूर्तियां स्थापित करवाईं। तदुपरांत चंदेल वंशीय राजाओं की इस मंदिर के प्रति आस्था और गहरी हो गई। कालांतर में ईलदेव और विमला देवी की जगह शिव तथा पार्वती की मूर्तियां स्थापित करवाई गई। मान्यता है कि भगवान शिव के जलाभिषेक के बाद जल जब सतलुज नदी में मिलता था तो उस समय यहां बारिश होती थी।
रंगनाथ परिसर के समक्ष ऐतिहासिक सांडू मैदान में प्रसिद्ध नलवाड़ मेले का आयोजन किया जाता था। नलवाड़ी के अवसर पर रंगनाथ में नित्य आरती हुआ करती थी। स्थानीय लोगों द्वारा छिंज तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर भाग लिया जाता था। इस पशु मेले का आरम्भ सन् 1889 ई. में डब्ल्यू गोल्डस्टीन ने किया था। यह मेला पशुओं के क्रय-विक्रय से संबंधित था जो वर्तमान में सांस्कृतिक मेले का रुप धारण कर चुका है। अब यह मेला लुहणु मैदान में आयोजित किया जाता है।
हंसती-खेलती इस नगरी को न जाने किसकी नज़र लगी और नौ अगस्त सन् 1961 को अपना अस्तित्व खोकर यह शहर भाखड़ा बांध के निर्माण के कारण बनी गोबिंदसागर झील में जलमग्न हो गया। इस झील ने बारह हज़ार परिवारों को बेघर करके उनके 354 गांवों को हमेशा के लिए अपने में समाहित कर लिया। इस दिन न केवल यह शहर डूबा बल्कि एक समृद्ध संस्कृति व इतिहास ने भी जल समाधि ली।
पुराना नगर लगभग दो किलोमीटर की लंबाई में फैला था। गोहर, बांदलियो, छोटा बाज़ार, रंगनाथ तथा सांडु मैदान इसके प्रमुख अंग थे। आसे का नाला, नाले रा नौण, चामड़ू का कुंआ, चौंते का नौण, पंचरुखी, बावली आदि स्थलों पर सुबह-शाम रौनक रहती थी। सांडु मैदान के उत्तरी छोर पर बाबा बंगाली की गुमटी व संगमरमर की मूर्ति थी। मैदान की परिधि लगभग पांच किलोमीटर थी। रामलीला का मंचन गोहर बाज़ार में होता था। यहीं पर खाकीशाह की मजार बनी हुई थी।
गंगी और गिद्दों की ताल पर झूमते आम और लीची के बाग़, ऐतिहासिक सांडू मैदान, रंगनाथ, खनेश्वर, नर्वदेश्वर, गोपाल मंदिर, मुरली मनोहर मंदिर, बाह का ठाकुरद्वारा, ककड़ी का ठाकुरद्वारा, नालू का ठाकुरद्वारा, खनमुखेश्वर मन्दिर, रंगमहल तथा धौलरा महल के साथ सदियों पुराने कई स्मारक, पुरातन सांस्कृतिक धरोहरें और कई परंपराओं से सुसज्जित चंदेल वंश की कहलूर रियासत का इतिहास इस झील की गर्त में दफ़न कर दिया गया।
भले ही इस शहर की पुरातात्त्विक और सांस्कृतिक विरासत को जलमग्न कर दिया गया, शहरवासियों के सुख-दुख का साथी सांडु मैदान, प्रसिद्ध रंगनाथ मंदिर, खनेश्वर, नर्वदेश्वर, गोपाल मंदिर, मुरली मनोहर मंदिर, ठाकुरद्वारा, रंगमहल, धौलरा के महल और सदियों पुराने कई स्मारक झील की गहराई में समां गए हों बावजूद इस नगर की शानो-शौक़त में कमी नहीं आई। कहलूर रियासत के अंतिम शासक राजा आनंद चंद ने भाखड़ा बांध की वजह से बनने वाली झील में पुराने शहर के जलमग्न होने का मसला भारत सरकार के समक्ष उठाया था। मामले की गंभीरता देखते हुए भारत सरकार के चीफ आर्केटेक्ट जुगलेकर को नए नए शहर का नक्शा तैयार करने का कार्य सौंपा गया। नए नगर का निर्माण 1956 में शुरू किया गया और 1963 में बनकर तैयार हो गया। प्रारंभिक अवस्था में नगर को तीन सेक्टर रौड़ा, डियारा और चंगर में विभाजित किया गया। नए शहर के निर्माण से लेकर अब तक यह नगर लगातार विकसित हो रहा है।
वक़्त के थपेड़ों का डटकर मुकाबला करने के पश्चात आज यह शहर फिर से गुलज़ार हो गया है। प्रदेश के अन्य शहरों की भान्ति आधुनिकता की चकाचौंध यहां भी दृष्टिगोचर है। यहां के मेहनतकश लोग जहां प्रगति पथ पर अग्रसर हैं वहीं अपनी सांस्कृतिक विरासत को भी संजोए रखने में प्रयासरत हैं। लुहणु मैदान में नलवाड़ी मेला आज भी सदियों पुरानी परम्परा का निर्वहन कर रहा है। बड़े-बड़े शाॅपिंग माॅल, सुंदर घर और बहुमंजिला इमारतों के बनने से शहर की चकाचौंध बढ़ गई है लेकिन मनमर्जी से हुए अंधाधुंध भवन निर्माण के कारण आर्केटेक्ट जुगलेकर की परिकल्पना के मुताबिक यह शहर विकसित नहीं हो सका। भांगड़ा बांध के निर्माण के लिए दी गई आहुति के फलस्वरूप आज इस शहर की दुनिया में अलग पहचान है। स्वास्थ्य की दृष्टि से बिलासपुर में एम्स संस्थान का निर्माण कोठीपुरा में लगभग पूरा होने जा रहा है। जिले में रेलवे लाइन पहुंचाने का कार्य प्रगति पर है। फोरलेन के प्रोजेक्ट प्रगति पर हैं। शिक्षा, उद्योग सहित हर वर्ग में बिलासपुर जिला अब उन्नत जिलों की सूची में शूमार है। किन्तु फिर भी जब मार्च महीने में धौलरा के समीप गाद में डूबे खंडहर नज़र आने शुरु होते हैं तो स्थानीय लोगों के हृदय में 1961 की वह पीड़ा फिर से ताज़ा हो जाती है। डूबते सांडु को देखकर वेदित हृदय से उत्पन्न गीत की ये पंक्तियां - "सांडु रे मदाना च झीला रा पाणी हुण से नलवाड़ी असां किती लाणी..." आज भी जनसाधारण की आंखों से आंसू छलका देती हैं।
मुख्य आकर्षण
रोमांचकारी क्रीड़ाएं
बिलासपुर एक छोटा पहाड़ी शहर है जहाँ रोमांच की कोई कमी नहीं है। गोबिंद सागर झील की अद्भुत संरचना को देखने के साथ-साथ पर्यटक यहां मानव निर्मित जलाशय में साहसिक खेलों का मज़ा लेने भी आते हैं। यहाँ झील के स्थिर जल में नौका विहार, कयाकिंग, वाटर स्कीइंग, बोटिंग और रेगाटा का आनंद ले सकते हैं। बिलासपुर पैराग्लाइडिंग के लिए भी प्रसिद्ध है। आप यहां आसमान से हरी-भरी पहाड़ियों, सतलुज नदी, गोविन्द सागर झील और ख़ूबसूरत बिलासपुर शहर के नज़ारे ले सकते हैं।
व्यास गुफा
व्यासपुर और कालान्तर में बिलासपुर नाम की उत्पत्ति इसी गुफा के कारण मानी जाती है। यह गुफा नए नगर के तल पर स्थित है। कहा जाता है कि इस गुफा में वेदव्यास ऋषि ने तपस्या की थी। माना जाता है कि महर्षि व्यास ने सतलुज नदी के बांए तट पर बनी इस गुफा में कुछ वर्षों तक ध्यान लगाया था। इस गुफा को एक पवित्र तीर्थस्थल माना जाता है। यहां वर्ष भर श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है।
नैना देवी मंदिर
श्री नैना देवी जी हिमाचल के उल्लेखनीय स्थानों में से एक है। ज़िला बिलासपुर में स्थित, यह 51 शक्तिपीठों में से एक है जहां सती के अंग पृथ्वी पर गिरे थे। इस पवित्र तीर्थ स्थान पर वर्ष भर तीर्थयात्रियों और भक्तों का तांता लगा रहता है। श्रावण अष्टमी, चैत्र एवं अश्विन के नवरात्रों में यहां विशेष मेले का आयोजन किया जाता है। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और देश के अन्य कोनों से लाखों श्रद्धालु यहां वर्ष भर आते हैं।
बहादुरपुर
https://youtu.be/u2k7M-yufIU
यह किला बहादुरपुर नामक पहाड़ी पर स्थित था। बहादुरपुर बिलासपुर की सबसे ऊंची चोटी है। बहादुरपुर में तेपरा गांव के निकट बनाया गया यह किला बिलासपुर से 40 किलोमीटर दूर है। देवदार और बान के सुंदर जंगलों ने इस स्थान को चारों तरफ से घेर रखा है। इस किले से फतेहपुर, नैना देवी की पहाडी़, रोपड़ के मैदान और शिमला की पर्वत श्रृंखलाएं देखी जा सकती हैं। यह किला 1835 में राजा केशवचन्द ने बनवाया गया था जो अब पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुका है।
बछरेटू किला
यह किला बिलासपुर के प्राचीनतम किलो में से एक है। इसका निर्माण 14 वीं शताब्दी में बिलासपुर के राजा रतन चंद के शासनकाल के दौरान किया गया था। यह किला अब खंडहर बन चुकी है, लेकिन ऐतिहासिक दृष्टि से इसका अत्यधिक महत्व माना जाता है। बछरेटू किला समुद्र तल से तीन हज़ार फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यह किला भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अंतर्गत आता है और पर्यटकों के लिए खुला रहता है।
स्यूण किला
बिलासपुर की सतधारों में से एक स्यूण पहाड़ी पर यह किया स्थित है। कहा जाता है कि इस किले को मूल रूप से सुकेत राज्य के राजा द्वारा बनवाया गया था। रख-रखाव के अभाव में अब यह किला जर्जर हालत में खंडहर बन चुका है। इस किले में प्रयुक्त पत्थरों का घर निर्माण में प्रयोग करना स्थानीय लोगों की मान्यतानुसार अनिष्टकारक माना जाता है।
रुक्मणि कुंड
ज़िला बिलासपुर के घुमारवीं कस्बे से लगभग सात किलोमीटर की दूरी पर सलासी नामक गांव में 'रुक्मणी कुंड' नामक पर्यटक स्थल है। यहां स्थित प्राकृतिक कुंड इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और धार्मिक मान्यता के कारण आकर्षक का केन्द्र बना हुआ है। जनश्रुति के अनुसार इस कुंड का उद्भव एक स्री के बलिदान के कारण हुआ है।
भाखड़ा बांध
पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण भाखड़ा बांध, सबसे अधिक ऊँचाई तथा सीधे ग्रेविटी वाला विश्व का सबसे ऊँचा बांध है। यह बांध नंगल कस्बे से लगभग 14 कि०मी० की दूरी पर नैना देवी तहसील में स्थित है। इस बांध को बनवाने का विचार सर्वप्रथम सर लुईस डेन के मन में आया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात ही इस योजना को मार्च 1948 में क्रियान्वित किया जा सका। 17 नवम्बर, 1955 को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने भाखड़ा बांध की आधारशीला रखी और बांध अक्तूबर, 1962 को बनकर तैयार हो गया।
मार्कंडेय मंदिर
यह मंदिर बिलासपुर से 20 किलोमीटर दूरी पर स्थित है। ऐसी मान्यता है कि वर्षों पहले इस मंदिर में ऋषि मार्कंडेय रहा करते थे और अपने आराध्य की आराधना करते थे। इसी कारण इस मंदिर को मार्कंडेय नाम से पुकारा जाता है। प्राचीन समय से यहां पानी का एक झरना है, जहां बैसाखी की रात्रि एक वार्षिक पर्व आयोजित किया जाता है। माना जाता है कि इस स्थल पर स्नान करने से सभी प्रकार के चर्म रोग दूर हो जाते हैं।
कन्दरौर पुल
कन्दरौर पुल बिलासपुर शहर से 8 कि०मी० की दूरी पर एन-एच-88 पर सतलुज नदी पर बनाया गया है। इस पुल का निर्माण कार्य अप्रैल, 1959 में प्रारम्भ हुआ और 1965 में बनकर तैयार हो गया था। इस पुल की लम्बाई 280 मीटर, चौड़ाई 7 मीटर और ऊंचाई 80 मीटर है। यह पुल दुनियां के सबसे ऊंचे पुलों में से एक है। यह पुल बिलासपुर, घुमारवीं और हमीरपुर को एक दूसरे के साथ जोड़ता है। इस पुल का उद्घाटन तत्कालीन यातायात मंत्री श्री लाल बहादुर ने किया था। इस पुल का नाम कई वर्षों तक एशिया के सबसे ऊंचे पुल में शुमार रहा।