लोकसंस्कृति किसी क्षेत्र के सभ्य समाज का दर्पण है, और लोकगीत वहां के जनजीवन का अभिन्न हिस्सा। जन्म से मृत्यु तक, हर अवसर और संस्कार का वर्णन इन गीतों में मिलता है। सोलह संस्कारों में मृत्यु को छोड़कर, अन्य सभी संस्कारों पर गाए जाने वाले मंगल गीतों को संस्कार गीत कहा जाता है। अनाम रचनाकारों द्वारा रचे ये लोकगीत पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से प्रचलित होते हुए समाज की सामूहिक अभिव्यक्ति बन गए हैं। लोकगीत न केवल मनोरंजन का माध्यम हैं, बल्कि समाज की संस्कृति, परंपरा और भावनाओं के संवाहक भी हैं। वास्तव में, लोकगीतों में ही जनजीवन का सार निहित है।
लोकगीतों के संरक्षण और संवर्द्धन के क्षेत्र में साहित्यकार और वरिष्ठ पत्रकार रामलाल पाठक का योगदान अत्यंत प्रशंसनीय है। रामलाल पाठक का जन्म 17 मई 1959 को बिलासपुर जिला की सदर तहसील की नवगठित ग्राम पंचायत निहारखन बासला के छोटे से गांव निहारखन बासला (चिड़की) में हुआ है। ये लम्बे अर्से से पत्रकारिता, साहित्य और लोक संस्कृति के क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं। हाल ही में प्रकाशित उनकी पुस्तक "हिमाचली पहाड़ी लोकगीतों में जनजीवन" में प्रदेश के लोकगीतों का विवेचनात्मक और विश्लेषणात्मक वर्णन किया गया है। हालांकि, इसमें जनजातीय क्षेत्रों के लोकगीतों और निचले हिमाचल के सभी पारंपरिक गीतों को शामिल नहीं किया गया है, फिर भी लेखक ने हिमाचल के विभिन्न जिलों—चंबा, बिलासपुर, कांगड़ा, मंडी, सोलन, शिमला, ऊना और हमीरपुर—के अनेक लोकगीतों का गहराई से अध्ययन कर, उनकी व्याख्या सहित वर्णन प्रस्तुत किया है।
पुस्तक में जन्म और विवाह संस्कार गीतों के साथ-साथ हिमाचल प्रदेश के अन्य पारंपरिक गीतों को भी शामिल किया गया है। लेखक ने लोकनाट्य धाजा और गुग्गा लोक गाथा में स्थानीय बोली में गाए जाने वाले गीतों का वर्णन किया है, जो इन लोक कलाओं की गहराई और संस्कृति को उजागर करते हैं। प्रदेशभर में गाए जाने वाले प्रसिद्ध "गंगी" गीत को भी पुस्तक में विशेष स्थान दिया गया है। यह लोकगीत घर और गांवों में नहीं, बल्कि खेतों और जंगलों में गाए जाने की परंपरा को दर्शाता है। सावन के महीने में गाए जाने वाले गीतों और मोर से संबंधित धार्मिक व पारंपरिक गीतों को भी संग्रह में सम्मिलित किया गया है। स्त्रियों और पुरुषों के आपसी प्रेम को अभिव्यक्त करने वाले गीत, और गिद्धा नृत्य के दौरान गाई जाने वाली स्थानीय बोली की बोलियों का भी पुस्तक में अर्थ सहित वर्णन किया गया है। यह संग्रह मात्र गीतों का नहीं, बल्कि हिमाचली लोकजीवन की समृद्ध परंपरा का जीवंत दस्तावेज है। पुस्तक में कुल 18 लेख हैं, जो हिमाचली लोकगीतों के विविध पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं।
पुस्तक में संस्कार गीतों में प्रसूता की प्रसव वेदना से लेकर नवजात शिशु के स्वागत और नानी व अन्य रिश्तेदारों द्वारा दिए जाने वाले उपहारों का उल्लेख किया गया है। शिशु के जन्म को भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण के जन्म से तुलना करते हुए गाए जाने वाले गीत का वर्णन इस प्रकार है:
जुध्या जे नगरी सुनो मेरी बहनो,
दशरथा रे घरे जमेया लाल,
जमेया नानकिये सुनेया,
तां पर कुहरे नगारे।
तां पर बांडियां बधाइयां।
भावार्थ: एक महिला दूसरी महिला से कहती है कि अयोध्या में राजा दशरथ के घर पुत्र-रत्न का जन्म हुआ। जब यह शुभ समाचार नवजात के ननिहाल पहुंचा, तो वहां मंगल ध्वनि के साथ नगाड़े बजाए गए और एक-दूसरे को बधाइयां दी गईं। विवाह संस्कार गीतों में तेल-उबटन से लेकर वधू-प्रवेश तक की रस्मों का सुंदर वर्णन किया गया है। इनमें अल्पाहार और भोजन के दौरान दूल्हे के रिश्तेदारों और बारातियों पर गाए जाने वाले व्यंग्यात्मक सीठनियां गीतों (गालियों) का भी उल्लेख मिलता है:
छोलेया मिसी दाल मुईए,
रिजदी कोरी डिबड़िया,
जनेती बैठे खाने,
मुईए बुआ चड़ियां कुगलियां।
अर्थात: नए बर्तनों में चने-मिश्रित दाल पक रही है। बाराती भोजन करने बैठे हैं, और उनकी बुआ उनके कंधे पर चढ़ रही है। विदाई के गीत जहां लोगों की आंखें नम कर देते हैं, वहीं बारातियों के "भात बांधने" के गीत का भी उल्लेख किया गया है, हालांकि उसकी कुछ पंक्तियां पुस्तक में शामिल नहीं की गईं। पुस्तक में लोकनाट्य धाजा के गीतों को स्थानीय बोली में संकलित कर उनके अर्थ सहित हिंदी में प्रस्तुत किया गया है। लोकनाट्य में दाई स्वांग में गाए जाने वाले व्यंग्यात्मक लोकगीत का उदाहरण इस प्रकार है:
दाई आई बल्ल ओ दाई आई,
पानी डोड पहाड़ दा,
अठारह गज दी घघरी बनदी,
हल्का कद बचारी दा।
भावार्थ: दाई कमजोर है और उसने अठारह गज की लंबी घाघरी पहन रखी है, जिससे वह चल भी नहीं पा रही है। गीत में आगे कहा गया है कि दाई के सोलह पुत्र और सत्रह बेटियां हैं, लेकिन उसने कभी अपने पति को नहीं देखा। गुग्गा गाथा में गायक कलाकार श्रोताओं को बांधे रखने के लिए अपनी बोली में व्यंग्य प्रहार करते हैं, जैसे:
जे तू बाछला जो पुत्र नी देणा,
तां आसां रहना नी तेरे पास,
नौ लख चेला भी तेरे ते गवाऊं,
तू कहला रही जाना ठीकर दास।
भावार्थ: गायक कलाकार गाते हैं कि गुरु गोरखनाथ द्वारा बाछल रानी को पुत्र का वरदान न दिए जाने पर, उनका प्रिय चेला गुरु को चेतावनी देता है कि वह सभी चेलों को भड़काकर गुरु को अकेला छोड़ देगा। पुस्तक में संस्कार गीतों के अलावा धार्मिक और घटनाप्रद लोकगीतों को भी स्थान दिया गया है। धार्मिक लोकगीतों में भगवान शिव, शक्ति, श्रीराम, श्रीकृष्ण और अन्य देवी-देवताओं से संबंधित गीत शामिल हैं। श्रीकृष्ण और गुज्जरों से जुड़े गीत भी प्रमुख हैं, जिन्हें विभिन्न आयोजनों में गाया जाता है।
त्याग और समर्पण की प्रतीक देवी रुक्मणी की कथा में क्षेत्र में पानी की समस्या के समाधान के लिए उनके बलिदान का वर्णन किया गया है। बिलासपुर के बरसंड और गेहड़वीं क्षेत्र में आज भी तरेड़ गांव के लोग रुक्मणी कुंड के पानी को न पीने की परंपरा का पालन करते हैं। सावन माह की मस्ती और मोर पक्षी के धार्मिक महत्व का भी पुस्तक में जिक्र है। सावन के गीत और मोर के संबंध में गाए जाने वाले पारंपरिक गीतों का उदाहरण है:
पहाड़ा दा नजारा संजो प्यारा लगदा,
पपीहा बोले, मोर बोले,
जंगला चकोर बोले,
गदिये जो गद्दणी रा बालू प्यारा लगदा।
भावार्थ: पहाड़ का नजारा प्यारा लगता है। पपीहा, मोर और चकोर बोल रहे हैं, और गद्दी को गद्दिण की नथ प्यारी लग रही है। घटनाप्रद लोकगीतों में क्षेत्र विशेष की घटनाओं का उल्लेख किया गया है। बिलासपुर का मोहणा गीत भ्रातृ-प्रेम का सजीव उदाहरण प्रस्तुत करता है, जहां मोहन नामक युवक अपने बड़े भाई के अपराध की सजा स्वयं लेकर फांसी पर चढ़ जाता है। "गंगी" जैसा लोकगीत, जिसे घर या गांव में नहीं, बल्कि खेतों और जंगलों में गाया जाता है, पुस्तक में प्रमुखता से वर्णित है। गंगी गीतों में पुरुष और महिलाएं सवाल-जवाब के माध्यम से गीत गाते हैं, जैसे:
तेरे अंगना जे चक्के गढ़ने,
पारा ते तूं वार आइजा,
आसा गल्ला रे खड़ाके करने।
भावार्थ: प्रेमी अपनी प्रेमिका से कहता है कि वह उसके पास आए और दोनों साथ बैठकर दिल की बातें करें। पुरुषों और महिलाओं के प्रेम-प्रसंगों पर आधारित लोकगीतों में रांजू-फुलमू, कुंजू-चंचलो, चंदो ब्राह्मणी-लछिया, गंगी-सुंदर, और देवकू-जिंदू जैसे पात्रों के गीत प्रमुख हैं। पुस्तक में गिद्धा नृत्य के दौरान गाए जाने वाले बोलियां गीतों को भी प्रस्तुत किया गया है:
तोड़ गइयां यो नजरां,
दिल मेरा तोड़ गइयां।
अंतरा: शिमले ते आइयां भरी-भरी गड़ियां,
ओ दाड़ले गे मोड़ गइयां।
तोड़ गइयां यो नजरां,
दिल मेरा तोड़ गइयां।
पुस्तक में पहाड़ी लोकगीतों के माध्यम से हिमाचली बोलियों को समृद्ध करने पर भी एक लेख प्रकाशित है। इसमें विभिन्न जिलों के गीतों को एकरूपता प्रदान करने की संभावनाओं का जिक्र किया गया है।
महान अदाकारा गम्भरी के जीवन और उनके गाए गए गीतों का विवरण पुस्तक को विशेष बनाता है। गम्भरी के लोकप्रिय गीत का उल्लेख इस प्रकार है:
"खाना-पीना नन्द लैणी"
ओ गम्भरिए खाना-पीना नन्द लैणी
नाच तां नाची गई बंदले री गम्भरी
ओ ढोलकी बजाई गया जैंढू ।
ओ गम्भरिए खाना-पीना नन्द लैणी
अन्तरा : किनें तां खोली तेरे बंगले री खिड़की
ओ किनें मारिया खंगारा
गम्भरिए खाना-पीना नन्द लैणी ओ ।"
भावार्थ : जिंदगी को मौज़-मस्ती से जीना चाहिए। जो पसंद हो वो खाना -पीना चाहिए और आनंद में रहना चाहिए। गंभरी बेहतरीन नृत्यांगना थीं और जैण्डू उसके साथ ढोलक बजाया करता था। किसने बंगले की खिड़की खोली है तथा कौन खांस कर इशारे कर रहा है । प्रतिउतर में कहा गया कि जो चतुर था उसने चुपके से खिड़की खोली तथा मूर्ख खांसते हुए इशारे कर रहा है ।
उनका यह गीत हर किसी की जुबान पर है। उच्च दर्जे की नृत्यांगना के साथ ही गम्भरी गजब की लोकगायिका भी थी । अनपढ़ होने के बाबजूद वह समय और परिस्थितियां देखकर गीत बनाती और तत्काल गाकर सुना देती थी। बड़े बुजुर्ग आज भी गम्भरी की महफिलों को याद करते हैं । पुस्तक में अंतरराष्ट्रीय लोक नर्तकी फूलां चंदेल के नृत्य और उनके लोकगीतों को विदेशों में फैलाने के योगदान का भी वर्णन है।
आज की युवा पीढ़ी, जो पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित हो रही है, अपनी लोक संस्कृति और भाषाओं से अनभिज्ञ होती जा रही है। हमारी लोक भाषा और लोक कलाएं केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं हैं वे हमारे जीवन के मूल्यों, विचारों और समाज की आत्मा को व्यक्त करती हैं। यदि हम इन्हें संरक्षित नहीं करेंगे, तो यह केवल सांस्कृतिक क्षति नहीं होगी, बल्कि हमारी पहचान पर भी संकट खड़ा होगा। इसलिए, यह अत्यंत आवश्यक है कि हम युवा पीढ़ी को अपनी संस्कृति से जोड़ने के लिए हर संभव प्रयास करें, ताकि आने वाली पीढ़ियां हमारी परंपराओं पर गर्व महसूस कर सकें और उन्हें आत्मसात कर सकें। साहित्यकार रामलाल पाठक द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक आने वाली पीढ़ियों को अपनी लोक परंपराओं से जोड़ने का एक सफल प्रयास है।