बुधवार, 27 नवंबर 2024

गत्ताधार में 'सिरमौर रत्न' सम्मान समारोह पर्यटन, संस्कृति और सम्मान की अनूठी पहल - डॉ. राजेश चौहान

 हिमाचल प्रदेश का सिरमौर जिला, जो अपनी सांस्कृतिक विविधता, प्राकृतिक सुंदरता और समृद्ध परंपराओं के लिए विख्यात है, 23 नवंबर, 2024 को इतिहास के पन्नों में दर्ज होने वाला एक अभूतपूर्व आयोजन का गवाह बना। बी.एस.एन. समूह और गत्ताधार टूरिज्म के बैनर तले इस सुरम्य पर्यटन स्थल पर ‘सिरमौर रत्न’ सम्मान समारोह का भव्य आयोजन हुआ। यह आयोजन न केवल स्थानीय प्रतिभाओं को मंच प्रदान करने का अवसर था, बल्कि गत्ताधार को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पर्यटन मानचित्र पर स्थापित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल भी थी।


सिरमौर ज़िला का गत्ताधार अपनी मनोहारी प्राकृतिक छटा, घने जंगलों और शांत वातावरण के लिए जाना जाता है। समुद्रतल से काफी ऊंचाई पर स्थित यह स्थल, आज तक पर्यटन के लिहाज से उतना विकसित नहीं हो पाया था, जितनी इसकी क्षमता है। इस आयोजन ने इसे एक नई पहचान देने का काम किया। दुर्गम और चुनौतीपूर्ण भूगोल में इस तरह का आयोजन कराना जहां एक ओर कठिन था, वहीं यह स्थानीय लोगों की दृढ़ इच्छाशक्ति और उत्साह का प्रत्यक्ष प्रमाण भी था।




समारोह में पद्मश्री अवॉर्डी विद्यानंद सरैक, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित एवं हिमाचल गौरव डॉ. कृष्ण लाल सहगल समेत ज़िला की 111 नामी हस्तियों को सम्मानित किया गया। इन प्रतिभाओं में कला, संस्कृति, शिक्षा, खेल, समाजसेवा और साहित्य जैसे विविध क्षेत्रों के लोग शामिल थे। यह सम्मान उन अनजान और अल्पज्ञात नायकों को समर्पित था, जिनकी मेहनत और लगन ने समाज को एक नई दिशा और प्रेरणा दी। इन प्रतिभाओं के सम्मान से सिरमौर की युवा पीढ़ी को एक प्रेरक संदेश मिला कि कड़ी मेहनत और दृढ़ संकल्प से किसी भी लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।


समारोह की गरिमा तब और बढ़ गई जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध रेसलर 'द ग्रेट खली', जो सिरमौर के ही सपूत हैं और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता एवं न्यायविद् एच.सी. गनेशिया ने इस ऐतिहासिक आयोजन में शिरकत की। इनकी उपस्थिति ने न केवल आयोजन को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई, बल्कि स्थानीय निवासियों और युवाओं के आत्मविश्वास को भी बढ़ावा दिया। इसके अतिरिक्त, देशभर की प्रतिष्ठित हस्तियां और बुद्धिजीवी भी इस अवसर पर उपस्थित रहे जिन्होंने इस आयोजन को और अधिक यादगार बना दिया।


बी.एस.एन. समूह के संस्थापक गत्ताधार के युवा और ओजस्वी व्यक्तित्व डॉ. बलबीर शर्मा इस आयोजन की सफलता के प्रमुख सूत्रधार थे। उनका लक्ष्य केवल सिरमौर की प्रतिभाओं को मंच प्रदान करना ही नहीं था, बल्कि गत्ताधार को पर्यटन के क्षेत्र में एक नई ऊंचाई तक ले जाना भी था। डॉ. शर्मा और उनकी टीम ने इस आयोजन की योजना से लेकर उसके क्रियान्वयन तक जो मेहनत और समर्पण दिखाया, वह प्रेरणादायक है। उनके नेतृत्व में यह आयोजन गत्ताधार और सिरमौर के लिए एक ऐतिहासिक क्षण साबित हुआ।


इस अवसर पर अरविंद गोयल के निर्देशन में प्रकाशित 'सिरमौर अलंकरण पत्रिका' का भी विमोचन किया गया। यह पत्रिका सिरमौर की समृद्ध संस्कृति, परंपराओं और प्रतिभाओं को समर्पित थी। इसे नि:शुल्क उपलब्ध कराकर आयोजकों ने यह सुनिश्चित किया कि सिरमौर की अनमोल धरोहर अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचे।


इस आयोजन की सफलता में स्थानीय निवासियों, प्रशासन और गत्ताधार टूरिज्म के सामूहिक प्रयासों का बड़ा योगदान रहा। दुर्गम स्थल पर इतना भव्य आयोजन कराना जहां एक चुनौतीपूर्ण कार्य था, वहीं यह सामूहिक इच्छाशक्ति और संगठन क्षमता का अद्भुत उदाहरण भी था। इस आयोजन ने यह सिद्ध कर दिया कि यदि समाज एकजुट होकर प्रयास करे, तो कोई भी बाधा अडिग नहीं रह सकती।


गत्ताधार में आयोजित इस सम्मान समारोह ने यह उम्मीद जगाई है कि भविष्य में यह क्षेत्र पर्यटन और सांस्कृतिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र बनेगा। इस आयोजन ने न केवल गत्ताधार की सुंदरता और सांस्कृतिक महत्व को उजागर किया, बल्कि इसे पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र भी बनाया। स्थानीय संस्कृति, परंपराओं और प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देकर यह आयोजन एक मिसाल बन गया।


'सिरमौर रत्न' सम्मान समारोह न केवल सिरमौर की सांस्कृतिक और सामाजिक चेतना का प्रतीक था, बल्कि यह एक नई शुरुआत भी थी। गत्ताधार को पर्यटन के क्षेत्र में एक नई पहचान दिलाने और सिरमौर की प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करने की यह पहल प्रशंसनीय है। भविष्य में इस प्रकार के आयोजन सिरमौर की गरिमा को बढ़ाने और इसे नई ऊंचाइयों पर ले जाने में सहायक सिद्ध होंगे। गत्ताधार का यह ऐतिहासिक आयोजन यह संदेश देता है कि यदि सामूहिक प्रयास किए जाएं, तो कोई भी स्थान अपनी विशिष्ट पहचान बना सकता है। 'धारों की धार गत्ताधार' के इस आयोजन ने न केवल सिरमौर की प्रतिभाओं को सम्मानित किया, बल्कि इसे हिमाचल प्रदेश और देश के सांस्कृतिक मानचित्र पर भी स्थापित कर दिया।

सोमवार, 18 नवंबर 2024

"हिमाचली पहाड़ी लोकगीतों में जनजीवन" पुस्तक समीक्षा -डॉ. राजेश चौहान

लोकसंस्कृति किसी क्षेत्र के सभ्य समाज का दर्पण है, और लोकगीत वहां के जनजीवन का अभिन्न हिस्सा। जन्म से मृत्यु तक, हर अवसर और संस्कार का वर्णन इन गीतों में मिलता है। सोलह संस्कारों में मृत्यु को छोड़कर, अन्य सभी संस्कारों पर गाए जाने वाले मंगल गीतों को संस्कार गीत कहा जाता है। अनाम रचनाकारों द्वारा रचे ये लोकगीत पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से प्रचलित होते हुए समाज की सामूहिक अभिव्यक्ति बन गए हैं। लोकगीत न केवल मनोरंजन का माध्यम हैं, बल्कि समाज की संस्कृति, परंपरा और भावनाओं के संवाहक भी हैं। वास्तव में, लोकगीतों में ही जनजीवन का सार निहित है।


लोकगीतों के संरक्षण और संवर्द्धन के क्षेत्र में साहित्यकार और वरिष्ठ पत्रकार रामलाल पाठक का योगदान अत्यंत प्रशंसनीय है। रामलाल पाठक का जन्म 17 मई 1959 को बिलासपुर जिला की सदर तहसील की नवगठित ग्राम पंचायत निहारखन बासला के छोटे से गांव निहारखन बासला (चिड़की) में हुआ है। ये लम्बे अर्से से पत्रकारिता, साहित्य और लोक संस्कृति के क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं। हाल ही में प्रकाशित उनकी पुस्तक "हिमाचली पहाड़ी लोकगीतों में जनजीवन" में प्रदेश के लोकगीतों का विवेचनात्मक और विश्लेषणात्मक वर्णन किया गया है। हालांकि, इसमें जनजातीय क्षेत्रों के लोकगीतों और निचले हिमाचल के सभी पारंपरिक गीतों को शामिल नहीं किया गया है, फिर भी लेखक ने हिमाचल के विभिन्न जिलों—चंबा, बिलासपुर, कांगड़ा, मंडी, सोलन, शिमला, ऊना और हमीरपुर—के अनेक लोकगीतों का गहराई से अध्ययन कर, उनकी व्याख्या सहित वर्णन प्रस्तुत किया है।




पुस्तक में जन्म और विवाह संस्कार गीतों के साथ-साथ हिमाचल प्रदेश के अन्य पारंपरिक गीतों को भी शामिल किया गया है। लेखक ने लोकनाट्य धाजा और गुग्गा लोक गाथा में स्थानीय बोली में गाए जाने वाले गीतों का वर्णन किया है, जो इन लोक कलाओं की गहराई और संस्कृति को उजागर करते हैं। प्रदेशभर में गाए जाने वाले प्रसिद्ध "गंगी" गीत को भी पुस्तक में विशेष स्थान दिया गया है। यह लोकगीत घर और गांवों में नहीं, बल्कि खेतों और जंगलों में गाए जाने की परंपरा को दर्शाता है। सावन के महीने में गाए जाने वाले गीतों और मोर से संबंधित धार्मिक व पारंपरिक गीतों को भी संग्रह में सम्मिलित किया गया है। स्त्रियों और पुरुषों के आपसी प्रेम को अभिव्यक्त करने वाले गीत, और गिद्धा नृत्य के दौरान गाई जाने वाली स्थानीय बोली की बोलियों का भी पुस्तक में अर्थ सहित वर्णन किया गया है। यह संग्रह मात्र गीतों का नहीं, बल्कि हिमाचली लोकजीवन की समृद्ध परंपरा का जीवंत दस्तावेज है। पुस्तक में कुल 18 लेख हैं, जो हिमाचली लोकगीतों के विविध पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं।


पुस्तक में संस्कार गीतों में प्रसूता की प्रसव वेदना से लेकर नवजात शिशु के स्वागत और नानी व अन्य रिश्तेदारों द्वारा दिए जाने वाले उपहारों का उल्लेख किया गया है। शिशु के जन्म को भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण के जन्म से तुलना करते हुए गाए जाने वाले गीत का वर्णन इस प्रकार है:


जुध्या जे नगरी सुनो मेरी बहनो,

दशरथा रे घरे जमेया लाल,

जमेया नानकिये सुनेया,

तां पर कुहरे नगारे।

तां पर बांडियां बधाइयां।

भावार्थ: एक महिला दूसरी महिला से कहती है कि अयोध्या में राजा दशरथ के घर पुत्र-रत्न का जन्म हुआ। जब यह शुभ समाचार नवजात के ननिहाल पहुंचा, तो वहां मंगल ध्वनि के साथ नगाड़े बजाए गए और एक-दूसरे को बधाइयां दी गईं। विवाह संस्कार गीतों में तेल-उबटन से लेकर वधू-प्रवेश तक की रस्मों का सुंदर वर्णन किया गया है। इनमें अल्पाहार और भोजन के दौरान दूल्हे के रिश्तेदारों और बारातियों पर गाए जाने वाले व्यंग्यात्मक सीठनियां गीतों (गालियों) का भी उल्लेख मिलता है:


छोलेया मिसी दाल मुईए,

रिजदी कोरी डिबड़िया,

जनेती बैठे खाने,

मुईए बुआ चड़ियां कुगलियां।

अर्थात: नए बर्तनों में चने-मिश्रित दाल पक रही है। बाराती भोजन करने बैठे हैं, और उनकी बुआ उनके कंधे पर चढ़ रही है। विदाई के गीत जहां लोगों की आंखें नम कर देते हैं, वहीं बारातियों के "भात बांधने" के गीत का भी उल्लेख किया गया है, हालांकि उसकी कुछ पंक्तियां पुस्तक में शामिल नहीं की गईं। पुस्तक में लोकनाट्य धाजा के गीतों को स्थानीय बोली में संकलित कर उनके अर्थ सहित हिंदी में प्रस्तुत किया गया है। लोकनाट्य में दाई स्वांग में गाए जाने वाले व्यंग्यात्मक लोकगीत का उदाहरण इस प्रकार है:


दाई आई बल्ल ओ दाई आई,

पानी डोड पहाड़ दा,

अठारह गज दी घघरी बनदी,

हल्का कद बचारी दा।

भावार्थ: दाई कमजोर है और उसने अठारह गज की लंबी घाघरी पहन रखी है, जिससे वह चल भी नहीं पा रही है। गीत में आगे कहा गया है कि दाई के सोलह पुत्र और सत्रह बेटियां हैं, लेकिन उसने कभी अपने पति को नहीं देखा। गुग्गा गाथा में गायक कलाकार श्रोताओं को बांधे रखने के लिए अपनी बोली में व्यंग्य प्रहार करते हैं, जैसे:


जे तू बाछला जो पुत्र नी देणा,

तां आसां रहना नी तेरे पास,

नौ लख चेला भी तेरे ते गवाऊं,

तू कहला रही जाना ठीकर दास।

भावार्थ: गायक कलाकार गाते हैं कि गुरु गोरखनाथ द्वारा बाछल रानी को पुत्र का वरदान न दिए जाने पर, उनका प्रिय चेला गुरु को चेतावनी देता है कि वह सभी चेलों को भड़काकर गुरु को अकेला छोड़ देगा। पुस्तक में संस्कार गीतों के अलावा धार्मिक और घटनाप्रद लोकगीतों को भी स्थान दिया गया है। धार्मिक लोकगीतों में भगवान शिव, शक्ति, श्रीराम, श्रीकृष्ण और अन्य देवी-देवताओं से संबंधित गीत शामिल हैं। श्रीकृष्ण और गुज्जरों से जुड़े गीत भी प्रमुख हैं, जिन्हें विभिन्न आयोजनों में गाया जाता है।


त्याग और समर्पण की प्रतीक देवी रुक्मणी की कथा में क्षेत्र में पानी की समस्या के समाधान के लिए उनके बलिदान का वर्णन किया गया है। बिलासपुर के बरसंड और गेहड़वीं क्षेत्र में आज भी तरेड़ गांव के लोग रुक्मणी कुंड के पानी को न पीने की परंपरा का पालन करते हैं। सावन माह की मस्ती और मोर पक्षी के धार्मिक महत्व का भी पुस्तक में जिक्र है। सावन के गीत और मोर के संबंध में गाए जाने वाले पारंपरिक गीतों का उदाहरण है:


पहाड़ा दा नजारा संजो प्यारा लगदा,

पपीहा बोले, मोर बोले,

जंगला चकोर बोले,

गदिये जो गद्दणी रा बालू प्यारा लगदा।

भावार्थ: पहाड़ का नजारा प्यारा लगता है। पपीहा, मोर और चकोर बोल रहे हैं, और गद्दी को गद्दिण की नथ प्यारी लग रही है। घटनाप्रद लोकगीतों में क्षेत्र विशेष की घटनाओं का उल्लेख किया गया है। बिलासपुर का मोहणा गीत भ्रातृ-प्रेम का सजीव उदाहरण प्रस्तुत करता है, जहां मोहन नामक युवक अपने बड़े भाई के अपराध की सजा स्वयं लेकर फांसी पर चढ़ जाता है। "गंगी" जैसा लोकगीत, जिसे घर या गांव में नहीं, बल्कि खेतों और जंगलों में गाया जाता है, पुस्तक में प्रमुखता से वर्णित है। गंगी गीतों में पुरुष और महिलाएं सवाल-जवाब के माध्यम से गीत गाते हैं, जैसे:


तेरे अंगना जे चक्के गढ़ने,

पारा ते तूं वार आइजा,

आसा गल्ला रे खड़ाके करने।

भावार्थ: प्रेमी अपनी प्रेमिका से कहता है कि वह उसके पास आए और दोनों साथ बैठकर दिल की बातें करें। पुरुषों और महिलाओं के प्रेम-प्रसंगों पर आधारित लोकगीतों में रांजू-फुलमू, कुंजू-चंचलो, चंदो ब्राह्मणी-लछिया, गंगी-सुंदर, और देवकू-जिंदू जैसे पात्रों के गीत प्रमुख हैं। पुस्तक में गिद्धा नृत्य के दौरान गाए जाने वाले बोलियां गीतों को भी प्रस्तुत किया गया है:


तोड़ गइयां यो नजरां,

दिल मेरा तोड़ गइयां।

अंतरा: शिमले ते आइयां भरी-भरी गड़ियां,

ओ दाड़ले गे मोड़ गइयां।

तोड़ गइयां यो नजरां,

दिल मेरा तोड़ गइयां।

पुस्तक में पहाड़ी लोकगीतों के माध्यम से हिमाचली बोलियों को समृद्ध करने पर भी एक लेख प्रकाशित है। इसमें विभिन्न जिलों के गीतों को एकरूपता प्रदान करने की संभावनाओं का जिक्र किया गया है।

महान अदाकारा गम्भरी के जीवन और उनके गाए गए गीतों का विवरण पुस्तक को विशेष बनाता है। गम्भरी के लोकप्रिय गीत का उल्लेख इस प्रकार है:


 "खाना-पीना नन्द लैणी" 

ओ गम्भरिए खाना-पीना नन्द लैणी

नाच तां नाची गई बंदले री गम्भरी

ओ ढोलकी बजाई गया जैंढू ।

ओ गम्भरिए खाना-पीना नन्द लैणी

अन्तरा : किनें तां खोली तेरे बंगले री खिड़की

ओ किनें मारिया खंगारा 

गम्भरिए खाना-पीना नन्द लैणी ओ ।"

भावार्थ : जिंदगी को मौज़-मस्ती से जीना चाहिए। जो पसंद हो वो खाना -पीना चाहिए और आनंद में रहना चाहिए। गंभरी बेहतरीन नृत्यांगना थीं और जैण्डू उसके साथ ढोलक बजाया करता था। किसने बंगले की खिड़की खोली है तथा कौन खांस कर इशारे कर रहा है । प्रतिउतर में कहा गया कि जो चतुर था उसने चुपके से खिड़की खोली तथा मूर्ख खांसते हुए इशारे कर रहा है ।

उनका यह गीत हर किसी की जुबान पर है। उच्च दर्जे की नृत्यांगना के साथ ही गम्भरी गजब की लोकगायिका भी थी ।  अनपढ़ होने के बाबजूद वह समय और परिस्थितियां देखकर गीत बनाती और तत्काल गाकर सुना देती थी। बड़े बुजुर्ग आज भी गम्भरी की महफिलों को याद करते हैं । पुस्तक में अंतरराष्ट्रीय लोक नर्तकी फूलां चंदेल के नृत्य और उनके लोकगीतों को विदेशों में फैलाने के योगदान का भी वर्णन है।

आज की युवा पीढ़ी, जो पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित हो रही है, अपनी लोक संस्कृति और भाषाओं से अनभिज्ञ होती जा रही है। हमारी लोक भाषा और लोक कलाएं केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं हैं वे हमारे जीवन के मूल्यों, विचारों और समाज की आत्मा को व्यक्त करती हैं। यदि हम इन्हें संरक्षित नहीं करेंगे, तो यह केवल सांस्कृतिक क्षति नहीं होगी, बल्कि हमारी पहचान पर भी संकट खड़ा होगा। इसलिए, यह अत्यंत आवश्यक है कि हम युवा पीढ़ी को अपनी संस्कृति से जोड़ने के लिए हर संभव प्रयास करें, ताकि आने वाली पीढ़ियां हमारी परंपराओं पर गर्व महसूस कर सकें और उन्हें आत्मसात कर सकें। साहित्यकार रामलाल पाठक द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक आने वाली पीढ़ियों को अपनी लोक परंपराओं से जोड़ने का एक सफल प्रयास है।

मंगलवार, 12 नवंबर 2024

बच्चों के प्रति चाचा नेहरू के प्रेम का प्रतीक है बाल दिवस - डॉ. राजेश चौहान

भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के जन्मदिवस को हर वर्ष 14 नवंबर को बाल दिवस  के रूप में मनाया जाता है। यह दिन विशेष रूप से बच्चों को समर्पित है और उनके अधिकारों, कल्याण, शिक्षा, और उनके जीवन में आने वाले कठिनाइयों पर ध्यान केंद्रित करता है। पंडित नेहरू को बच्चों से बेहद लगाव था। बच्चों के प्रति उनका प्रेम और उनकी उज्ज्वल भविष्य की कामना ने बाल दिवस को भारत में एक महत्वपूर्ण पर्व बना दिया।

बाल दिवस का आरंभ भारत में पंडित नेहरू के प्रति सम्मान और बच्चों के प्रति उनके प्रेम को दर्शाने के लिए किया गया था। पंडित नेहरू का मानना था कि बच्चे किसी भी देश का भविष्य होते हैं और उनके बेहतर विकास के लिए अच्छे वातावरण, शिक्षा, और स्वास्थ्य सुविधाओं की आवश्यकता होती है। उन्हें "चाचा नेहरू" के नाम से भी जाना जाता है और उनकी सोच थी कि बच्चों का पालन-पोषण अच्छे से होना चाहिए ताकि वे देश की उन्नति में योगदान दे सकें। पहले भारत में बाल दिवस 20 नवंबर को मनाया जाता था, जो कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा मनाए जाने वाले विश्व बाल दिवस के दिन था। लेकिन 1964 में पंडित नेहरू के निधन के बाद यह निर्णय लिया गया कि उनके जन्मदिन, 14 नवंबर, को बाल दिवस के रूप में मनाया जाएगा। इसके पीछे उद्देश्य यह था कि बच्चों के प्रति नेहरूजी के असीम प्रेम और देखभाल को सम्मानित किया जा सके और समाज को बच्चों के विकास और अधिकारों के प्रति जागरूक किया जा सके।



बाल दिवस का मुख्य उद्देश्य बच्चों के अधिकारों, उनके स्वास्थ्य, और शिक्षा के प्रति समाज को जागरूक करना है। इस दिन बच्चों के प्रति उनकी जिम्मेदारी को समझाने और उनके अधिकारों के प्रति संवेदनशीलता बढ़ाने का प्रयास किया जाता है। यह दिन न केवल बच्चों को समर्पित है, बल्कि समाज के हर वर्ग के लिए एक संदेश है कि बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए हमें उन्हें सुरक्षित, स्वस्थ और शिक्षा से परिपूर्ण वातावरण देना चाहिए। हर बच्चे को उनके मौलिक अधिकारों जैसे - शिक्षा का अधिकार, स्वास्थ्य का अधिकार, और खेलने का अधिकार मिलना चाहिए ताकि वे अपने जीवन का पूर्ण विकास कर सकें।

पंडित नेहरू बच्चों के महत्व को समझते थे और उनकी देखभाल और शिक्षा पर विशेष ध्यान देने का पक्षधर थे। उनका मानना था कि यदि किसी देश को उन्नति करनी है, तो उसे बच्चों को अच्छी शिक्षा और अवसर प्रदान करने होंगे। उनके अनुसार, बच्चे देश के भविष्य के स्तंभ हैं, और उन पर ध्यान दिए बिना देश का विकास संभव नहीं है। नेहरू जी के विचारों का महत्व आज भी बना हुआ है। बाल दिवस के अवसर पर, स्कूलों में बच्चों के लिए विशेष कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। शिक्षक बच्चों के साथ खेलकूद करते हैं, सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, और बच्चों को विशेष उपहार दिए जाते हैं। इन गतिविधियों का उद्देश्य बच्चों को उनकी क्षमताओं और आत्मविश्वास का एहसास कराना है।

बाल दिवस के अवसर पर बच्चों के अधिकारों की ओर ध्यान दिया जाता है। भारत में कई बच्चे गरीबी, बाल मजदूरी, शिक्षा की कमी, और अन्य कई समस्याओं का सामना कर रहे हैं। बाल दिवस समाज को इन समस्याओं के प्रति जागरूक करने का अवसर प्रदान करता है। आज के दिन सरकार और सामाजिक संगठन विभिन्न कार्यक्रमों और योजनाओं के माध्यम से बच्चों की सुरक्षा, स्वास्थ्य और शिक्षा के प्रति जागरूकता फैलाते हैं। बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र ने भी कई समझौतों और घोषणाओं को मान्यता दी है। भारत में भी बाल अधिकारों की रक्षा के लिए कई कानून बनाए गए हैं जैसे - शिक्षा का अधिकार अधिनियम, बाल श्रम निषेध और विनियमन अधिनियम, आदि। बाल दिवस पर इन अधिकारों के महत्व को समझने और बच्चों के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाने की आवश्यकता पर बल दिया जाता है।

बाल दिवस के अवसर पर देश भर में कई कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। विभिन्न स्कूलों में बच्चों के लिए खेलकूद, सांस्कृतिक गतिविधियाँ, नृत्य, संगीत, और नाटकों का आयोजन किया जाता है। इन गतिविधियों का उद्देश्य बच्चों को मनोरंजन के साथ-साथ उनके व्यक्तित्व का विकास करना भी होता है। इसके अतिरिक्त, कई सरकारी और गैर-सरकारी संगठन गरीब और जरूरतमंद बच्चों के लिए विशेष कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं। इस दिन बच्चों को मुफ्त शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएँ, और आवश्यक सामग्रियाँ वितरित की जाती हैं। बाल दिवस समाज को यह याद दिलाता है कि सभी बच्चों को समान अवसर मिलना चाहिए, चाहे वे किसी भी आर्थिक, सामाजिक या धार्मिक पृष्ठभूमि से हों।

हालांकि बाल दिवस एक उत्सव का अवसर है, लेकिन यह बच्चों के समक्ष मौजूद कई चुनौतियों पर विचार करने का समय भी है। भारत में लाखों बच्चे अभी भी बाल मजदूरी, बाल शोषण, बाल विवाह, और कुपोषण जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। सरकारी प्रयासों के बावजूद, कई बच्चों को शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएँ नहीं मिल पातीं। देश में कुपोषण एक बड़ी समस्या है। कई बच्चे उचित पोषण के अभाव में कमज़ोर होते हैं और विभिन्न बीमारियों का शिकार हो जाते हैं। बाल दिवस के अवसर पर हमें इन समस्याओं के प्रति जागरूक होना चाहिए और यह संकल्प लेना चाहिए कि हम बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए आवश्यक कदम उठाएँगे।

बाल दिवस केवल एक उत्सव नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा दिन है जो हमें बच्चों के भविष्य के प्रति जागरूक करता है। बाल दिवस के अवसर पर हमें यह समझना चाहिए कि बच्चों का विकास ही हमारे देश का विकास है। बच्चों को स्वस्थ, सुरक्षित, और शिक्षा का अधिकार देना हमारी जिम्मेदारी है। हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बच्चों को एक ऐसा वातावरण मिले जहाँ वे स्वतंत्रता और सुरक्षा के साथ अपने जीवन का आनंद ले सकें। बाल दिवस हमें यह याद दिलाता है कि बच्चों के भविष्य की रक्षा के लिए हमें वर्तमान में उनके लिए बेहतर अवसर उपलब्ध कराने होंगे।

बाल दिवस एक महत्वपूर्ण अवसर है जो हमें बच्चों के अधिकारों, उनके कल्याण, और उनकी सुरक्षा के प्रति हमारे कर्तव्यों की याद दिलाता है। पंडित नेहरू के बच्चों के प्रति प्रेम और उनकी सोच को सम्मानित करने का यह दिन समाज में बच्चों के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करने का अवसर प्रदान करता है। आज के बच्चे कल के नागरिक हैं, और उनके स्वास्थ्य, शिक्षा, और संरक्षण की दिशा में उठाए गए कदम ही एक समृद्ध और उन्नत समाज की नींव रख सकते हैं। इसलिए, हर वर्ष बाल दिवस को और भी उत्साहपूर्वक मनाकर हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बच्चों को उनके अधिकार मिलें और उनका भविष्य सुरक्षित हो।

नववर्ष 2025: नवीन आशाओं और संभावनाओं का स्वागत : Dr. Rajesh Chauhan

  नववर्ष 2025: नवीन आशाओं और संभावनाओं का स्वागत साल का अंत हमारे जीवन के एक अध्याय का समापन और एक नए अध्याय की शुरुआत का प्रतीक होता है। यह...