हिमाचल प्रदेश, जिसे देवभूमि के नाम से जाना जाता है, पश्चिमी हिमालय की गोद में बसा एक ऐसा प्रदेश है, जहां प्राकृतिक सुंदरता, सांस्कृतिक समृद्धि और धार्मिक परंपराओं का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। यहां की भूमि न केवल अपनी बर्फ से ढकी पर्वत चोटियों, हरी-भरी घाटियों और निर्मल जल धाराओं के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि इसकी प्राचीन सांस्कृतिक धरोहरें और अद्वितीय धार्मिक अनुष्ठान भी इसकी पहचान हैं। हजारों वर्षों से हिमाचल प्रदेश ऋषि-मुनियों, तपस्वियों और देवताओं का निवास स्थल रहा है। यहां की संस्कृति में धार्मिक आस्थाओं और सामाजिक परंपराओं का ऐसा ताना-बाना बुना हुआ है, जो इसे पूरे भारत में विशिष्ट बनाता है।
इन्हीं सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं का प्रतीक है भूंडा महायज्ञ, जो हिमाचल प्रदेश की देव परंपरा और सामाजिक एकता का जीता-जागता उदाहरण है। यह महायज्ञ न केवल एक धार्मिक आयोजन है, बल्कि यह समाज में भाईचारे, शांति और समृद्धि की भावना को बढ़ावा देने वाला एक महत्वपूर्ण अवसर भी है। भूंडा महायज्ञ हिमाचल प्रदेश की सांस्कृतिक और पौराणिक धरोहरों में से एक ऐसा आयोजन है, जो अपने अनूठे स्वरूप और जटिल प्रक्रिया के कारण पूरे देश में चर्चित है।
भूंडा महायज्ञ का इतिहास प्राचीन भारतीय पौराणिक कथाओं में गहराई से रचा-बसा है। इसकी उत्पत्ति का संबंध भंडासुर नामक असुर से जुड़ा है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भंडासुर ने अपनी शक्ति और अहंकार के बल पर देवताओं को पराजित कर दिया था। देवताओं ने अपनी मुक्ति के लिए भगवान विष्णु की शरण ली। भगवान विष्णु ने देवी शक्ति की सहायता से भंडासुर का वध किया। इस विजय के बाद, देवताओं ने इस महान घटना को चिरस्थायी बनाने के लिए भूंडा महायज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञ के माध्यम से उन्होंने पृथ्वी पर शांति और समृद्धि स्थापित करने का प्रयत्न किया।
यह भी कहा जाता है कि इस यज्ञ का प्रारंभ भगवान परशुराम की प्रेरणा से हुआ। परशुराम, जो स्वयं भगवान विष्णु के छठे अवतार थे, ने इसे एक धार्मिक अनुष्ठान के रूप में प्रचारित किया। भूंडा महायज्ञ का पहला आयोजन मंडी जिले के करसोग तहसील के काव गांव में हुआ। यह स्थान आज भी अपने कामाक्षा देवी मंदिर और महायज्ञ के प्राचीन अवशेषों के लिए प्रसिद्ध है। इसके बाद यह परंपरा मंडी के ममेल, शिमला के निरथ और कुल्लू जिले के निरमंड तक फैल गई। इन सभी स्थानों पर भूंडा महायज्ञ को देवताओं के प्रति श्रद्धा और समाज में शांति लाने के लिए आयोजित किया गया।
हिमाचल प्रदेश में देवतंत्र की परंपरा अत्यंत प्राचीन और महत्वपूर्ण है। यहां का हर गांव अपने एक स्थानीय देवता का आराधक होता है। ये देवता समाज के संरक्षक माने जाते हैं और गांव की हर समस्या का समाधान देवताओं की सलाह से होता है। भूंडा महायज्ञ का आयोजन भी देवताओं की सहमति और मार्गदर्शन से ही किया जाता है।
भूंडा महायज्ञ में बेड़ा व्यक्ति का चयन, रस्सी निर्माण, और अनुष्ठानों की पूरी प्रक्रिया देवता की स्वीकृति के बाद ही होती है। इसे देवताओं और समाज के बीच की एक कड़ी माना जाता है, जो यह दर्शाता है कि हिमाचल प्रदेश में देवता न केवल धार्मिक, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना का भी अभिन्न अंग हैं। भूंडा महायज्ञ की तैयारियां अत्यंत जटिल और परंपरागत होती हैं। इसका आयोजन एक वर्ष पूर्व ही शुरू हो जाता है।
भूंडा महायज्ञ की रस्सी को विशेष प्रकार की मूज घास से बनाया जाता है। यह रस्सी लगभग 300 मीटर लंबी होती है और इसे मजबूत बनाने के लिए तीन महीने तक स्वच्छ नाले के पानी में भिगोकर रखा जाता है। भूंडा महायज्ञ का केंद्र बिंदु बेड़ा व्यक्ति होता है। यह व्यक्ति देवता के माध्यम से चुना जाता है और उसे अनुष्ठान में मुख्य भूमिका निभानी होती है। बेड़ा व्यक्ति को गांव में अत्यंत सम्मान के साथ लाया जाता है। उसके रहने, खाने और अन्य आवश्यकताओं का खर्च देवता और गांववाले मिलकर उठाते हैं।
महायज्ञ का आरंभ हवन कुंड में मंत्रोच्चारण और हवन के साथ होता है। रस्सी को दो ऊंचे खंभों के बीच बांधा जाता है, जो एक गहरे नाले या खड्ड को पार करती है। रस्सी के ऊपरी सिरे पर अखरोट की लकड़ी से बनी एक काठी बांधी जाती है, जिस पर बेड़ा व्यक्ति को बिठाया जाता है। काठी में संतुलन के लिए रेत से भरी बोरियां बांधी जाती हैं। बेड़ा व्यक्ति के हाथों में सफेद झंडे होते हैं और उसे रस्सी पर नीचे की ओर फिसलाया जाता है। इस प्रक्रिया को हजारों श्रद्धालु दम साधे हुए देखते हैं। जब बेड़ा सुरक्षित नीचे पहुंचता है तो लोग खुशी से झूम उठते हैं। इसके बाद उसे देवता की पालकी में बैठाकर मंदिर ले जाया जाता है जहां उसे सम्मान और उपहार दिए जाते हैं।
हालही में के रोहड़ू के दलगांव में आयोजित ऐतिहासिक भुंडा महायज्ञ के दौरान सूरत राम ने घास से बनी रस्सी के सहारे मौत की घाटी को पार कर 'बेड़ा रस्म' को सफलतापूर्वक निभाया। यह अद्वितीय रस्म हजारों श्रद्धालुओं की उपस्थिति में संपन्न हुई। दावा किया जा रहा है कि इस महायज्ञ में एक लाख से अधिक लोग शामिल हुए। बेड़ा रस्म के दौरान रस्सी को जोड़ने में कुछ कठिनाइयाँ आईं जब कुछ लोगों के हाथ से रस्सी गिर गई। हालांकि, स्थानीय लोगों ने स्थिति संभालते हुए रस्सी को ठीक से बांध दिया जिसके बाद रस्म निभाने में थोड़ा अधिक समय लगा। 65 वर्षीय सूरत राम ने नौवीं बार इस रस्म को अदा किया। यह रस्म निभाने के लिए उन्होंने विशेष घास से ढाई महीने में रस्सी तैयार की थी जिसमें चार अन्य लोगों का सहयोग भी शामिल था। सूरत राम ने इसे एक दैवीय कार्य बताया और कहा कि आस्था उनके डर से कहीं आगे है। इस रस्सी को नाग का प्रतीक माना जाता है और यह भुंडा महायज्ञ का प्रमुख हिस्सा है। इस रस्म का महत्व रामायण और महाभारत काल के नरमेध यज्ञ से जोड़ा जाता है।
बेड़ा बनने के लिए कठोर नियमों का पालन करना पड़ता है। महायज्ञ से तीन महीने पूर्व बेड़ा को अपने घर जाने की अनुमति नहीं होती। उसे देवता के मंदिर में ब्रह्मचर्य और मौन व्रत का पालन करना पड़ता है। 24 घंटे में केवल एक बार मंदिर में बना भोजन दिया जाता है। इस अवधि के दौरान बाल और नाखून काटने पर भी प्रतिबंध रहता है। 1985 में बकरालू महाराज के मंदिर में इस रस्म का आयोजन हुआ था जब 21 वर्षीय सूरत राम ने पहली बार यह रस्म निभाई थी। आज, 40 वर्षों के बाद, उन्होंने नौवीं बार इसे सफलतापूर्वक पूरा किया। इस महायज्ञ की तैयारियाँ तीन वर्षों से चल रही थीं। देश-विदेश में रहने वाले स्थानीय लोग भी इस अनुष्ठान के लिए अपने घर लौटे।
रोहड़ू की स्पैल घाटी के दलगांव में आयोजित इस महायज्ञ में स्पैल घाटी के प्रमुख देवता बौंद्रा महाराज, महेश्वर और मोहरी पहुंचे। इनके साथ हजारों श्रद्धालु और देवलू (देवता के कारदार) भी उपस्थित रहे। स्पैल घाटी के भमनाला, करालश, खोड़सू, दयारमोली, बश्टाड़ी, गावणा, बठारा, कुटाड़ा, खशकंडी, दलगांव और भेटली गांवों के 1500 से अधिक परिवारों ने मेजबानी की।
भूंडा महायज्ञ केवल धार्मिक आयोजन नहीं है। यह समाज में भाईचारे और सामूहिकता की भावना को प्रोत्साहित करता है। यह यज्ञ देवताओं के प्रति आस्था और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का प्रतीक है। भूंडा महायज्ञ का मुख्य उद्देश्य समाज में सुख-शांति और समृद्धि स्थापित करना, प्राकृतिक आपदाओं को रोकना, और गांवों में सामाजिक एकता और भाईचारे को बढ़ावा देना है। समय के साथ भूंडा महायज्ञ को और अधिक भव्य रूप दिया गया है। 2005 में रोहड़ू के बच्छूंच गांव और 2006 में रामपुर के देवठी गांव में इसके आयोजन ने इसे वैश्विक स्तर पर चर्चा में ला दिया। हाल ही में, यह महायज्ञ रोहड़ू के दलगांव में आयोजित किया गया जिसमें लाखों श्रद्धालुओं ने भाग लिया।
भूंडा महायज्ञ न केवल हिमाचल प्रदेश की प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है, बल्कि यह सामाजिक और धार्मिक एकता का भी अद्वितीय उदाहरण है। यह महायज्ञ हिमाचल की सांस्कृतिक विविधता और धार्मिक परंपराओं को उजागर करता है। यह आयोजन हमें यह सिखाता है कि समाज में शांति और समृद्धि लाने के लिए सामूहिक प्रयास और आध्यात्मिक आस्था का होना कितना महत्वपूर्ण है। भूंडा महायज्ञ आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है और इसे संरक्षित करना हमारा कर्तव्य है। हिमाचल प्रदेश की यह सांस्कृतिक विरासत हमारी पहचान है, जिसे हमें गर्व के साथ आगे बढ़ाना चाहिए। भूंडा महायज्ञ देवभूमि की उस अमूल्य धरोहर का प्रतीक है, जो हमें हमारी जड़ों से जोड़े रखती है।
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