शान्ति के अग्रदूत थे नेल्सन मंडेला
- डाॅ.राजेश के चौहान
एक व्यक्ति जिसके विचारों को 67 वर्षों तक नज़र अंदाज़ कर दरकिनार किया गया, उसे डराया-धमकाया गया, अमानवीय यातनाएं दी गईं, देशद्रोही करार दिया गया लेकिन फिर भी वह अडिग, अविचलित, अनवरत अपने मार्ग पर चलता रहा और एक दिन दक्षिण अफ्रीका का राष्ट्रपति बना और विश्वपटल पर शान्ति का अग्रदूत बनकर उभरा। रंगभेद के खिलाफ उनके द्वारा स्थापित किए गए मानवीय मूल्यों की अवधारणा के फलस्वरूप आज पूरा विश्व उन्हें याद करता है।
नेल्सन मंडेला एक व्यक्ति नहीं वरन् विचार थे। 'नेल्सन मंडेला अन्तर्राष्ट्रीय दिवस' या 'मंडेला दिवस' वार्षिक अन्तर्राष्ट्रीय दिवस है जो प्रत्येक वर्ष 18 जुलाई को उनके जन्मदिन के अवसर पर मनाया जाता है। इस दिवस को प्रत्येक वर्ष मनाने की घोषणा 2009 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा की गयी थी। पहला संयुक्त राष्ट्र मंडेला दिवस 18 जुलाई 2010 को मनाया गया था। हालांकि उनके समर्थक कुछ समूहों ने इस दिवस को 18 जुलाई 2009 से ही मनाना शुरू कर दिया था।
नेल्सन मंडेला दिवस उनके द्वारा दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद एवं भेदभावपूर्ण व्यवस्था को समाप्त करने में उनके महत्वपूर्ण योगदान के कारण मनाया जाता है। 27 अप्रैल 2009 के दिन नेल्सन मंडेला दिवस को राजकीय तौर पर मनाने के लिए नेल्सन मंडेला फाउंडेशन और अन्य संगठनों ने मिलकर वैश्विक समुदाय का समर्थन माँगा। यह दिवस एक सार्वजनिक अवकाश के रुप में नहीं बल्कि एक ऐसा दिवस है जो दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला द्वारा अपनाये गए मूल्यों के सम्मान में, स्वयं सेवा और सामुदायिक सेवा करके मनाया जाता है। नेल्सन मंडेला ने रंगभेद के विरुद्ध लगभग 67 वर्षों तक लड़ाई लड़ी थी इसलिए इस दिन लोगों से 24 घंटों में से 67 मिनट जरूरतमंद लोगों की सेवा में दान देने का आग्रह किया जाता है।
नेल्सन मंडेला को दक्षिण अफ्रीका के लोग व्यापक रूप से “राष्ट्रपिता”मानते हैं, उन्हें लोकतंत्र के प्रथम संस्थापक “राष्ट्रीय मुक्तिदाता और उदारकरता” माना जाता था। वर्ष 2004 में जोहान्सबर्ग में स्थित सेंट्रल स्क्वेयर शॉपिंग सेंटर में नेलसन मंडेला की मूर्ति स्थापित की गई और सेंटर का नाम बदलकर 'नेल्सन मंडेला स्क्वायर' रखा गया। दक्षिण अफ्रीका के लोग उन्हें प्यार से “मदीबा” कहकर बुलाया करते थे जो बुज़ुर्गों के लिए एक सम्मान सूचक शब्द है।
नेल्सन मंडेला का जन्म 18 जुलाई, 1918 के दिन म्वेज़ो, स्टैंड कैप दक्षिण अफ्रीका मैं हुआ था। उनके पिता का नाम गेडला हेंनरी म्फ़ाकेनिस्वा था। उनकी तीन पत्नियां थीं, उनकी तीसरी पत्नी जिनका नाम नेक्यूफी था, से नेलसन मंडेला का जन्म हुआ था। उनके पिता थेम्बु कबीले के मुखिया तथा शाही परिवार के सलाहकार थे। स्थानीय भाषा में कबीले के मुखिया के बेटे को मंडेला कहते थे, उन्हें अपना उपनाम 'मंडेला' यहीं से मिला। पिता ने इनका नाम 'रोलिहलाहला' रखा था जिसका शाब्दिक अर्थ "उपद्रवी" होता है। उनका मूल नाम रोलिहलाहला दलिभुंगा था। उनके स्कूल में एक शिक्षक ने उन्हें उनका अंग्रेजी नाम नेल्सन दिया। मंडेला की माता मेथोडिस्ट इसाई थीं। नेल्सन ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा क्लार्कबेरी मिशनरी स्कूल से पूरी की तथा उसके बाद मेथोडिस्ट मिशनरी स्कूल चले गए। मात्र 12 वर्ष की आयु में उनके पिता की मृत्यु हो गयी थी।
नेल्सेन मंडेला महात्मा गांधी के अहिंसा के सिद्धांत, विशेष रुप से वक़ालत के दिनों में दक्षिण अफ्रीका के उनके आंदोलनों से काफी प्रेरित थे। उन्होंने ने भी हिंसा पर आधारित रंगभेदी सरकार के खिलाफ अहिंसा के माध्यम से संघर्ष किया। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी शासन के खिलाफ मंडेला की लड़ाई को भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ गांधी की लड़ाई के समान समझा जाता है। 'सत्य और अहिंसा' के लिए गांधी की हमेशा प्रशंसा करने वाले नेलसन ने 1993 में दक्षिण अफ्रीका में गांधी स्मारक का अनावरण करते हुए कहा था, गांधी हमारे इतिहास का अभिन्न हिस्सा हैं, क्योंकि उन्होंने यहीं सबसे पहले सत्य के साथ प्रयोग किया, यहीं न्याय के लिए अपनी दृढ़ता जताई, यहीं एक दर्शन एवं संघर्ष के तरीके के रूप में सत्याग्रह का प्रसार किया।
अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस का आंदोलन गांधीवादी दर्शन से अत्यधिक प्रभावित था। गांधी के दर्शन ने 1952 के अवज्ञा अभियान के दौरान लाखों दक्षिण अफ्रीकियों को एकजुट करने में मदद की। इस अभियान ने अफ्रीकन कांग्रेस को लाखों जनता से जुड़े एक मज़बूत संगठन के रुप पर स्थापित किया। मंडेला गांधी का सबसे ज्यादा आदर अहिंसा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के लिए करते थे।
वर्ष 1941 में तेइस साल की उम्र में उनकी शादी की जा रही थी लेकिन नेल्सन जोहान्सबर्ग भाग गए। उसके दो वर्ष पश्चात वे अफ्रीकानेर विटवाटरस्रांड विश्वविद्यालय में वकालत की पढ़ाई करने लगे। वहां उनकी मुलाक़ात सभी नस्लों और पृष्टभूमि के लोगों से हुई। इस दौरान वे उदारवादी, कट्टरपंथी और अफ्रीकी विचारधाराओं के संपर्क में भी आए। इस दौरान उन्होंने नस्लभेद और भेदभाव को महसूस किया परिणामस्वरुप राजनीति के प्रति उनमें जुनून जागृत हुआ।
जोहान्सबर्ग आकर के मंडेला ने देखा कि सत्तासीन गोरे लोग अश्वेत अफ्रीकी लोगों से कितना दुर्व्यवहार करते हैं। काले रंग वाले लोगों केवल नियत स्थान पर ही रहने की इजाज़त थी, उनके घर बहुत छोटे और बदहाल थे। जिसमें न बिजली थी और न पानी। उन्हें केवल उन्हीं बसों में यात्रा करने और भोजनालय में खाने की अनुमति थी, जो केवल अश्वेत अफ्रीकन लोगों के लिए निर्धारित किए गए थे।
मंडेला को इससे भी ख़राब लगी पासबुक प्रणाली। इस प्रणाली के तहत जब कोई अश्वेत व्यक्ति नगर के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में काम के लिए जाता, तो उसे एक छोटी पासबुक साथ रखनी होती थी। पासबुक साथ न होने की स्थिति में उन्हें जेल भेजा जा सकता था। अफ्रीकन सरकार ने इस व्यवस्था को अपार्टहाइड या रंगभेद का नाम दिया था। जिसका अर्थ है अलग रखना। अपार्टहाइड व्यवस्था के अंतर्गत गोरे और अश्वेत लोगों के लिए एक साथ खाना-पीना, घूमना-फिरना, खरीदारी करना, एक ही घर में साथ रहना, एक ही स्कूल या गिरजाघर में जाना पूर्णतया प्रतिबंधित था। इस प्रणाली को देखकर मंडेला अत्यधिक द्रवित हुए और उन्होंने इस व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंकने का प्रण लिया।
वकालत की पढ़ाई पूरी कर मंडेला ने अपने एक सहयोगी ओलिवर तंबो के साथ मिलकर वर्ष 1953 में जोहानसबर्ग में कानूनी सहायता का पहला ऐसा दफ्तर खोला जिसमें केवल अश्वेत वकील थे। अपने लोगों को न्याय दिलाने नेल्सन अब विरोध सभाओं, हड़ताल और असहयोग आंदोलन का आयोजन करने लगे। वह “लिबरेशन” नामक समाचार पत्र के लिए लेख लिखते और “फाइटिंग टॉक” नामक पत्रिका के संचालन में भी सहयोग करने लगे। उनका मानना था कि इन गतिविधियों के द्वारा समानता का हक़ पाने के इस संघर्ष में लोगों का जुड़ाव बढ़ेगा। मंडेला ने देखा कि पासबुक मामला और अधिक गहराता जा रहा था। हर साल लाखों अश्वेत दक्षिणी अफ्रीकियों को उचित पासबुक साथ न होने के कारण गिरफ्तार कर उन पर मुक़दमा चला कर प्रताड़ित किया जाता था।
नेल्सन पुरज़ोर मानवता को शर्मसार करने वाली रंगभेद व्यवस्था के आंदोलन में उतर चुके थे। 1956 में लगभग 155 अन्य कार्यकर्ताओं के साथ मंडेला पर देशद्रोह का मामला चलाया गया। चार साल की सुनवाई के बाद उनके खिलाफ लगे सभी आरोप हटा लिए गए। सरकार द्वारा 1960 में अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस को गैरकानूनी घोषित कर आंदोलनकारियों को गिरफ्तार करने के आदेश जारी किए गए। इसी वर्ष शारपेविले में प्रदर्शन कर रहे निहत्थे लोगों पर पुलिस ने गोलियां चलाई। इस नरसंहार में पुलिस ने 69 अश्वेत पुरुष और महिलाओं की गोली मारकर हत्या कर दी थी। इस अमानवीय घटना के विरोध में अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के तत्कालीन उपाध्यक्ष नेल्सन मंडेला ने अपना पासबुक सार्वजनिक रूप से आग के हवाले कर दिया। इस घटना के बाद रंगभेदी शासन के साथ तनाव बहुत बढ़ गया और अब तक चले आ रहे शांतिपूर्ण विरोध का अंत हो गया।
वर्ष 1963 में सरकार ने उन पर संगीन आरोप लगाकर फिर से मुक़दमा शुरु किया। उन पर तोड़फोड़, बिजली घरों एवं अन्य सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने और गोरी सरकार के खिलाफ हिंसक प्रदर्शन करने का आरोप लगा। यह बहुत गंभीर आरोप थे, और इनके साबित होने पर नेल्सन मंडेला को मृत्युदंड भी मिल सकता था। नेल्सन व अन्य लोगों को दोषी करार दिया गया और उन्हें मौत की सजा की जगह आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। मंडेला रोबेन द्वीप पर 18 साल कैद रहे और 1982 में उन्हें यहां से पोल्समूर जेल में स्थानांतरित किया गया।
कारावास का जीवन नेल्सन के लिए बहुत पीड़ादायक था। उन्हें चूने की खदान में खुदाई करनी पड़ती थी। प्रतिदिन घंटों पत्थरों को तोड़कर गिट्टी बनानी होती थी। चट्टानों से घिरे इस इलाके में सूर्य की तेज़ रोशनी ने उनकी आंखों को काफी नुकसान पहुंचाया। उन्होंने धूप के चश्मे की मांग की थी लेकिन मांग पूरी होने में तीन साल लग गए थे।
कारावास की यातनाएं झेलते हुए भी मंडेला ने देश पर अपना प्रभाव डालना जारी रखा। उनसे मिलने वाले आगंतुक नेल्सन के हौसले,दृढ़ निश्चय और बुद्धिमता से अत्यंत प्रभावित होते। वे वापस जाकर उनके बारे में सबको बताते, पत्र-पत्रिकाओं में उनके विचारों को प्रकाशित करवाते। शन्ने: शन्ने: उनका नाम और संघर्ष की चर्चा दक्षिणी अफ्रीका ही नहीं, सारे विश्व में होने लगी। अनेक देशों की सरकारें, राजनीतिक दल, अंतरराष्ट्रीय संगठन और साधारण नागरिक सभी उसकी रिहाई की मांग करने लगे। दक्षिण अफ्रीकी सरकार को आख़िरकार यह महसूस होने लगा कि उनके पास नेल्सन मंडेला को रिहा करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है। अन्तत: देश के नव निर्वाचित राष्ट्रपति विलियम डी क्लार्क ने वर्ष 1990 में मंडेला को बिना किसी शर्त रिहा कर दिया।
27 वर्षों की घोर यातनाओं और कटुता पूर्ण कारावास की समाप्ति के अवसर पर मंडेला ने फिर से उन शब्दों को दोहराया जो उन्होंने अपने मुकदमे के दौरान कहे थे, “मैं अपनी आंखों में उच्च आदर्श लोकतांत्रिक और स्वतंत्र समाज का सपना सजाए हूं, जिसमें सभी नागरिक एक साथ रहेंगे, और जिसे पाने की आशा रखता हूं। लेकिन, यदि आवश्यकता हुई तो इस आदर्श के लिए मैं प्राण देने को भी तैयार हूं”।
नेल्सन मंडेला 10 मई 1994 को दक्षिण अफ्रीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने। वह इस पद पर 14 जून 1999 तक रहे। मंडेला को विश्व के विभिन्न देशों और संस्थानों द्वारा लगभग 250 से भी अधिक सम्मान और पुरस्कार प्रदान किए गए हैं। वर्ष 1993 में दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति विलियम डी क्लार्क के साथ उन्हें संयुक्त रूप से नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया। भारत में उनका बहुत सम्मान है। 1990 में उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया तथा 23 जुलाई 2018 को उन्हें 'गांधी शांति पुरस्कार' से नवाज़ा गया। शान्ति के इस अग्रदूत ने 95 वर्ष की आयु में 5 दिसंबर, 2013 को फेफड़ों में संक्रमण हो जाने के कारण प्राण त्याग दिए थे। "मैं जातिवाद से नफ़रत करता हूँ, मैं इसे बर्बरता मानता हूं , फिर चाहे वह गोरे व्यक्ति से आ रही हो या काले व्यक्ति से। यह किसी भी देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा है"- नेल्सन मंडेला। उनके विचार सदियों तक मानवता को दीप्तिमान करते रहेंगे।