शनिवार, 16 जुलाई 2022

शान्ति के अग्रदूत थे नेल्सन मंडेला

शान्ति के अग्रदूत थे नेल्सन मंडेला


                       ‌‌‌‌‌‌                                                                                                             - डाॅ.राजेश के चौहान

एक व्यक्ति जिसके विचारों को 67 वर्षों तक नज़र अंदाज़ कर दरकिनार किया गया, उसे डराया-धमकाया गया, अमानवीय यातनाएं दी गईं, देशद्रोही करार दिया गया लेकिन फिर भी वह अडिग, अविचलित, अनवरत अपने मार्ग पर चलता रहा और एक दिन दक्षिण अफ्रीका का राष्ट्रपति बना और विश्वपटल पर शान्ति का अग्रदूत बनकर उभरा। रंगभेद के खिलाफ उनके द्वारा स्थापित किए गए मानवीय मूल्यों की अवधारणा के फलस्वरूप आज पूरा विश्व उन्हें याद करता है। 

नेल्सन मंडेला एक व्यक्ति नहीं वरन्  विचार थे। 'नेल्सन मंडेला अन्तर्राष्ट्रीय दिवस' या 'मंडेला दिवस' वार्षिक अन्तर्राष्ट्रीय दिवस है जो प्रत्येक वर्ष 18 जुलाई को उनके जन्मदिन के अवसर पर मनाया जाता है। इस दिवस को प्रत्येक वर्ष मनाने की घोषणा 2009  में संयुक्त राष्ट्र द्वारा की गयी थी। पहला संयुक्त राष्ट्र मंडेला दिवस 18 जुलाई 2010 को मनाया गया था।  हालांकि उनके समर्थक कुछ समूहों ने इस दिवस को 18  जुलाई 2009 से ही मनाना शुरू कर दिया था।

नेल्सन मंडेला दिवस उनके द्वारा दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद एवं भेदभावपूर्ण व्यवस्था को समाप्त करने में उनके महत्वपूर्ण योगदान के कारण मनाया जाता है। 27 अप्रैल 2009 के दिन नेल्सन मंडेला दिवस को राजकीय तौर पर मनाने के लिए नेल्सन मंडेला फाउंडेशन और अन्य संगठनों ने मिलकर वैश्विक समुदाय का समर्थन माँगा। यह दिवस एक सार्वजनिक अवकाश के रुप में नहीं बल्कि एक ऐसा दिवस है जो दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला द्वारा अपनाये गए मूल्यों के सम्मान में, स्वयं सेवा और सामुदायिक सेवा करके मनाया जाता है। नेल्सन मंडेला ने रंगभेद के विरुद्ध लगभग 67 वर्षों तक लड़ाई लड़ी थी इसलिए इस दिन लोगों से 24 घंटों में से 67 मिनट जरूरतमंद लोगों की सेवा में दान देने का आग्रह किया जाता है।

नेल्सन मंडेला को दक्षिण अफ्रीका के लोग व्यापक रूप से “राष्ट्रपिता”मानते हैं, उन्हें लोकतंत्र के प्रथम संस्थापक “राष्ट्रीय मुक्तिदाता और उदारकरता” माना जाता था। वर्ष 2004 में जोहान्सबर्ग में स्थित सेंट्रल स्क्वेयर शॉपिंग सेंटर में नेलसन मंडेला की मूर्ति स्थापित की गई और सेंटर का नाम बदलकर 'नेल्सन मंडेला स्क्वायर' रखा गया। दक्षिण अफ्रीका के लोग उन्हें प्यार से “मदीबा” कहकर बुलाया करते थे जो बुज़ुर्गों के लिए एक सम्मान सूचक शब्द है।

नेल्सन मंडेला का जन्म 18 जुलाई, 1918 के दिन म्वेज़ो, स्टैंड कैप दक्षिण अफ्रीका मैं हुआ था। उनके पिता का नाम गेडला हेंनरी म्फ़ाकेनिस्वा था। उनकी तीन पत्नियां थीं, उनकी तीसरी पत्नी जिनका नाम नेक्यूफी था, से नेलसन मंडेला का जन्म हुआ था। उनके पिता थेम्बु कबीले के मुखिया तथा शाही परिवार के सलाहकार थे। स्थानीय भाषा में कबीले के मुखिया के बेटे को मंडेला कहते थे, उन्हें अपना उपनाम 'मंडेला' यहीं से मिला। पिता ने इनका नाम 'रोलिहलाहला' रखा था जिसका शाब्दिक अर्थ "उपद्रवी" होता है। उनका मूल नाम रोलिहलाहला दलिभुंगा था। उनके स्कूल में एक शिक्षक ने उन्हें उनका अंग्रेजी नाम नेल्सन दिया। मंडेला की माता मेथोडिस्ट इसाई थीं। नेल्सन ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा क्लार्कबेरी मिशनरी स्कूल से पूरी की तथा उसके बाद मेथोडिस्ट मिशनरी स्कूल चले गए। मात्र 12 वर्ष की आयु में उनके पिता की मृत्यु हो गयी थी। 


नेल्सेन मंडेला महात्मा गांधी के अहिंसा के सिद्धांत, विशेष रुप से वक़ालत के दिनों में दक्षिण अफ्रीका के उनके आंदोलनों से काफी प्रेरित थे। उन्होंने ने भी हिंसा पर आधारित रंगभेदी सरकार के खिलाफ अहिंसा के माध्यम से संघर्ष किया। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी शासन के खिलाफ मंडेला की लड़ाई को भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ गांधी की लड़ाई के समान समझा जाता है। 'सत्य और अहिंसा' के लिए गांधी की हमेशा प्रशंसा करने वाले नेलसन ने 1993 में दक्षिण अफ्रीका में गांधी स्मारक का अनावरण करते हुए कहा था, गांधी हमारे इतिहास का अभिन्न हिस्सा हैं, क्योंकि उन्होंने यहीं सबसे पहले सत्य के साथ प्रयोग किया, यहीं न्याय के लिए अपनी दृढ़ता जताई, यहीं एक दर्शन एवं संघर्ष के तरीके के रूप में सत्याग्रह का प्रसार किया।

अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस का आंदोलन गांधीवादी दर्शन से अत्यधिक प्रभावित था। गांधी के दर्शन ने 1952 के अवज्ञा अभियान के दौरान लाखों दक्षिण अफ्रीकियों को एकजुट करने में मदद की। इस अभियान ने अफ्रीकन कांग्रेस को लाखों जनता से जुड़े एक मज़बूत संगठन के रुप पर स्थापित किया। मंडेला गांधी का सबसे ज्यादा आदर अहिंसा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के लिए करते थे। 

वर्ष 1941 में तेइस साल की उम्र में उनकी शादी की जा रही थी लेकिन नेल्सन जोहान्सबर्ग भाग गए। उसके दो वर्ष पश्चात वे अफ्रीकानेर विटवाटरस्रांड विश्वविद्यालय में वकालत की पढ़ाई करने लगे। वहां उनकी मुलाक़ात सभी नस्लों और पृष्टभूमि के लोगों से हुई। इस दौरान वे उदारवादी, कट्टरपंथी और अफ्रीकी विचारधाराओं के संपर्क में भी आए। इस दौरान उन्होंने नस्लभेद और भेदभाव को महसूस किया परिणामस्वरुप राजनीति के प्रति उनमें जुनून जागृत हुआ।

जोहान्सबर्ग आकर के मंडेला ने देखा कि सत्तासीन गोरे लोग अश्वेत अफ्रीकी लोगों से कितना दुर्व्यवहार करते हैं। काले रंग वाले लोगों केवल नियत स्थान पर ही रहने की इजाज़त थी, उनके घर बहुत छोटे और बदहाल थे। जिसमें न बिजली थी और न पानी। उन्हें केवल उन्हीं बसों में यात्रा करने और भोजनालय में खाने की अनुमति थी, जो केवल अश्वेत अफ्रीकन लोगों के लिए निर्धारित किए गए थे।

मंडेला को इससे भी ख़राब लगी पासबुक प्रणाली। इस प्रणाली के तहत जब कोई अश्वेत व्यक्ति नगर के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में काम के लिए जाता, तो उसे एक छोटी पासबुक साथ रखनी होती थी। पासबुक साथ न होने की स्थिति में उन्हें जेल भेजा जा सकता था। अफ्रीकन सरकार ने इस व्यवस्था को अपार्टहाइड  या रंगभेद का नाम दिया था। जिसका अर्थ है अलग रखना। अपार्टहाइड व्यवस्था के अंतर्गत गोरे और अश्वेत लोगों के लिए एक साथ खाना-पीना, घूमना-फिरना, खरीदारी करना, एक ही घर में साथ रहना, एक ही स्कूल या गिरजाघर में जाना पूर्णतया प्रतिबंधित था।  इस प्रणाली को देखकर मंडेला अत्यधिक द्रवित हुए और उन्होंने इस व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंकने का प्रण लिया।

वकालत की पढ़ाई पूरी कर मंडेला ने अपने एक सहयोगी ओलिवर तंबो के साथ मिलकर वर्ष 1953 में जोहानसबर्ग में कानूनी सहायता का पहला ऐसा दफ्तर खोला जिसमें केवल अश्वेत वकील थे। अपने लोगों को न्याय दिलाने नेल्सन अब विरोध सभाओं, हड़ताल और असहयोग आंदोलन का आयोजन करने लगे। वह “लिबरेशन” नामक समाचार पत्र के लिए लेख लिखते और “फाइटिंग टॉक” नामक पत्रिका के संचालन में भी सहयोग करने लगे। उनका मानना था कि इन गतिविधियों के द्वारा समानता का हक़ पाने के इस संघर्ष में लोगों का जुड़ाव बढ़ेगा। मंडेला ने देखा कि पासबुक मामला और अधिक गहराता जा रहा था। हर साल लाखों अश्वेत दक्षिणी अफ्रीकियों को उचित पासबुक साथ न होने के कारण गिरफ्तार कर उन पर मुक़दमा चला कर प्रताड़ित किया जाता था।

नेल्सन पुरज़ोर मानवता को शर्मसार करने वाली रंगभेद व्यवस्था के आंदोलन में उतर चुके थे। 1956 में लगभग 155 अन्य कार्यकर्ताओं के साथ मंडेला पर देशद्रोह का मामला चलाया गया।  चार साल की सुनवाई के बाद उनके खिलाफ लगे सभी आरोप हटा लिए गए। सरकार द्वारा 1960 में अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस को गैरकानूनी घोषित कर आंदोलनकारियों को गिरफ्तार करने के आदेश जारी किए गए। इसी वर्ष शारपेविले में प्रदर्शन कर रहे निहत्थे लोगों पर पुलिस ने गोलियां चलाई। इस नरसंहार में पुलिस ने 69 अश्वेत पुरुष और महिलाओं की गोली मारकर हत्या कर दी थी। इस अमानवीय घटना के विरोध में अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के तत्कालीन उपाध्यक्ष नेल्सन मंडेला ने अपना पासबुक सार्वजनिक रूप से आग के हवाले कर दिया। इस घटना के बाद रंगभेदी शासन के साथ तनाव बहुत बढ़ गया और अब तक चले आ रहे शांतिपूर्ण विरोध का अंत हो गया।

वर्ष 1963 में सरकार ने उन पर संगीन आरोप लगाकर फिर से  मुक़दमा शुरु किया। उन पर तोड़फोड़, बिजली घरों एवं अन्य सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने और गोरी सरकार के खिलाफ हिंसक प्रदर्शन करने का आरोप लगा। यह बहुत गंभीर आरोप थे, और इनके साबित होने पर नेल्सन मंडेला को मृत्युदंड भी मिल सकता था। नेल्सन व अन्य लोगों को दोषी करार दिया गया और उन्हें मौत की सजा की जगह आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। मंडेला रोबेन द्वीप पर 18 साल कैद रहे और 1982 में उन्हें यहां से पोल्समूर जेल में स्थानांतरित किया गया।

कारावास का जीवन नेल्सन के लिए बहुत पीड़ादायक था। उन्हें चूने की खदान में खुदाई करनी पड़ती थी। प्रतिदिन घंटों पत्थरों को तोड़कर गिट्टी बनानी होती थी। चट्टानों से घिरे इस इलाके में सूर्य की तेज़ रोशनी ने उनकी आंखों को काफी नुकसान पहुंचाया। उन्होंने धूप के चश्मे की मांग की थी लेकिन मांग पूरी होने में तीन साल लग गए थे।

कारावास की यातनाएं झेलते हुए भी मंडेला ने देश पर अपना प्रभाव डालना जारी रखा। उनसे मिलने वाले आगंतुक नेल्सन के हौसले,दृढ़ निश्चय और बुद्धिमता से अत्यंत प्रभावित होते। वे वापस जाकर उनके बारे में सबको बताते, पत्र-पत्रिकाओं में उनके विचारों को प्रकाशित करवाते। शन्ने: शन्ने: उनका नाम और संघर्ष की चर्चा दक्षिणी अफ्रीका ही नहीं, सारे विश्व में होने लगी। अनेक देशों की सरकारें, राजनीतिक दल, अंतरराष्ट्रीय संगठन और साधारण नागरिक सभी उसकी रिहाई की मांग करने लगे। दक्षिण अफ्रीकी सरकार को आख़िरकार यह महसूस होने लगा कि उनके पास नेल्सन मंडेला को रिहा करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है। अन्तत: देश के नव निर्वाचित राष्ट्रपति विलियम डी क्लार्क ने वर्ष 1990 में मंडेला को बिना किसी शर्त रिहा कर दिया। 

27 वर्षों की घोर यातनाओं और कटुता पूर्ण कारावास की समाप्ति के अवसर पर मंडेला ने फिर से उन शब्दों को दोहराया जो उन्होंने अपने मुकदमे के दौरान कहे थे, “मैं अपनी आंखों में उच्च आदर्श लोकतांत्रिक और स्वतंत्र समाज का सपना सजाए हूं, जिसमें सभी नागरिक एक साथ रहेंगे, और जिसे पाने की आशा रखता हूं। लेकिन, यदि आवश्यकता हुई तो इस आदर्श के लिए मैं प्राण देने को भी तैयार हूं”।

नेल्सन मंडेला 10 मई 1994 को दक्षिण अफ्रीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने। वह इस पद पर 14 जून 1999 तक रहे। मंडेला को विश्व के विभिन्न देशों और संस्थानों द्वारा लगभग 250 से भी अधिक सम्मान और पुरस्कार प्रदान किए गए हैं। वर्ष 1993 में दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति विलियम डी क्लार्क के साथ उन्हें संयुक्त रूप से नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया। भारत में उनका बहुत सम्मान है। 1990 में उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया तथा 23 जुलाई 2018 को उन्हें 'गांधी शांति पुरस्कार' से नवाज़ा गया। शान्ति के इस अग्रदूत ने 95 वर्ष की आयु में 5 दिसंबर, 2013 को फेफड़ों में संक्रमण हो जाने के कारण प्राण त्याग दिए थे। "मैं जातिवाद से नफ़रत करता हूँ, मैं इसे बर्बरता मानता हूं , फिर चाहे वह गोरे व्यक्ति से आ रही हो या काले व्यक्ति से। यह किसी भी देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा है"- नेल्सन मंडेला।  उनके विचार सदियों तक मानवता को दीप्तिमान करते रहेंगे। 





समाज के शिल्पकार की बढ़ती चुनौतियां

 समाज के शिल्पकार की बढ़ती चुनौतियां

- डॉ.राजेश के चौहान

प्रत्येक माता-पिता का सपना होता है कि उनका बच्चा बड़ा होकर एक सफल व्यक्ति बने। बच्चे के धरती पर अवतरण से पहले ही माता-पिता उसके भविष्य के निर्माण में जुट जाते हैं। हर एक मां-बाप इसी उधेड़बुन में लगा होता है कि उनका बालक कम उम्र में अधिक से अधिक ज्ञान अर्जित कर बड़ा होकर डॉक्टर, इंजीनियर, वकील या कोई बड़ा अधिकारी  बने। अल्पायु में ही बच्चे को किसी शिक्षण संस्थान या किसी शिक्षक की शरण में भेज दिया जा रहा है। प्रत्येक बच्चे को डॉक्टर, इंजीनियर या बड़ा अधिकारी बनाना तो संभव नहीं है लेकिन हर बालक/बालिका को अच्छा नागरिक बनाना प्रत्येक माता-पिता और शिक्षक का परम् कर्तव्य है। 

आधुनिकता की अंधी दौड़ में समाज के वास्तविक शिल्पकार 'शिक्षक' की ज़िम्मेदारी और चुनौतियां बहुत बढ़ गई हैं। जो स्थान अस्पताल में डॉक्टर का है वही स्थान शिक्षण संस्थान में शिक्षक का है। शिक्षक ही शिक्षा और शिष्य के उद्देश्य पूरे करते हैं। इसलिए किसी भी शिक्षा योजना की सफलता या असफलता शिक्षा क्षेत्र के सूत्रधार शिक्षकों की कार्यप्रणाली पर निर्भर करती है। इस तथ्य को और स्पष्ट करने के लिए प्राथमिक विद्यालय के शिक्षकों का उदाहरण दिया जा सकता है जिन्हें विश्व में सबसे महत्वपूर्ण माना गया है क्योंकि प्राथमिक स्कूल के शिक्षक छोटे बच्चों को ज्ञान और जीवन के मूल्य उन्हें समझ आने लायक भाषा में प्रदान करते हैं ताकि इन छोटे बच्चों का भविष्य सुरक्षित और सुनहरा बन सके। आज के बच्चे कल का भविष्य हैं तो बच्चों को आज अच्छी शिक्षा देने का अर्थ कल देश के सुनहरे भविष्य का निर्माण करना है और इस कार्य में प्राथमिक स्कूल के शिक्षक अनवरत सकारात्मक भूमिका निभाते हैं।


 माता-पिता का स्थान कोई नहीं ले सकता, उनका कर्ज़ हम किसी भी रूप में नहीं उतार सकते, लेकिन शिक्षक ही हैं जिन्हें हमारी संस्कृति में माता-पिता के समान दर्ज़ा दिया जाता है।

 प्रारंभिक शिक्षा के उपरांत माध्यमिक और उच्च माध्यमिक शिक्षा भी छात्र/ छात्राओं के व्यक्तित्व निर्माण में अहम भूमिका निभाती है और जब हम किसी स्कूल की बात करते हैं तो वास्तव में उस स्कूल में कार्यरत विभिन्न विषयों के शिक्षक ही उस स्कूल में पढ़ने वाले सभी विद्यार्थियों को अर्थपूर्ण शिक्षा प्रदान करते हैं। जब अच्छी शिक्षा देने की बात आती है तो विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले सभी शिक्षक इसके प्रणेता नज़र आते हैं। शिक्षा, शिक्षक और शिष्य के आत्मीय और निकटतम सम्बन्ध को कभी तोड़ा नहीं जा सकता है।

 विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास के लिए एक सजग, उदात्त चरित्र, धार्मिक नैतिकता परिपूर्ण शिक्षक की आवश्यकता है ताक़ि हमारी आने वाली पीढ़ी को हम ऐसे भारतीय नागरिक बनाने में सफल हो सकें जो विश्व में भारत का नाम रोशन कर सकें और पुनः भारत को  ‘विश्वगुरु’ की उपाधि प्राप्त करवा सके।

 किसी भी देश का आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक विकास उस देश की शिक्षा पर निर्भर करता है। अगर राष्ट्र की शिक्षा नीति अच्छी है तो उस देश को आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता अगर राष्ट्र की शिक्षा नीति अच्छी नहीं होगी तो वहां की प्रतिभा दब कर रह जाएगी बेशक किसी भी राष्ट्र की शिक्षा नीति बेकार हो, लेकिन एक शिक्षक बेकार शिक्षा नीति को भी अच्छी शिक्षा नीति में बदलने में सक्षम होता है।

 वर्तमान समय में शिक्षा का व्यवसायीकरण और बाज़ारीकरण हो गया है। शिक्षा का व्यवसायीकरण और बाज़ारीकरण देश के समक्ष बड़ी चुनौती है। पुराने समय में भारत में शिक्षा कभी व्यवसाय या धंधा नहीं थी। गुरु एवं शिक्षक ही वो हैं जो एक शिक्षार्थी में उचित आदर्शों की स्थापना करते हैं और सही मार्ग दिखाते हैं। 

 विद्यार्थी को अपने शिक्षक या गुरु प्रति सदैव आदर और कृतज्ञता का भाव रखना चाहिए। किसी भी राष्ट्र का भविष्य निर्माता कहे जाने वाले शिक्षक का महत्व यहीं समाप्त नहीं होता क्योंकि वह ना सिर्फ हमको सही आदर्श मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं बल्कि प्रत्येक शिक्षार्थी के सफल जीवन की नींव भी उन्हीं के द्वारा रखी जाती है।

 आज का समय है आधुनिकता का, वैज्ञानिकता का, व्यस्तता का, अस्थिरता का, जल्दबाज़ी का। आज का विद्यार्थी जीवन भी इन्हीं समस्याओं से ग्रसित है। आज का विद्यार्थी पहले की तरह सहज, शांत और धैर्यवान नहीं ही रह गया है क्योंकि आगे बढ़ना और तेज़ी से बढ़ना उसकी नियति, मजबूरी बन गई है। वह इसलिए कि यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो ज़िंदगी की दौड़ में वह पीछे रह जायगा। तो यह वक्त का तकाज़ा है। ऐसे समय में विद्यार्थी जीवन को एक सही, उचित, कल्याणकारी एवं दूरदर्शी दिशा-निर्देश देना एक शिक्षक का पावन कर्तव्य है।

  वर्तमान समय में विद्यार्थियों के संदर्भ में एक शिक्षक की भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण होती जा रही है। उसके अनेक कारण हो सकते हैं। जैसे आज-कल विद्यार्थी बहुत ही सजग, कुशल होने के साथ-साथ बहुत अस्थिर और अविश्वासी भी होते जा रहे हैं। इसके कारण चाहे जो कुछ भी हो परंतु एक शिक्षक को आज के ऐसे ही विद्यार्थियों को उचित प्रशिक्षण, सदुपयोगी शिक्षण और सटीक कल्याणकारी, दूरगामी मार्गदर्शन प्रदान करते हुए उन्हें भावी देश के कर्णधार, ज़िम्मेदार देशभक्त नागरिकों में परिणित करना है।

 शिक्षक को न केवल बच्चों का बौद्धिक, नैतिक, मनोवैज्ञानिक ,शारीरिक विकास करना है अपितु सामाजिक, चारित्रिक, एवं सांवेगिक विकास करना भी उसी का कर्तव्य है।

 शिक्षक का कार्य अनवरत शिक्षा देते रहना है इसलिए वह किसी विशेष प्रांगण, किसी विशेष समय अंतराल, किसी विशेष सहायक सामग्री की अपेक्षा नहीं रखता। एक शिक्षक तो बिना किसी मांग के, बिना कहे अपना सर्वस्व ज्ञान अनुभव में डुबोकर प्रदान करने के लिए सदैव समाज के सामने तत्पर रहता है।

पुरातन समय में शिक्षक का स्थान सर्वोच्च तथा बालक का स्थान गौण था परन्तु आज स्थिति बदल गयी है। आज के समय में बालक शिक्षा का केन्द्र माना जाता है। शिक्षाशास्त्री बाल केन्द्रित शिक्षा पर बल देते हैं। यद्यपि आज शिक्षा में बालक का स्थान मुख्य है फिर भी शिक्षक का उत्तरदायित्व, उसका महत्व कम नहीं आंका जा सकता। शिक्षक के बिना शिक्षा की प्रक्रिया चल सकती है इस बात की हम कल्पना भी नहीं कर सकते। योग्य अध्यापकों के बिना शिक्षण प्रक्रिया भली-भाँति नहीं चल सकेगी। आज के  शिक्षक के लिए केवल अपने विषय का ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं है वरन् बच्चों को समझने के लिए उसे बाल-मनोविज्ञान का ज्ञान होना भी परम् आवश्यक है।


 वर्तमान संदर्भ में शिक्षक कार्य केवल अपने व्यक्तित्व से बालकों के आकर्षित करना ही नहीं है वरन् इसके साथ-साथ ऐसे वातावरण का निर्माण करना भी है जिसमें रहकर बालक अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें तथा समाज के कल्याण और राष्ट्र की उन्नति एवं विकास में भी अपना योगदान दे सकें। यही कारण है कि आज दुनियां के सभी देश शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक के महत्व और योगदान को निर्विरोध स्वीकार करते हैं। आज शिक्षक को अपने विद्यार्थियों को ऐसी शिक्षा प्रदान करने की आवश्यक्ता है जो कल्याणकारी हो, दूरगामी हो, प्रायोगिक  हो, धनोपार्जन में सहायक और संस्कारयुक्त समाज के निर्माण करने में सक्षम हो।

मंगलवार, 5 जुलाई 2022

दिशाहीन युवा - बड़ी चुनौती

 संस्कार विहीन युवा समाज के लिए हानिकर

-डॉ. राजेश के चौहान
न्यू शिमला

पुरातन समय से मानव जीवन में संस्कारों का अत्यधिक महत्व रहा है। मानव समाज को संस्कारों ने परिष्कृत और शुद्ध किया तथा उसकी भौतिक एवं आध्यात्मिक आकांक्षाओं को पूर्ण किया। व्यक्तित्व निर्माण एवं अनेक सामाजिक समस्याओं का निदान भी इन्हीं में है। अच्छे संस्कार पशुता को भी मनुष्यता में परिणत कर देने की क्षमता रखते हैं। संस्कार संस्कृति को जीवित रखते हैं। संस्कार की मोहर जीवन के सिक्के को बहुमूल्य बना देती है। संस्कार विहीन बालक का जीवन अंधकारमय हो जाता है। संस्कारों के बीज विशाल वटवृक्ष को जन्म देते हैं। जिस प्रकार कोरे कागज़ का कोई मूल्य नहीं, उसी प्रकार संस्कार विहीन व्यक्ति का जीवन शून्य होता है। 

 वर्तमान परिप्रेक्ष्य में संस्कार विहीन युवा चिंता और परिचर्चा का विषय बन कर उभरा है। हमारी साक्षरता दर प्रतिशतता जितनी तेज़ी से बढ़ रही है उसी गति से संस्कारों का ह्रास भी दृष्टिगोचर है। माता-पिता अपने बच्चों को महंगे से महंगी शिक्षा प्रदान करवा रहे हैं लेकिन बिना किसी कीमत के मिलने वाले 'संस्कार नहीं दिला पा रहे हैं। 

 पाश्चात्यीकरण की दौड़ में भारतीय युवा अधर में लटका नज़र आ रहा है। न तो वह पूर्णत: पाश्चात्यता को अपना पा रहा है और न ही भारतीय रह पा रहे है। मैं इस नई संस्कृति को 'इण्डोपाश्चात्तीय' संबोधित कर रहा हूं। भारत में तेज़ी से पनपती यह इण्डोपाश्चात्तीय संस्कृति वास्तविकता में ही चिंतनीय विषय है। 

इस नव प्रस्फुटित संस्कृति के अनुयायी युवा सुप्राचीन भारतीय संस्कृति को धूमिल कर रहे हैं। वर्तमान परिवेश में अधिकतर युवा बड़े-बुज़ुर्गों का सम्मान करना भूल गए हैं, कर्तव्यनिष्ठा का ह्रास हो रहा है, अपनों से छोटों के प्रति उचित बर्ताव नहीं रहा, ईमानदारी बेईमानी में तबदील हो रही है, त्याग, संयम, सत्य-अहिंसा, देशप्रेम की भावना आदि मूल्यों का अभाव दृष्टिगोचर है। बूढ़े माता-पिता को वृद्धावस्था आश्रम में भेजना और शादी से पहले लिव-इन रिलेशनशिप में रहना नया रिवाज़ बन गया है। ये तो हमारी संस्कृति नहीं थी।

भारतीय संस्कृति समूचे विश्व को आकर्षित करती है, लेकिन वैश्वीकरण और आधुनिकीकरण की चकाचौंध में युवा वर्ग हमारी पुरातन संस्कृति की महान विरासत को भूले जा रहा हैं। भारतीय युवा अपनी संस्कृति से दूर होते जा रहें हैं। दिन प्रतिदिन हम पश्चात्य संस्कृति को अपनाते जा रहे हैं और हमारी संस्कृति सिर्फ पुस्तकों और कहानियों में ही कहीं गुम होती जा रही है। सबसे अहम है हमारे सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा करना। त्याग, सम्मान, संयम, सत्य, अहिंसा, अध्यात्म ये सभी हमारी संस्कृति की पहचान रहे हैं। जहां हम कभी गर्व करते थे अपनी संस्कृति पर, वहीं आज का युवा वर्ग का मोह पश्चिमी संस्कृति की तरफ बढ़ता जा रहा है। रहन-सहन तो पूरी तरह बदल ही चुका है, अपने सिद्धान्तों और मूल्यों से भी दूरी बनानी शुरू कर दी है। 


 आज की युवा पीढ़ी अपने ही हाथों अपने जीवन और भविष्य को बर्बाद करने के रास्ते पर चल पड़ी है। बाहरी दिखावटों, पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित होकर अपने आदर्शों और संस्कारों को खोती चली जा रही है। जोश, जुनून, दृढ़ संकल्प, इच्छाशक्ति, हौसले की जगह नशा, वासना, लालच, हिंसा उसके जीवन में शामिल हो गए हैं। दिन-प्रतिदिन आज की युवा पीढ़ी दिशाहीन होकर बुराई और अपराधों के गहरे गर्त में गिरती चली जा रही है। 

भारतीय समाज सदियों से संस्कारों से पूर्ण रहा है। लोग संयुक्त परिवार में रहते थे।  संयुक्त परिवार ऐसे परिवार होते थे जिनमें छोटे बच्चे से ले कर वयोवृद्ध तक की उम्र के लोग होते थे। सीमित आय और सीमित संसाधनों में तमाम कमियों के बाद भी परिवार के लोग मिल जुल कर और आपस में काम बांट कर जीवन यापन करते थे। इसकी सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि यह होती थी कि सभी संस्कार, त्योहार और आयोजन परिवार में होते रहने के कारण परिवार के बढ़ते हुए बच्चे सभी संस्कारों से अच्छे से परिचित हो जाते थे और परिजनों के साथ रहने के कारण सदैव ही संयमित, संस्कारित और सीमित जीवन जीते थे। अमर्यादित जीवन आचरण का प्रश्न ही नहीं उठता था।

वर्तमान समय में ये सब बातें कहीं पीछे छूट रही हैं। नई पीढ़ी के अधिकांश युवा एकांकी परिवार में पल-बढ़ रहे हैं, जिनमें संयम और धीरज की कमी देखी जा रही है। ज्यादातर माता-पिता अपने बच्चों को जरूरत से ज्यादा खुशियां देना चाहते हैं। बच्चों को मेहनत के काम करवाना , अच्छी सीख देना , परेशानियों का सामना करने देना अब कोई माता-पिता नहीं चाहते हैं। परिणामस्वरुप युवाओं में जीवन के अनुभवों , भविष्य के प्रति आशावादिता और धैर्य की अत्यन्त कमी हो चली है। आज की गला काट प्रतिस्पर्धी शिक्षा प्रणाली ने इस सारे ताने-बाने को और भी कमज़ोर कर दिया है। पुरातन काल से चले आ रहे मेहनत और कलाकारी के काम धीरे धीरे खत्म होते जा रहे हैं। पहले प्रत्येक व्यक्ति हर काम में माहिर होता था। अब युवा अपने ही पैतृक पेशे को अपनाने से कतराने लगे हैं। अधिकांश को कुर्सी- टेबल वाली नौकरी ही भाती है जो हर युवा को मिले ऐसा असंभव है।

इस जगत में कुछ भी अपरिवर्तनशील नहीं है। समय के साथ परिवर्तन होना निश्चित है लेकिन परिवर्तन यदि हमारे नैतिक मूल्यों और पुरातन संस्कृति को दाव पर लगाकर हो रहा है तो वह सभ्य समाज के लिए सर्वदा घातक है। समाज में सकारात्मक बदलाव हेतु व्यक्ति में अच्छे गुणों की आवश्यकता होती है और उसकी नींव हमें बाल्यकाल में ही रखनी पड़ती है। विद्यालय में विद्यार्थी को अन्य विषयों के साथ नैतिक मूल्यों की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए इस से उसके जीवन में बदलाव आएगा और वे परिवार, समाज, और देश  सेवा में आगे बढ़ेगा। आज जो राष्ट्रव्यापी अनैतिकवाद का प्रदूषण हमारे समाज और देश को दूषित कर रहा है उसका कारण सिर्फ बच्चों में संस्कार और शिक्षा का अभाव है जिसके दोषी हम हैं। हम मात्र झूठे दिखावे के लिए अपने भारतीय अमूल्य संस्कारों के प्रति उदासीन होते जा रहे हैं। पाश्चात्यीय सभ्यता का आँख मूंद कर अनुसरण करना हमें और हमारे बच्चों को पथभ्रष्ट कर रहा है।

       शिक्षा का अंततम्  लक्ष्य सुंदर चरित्र निर्माण है। शिक्षा मनुष्य के व्यक्तित्व के सभी पहलुओं का पूर्ण और संतुलित विकास करती है। बच्चों में सांसारिक और आध्यात्मिक शिक्षा दोनों की नितांत आवश्यता है क्योंकि शिक्षा हमें जीविका देती है और संस्कार जीवन को मूल्यवान बनाते हैं। शिक्षा में ही संस्कार का समावेश है। यदि हम अपने बच्चों में भारतीय संस्कृति, भारतीय परम्पराएँ, भाईचारा, एकता आदि का बीजारोपण करतें हैं तो उसमें सवत: ही संस्कार आ जाते हैं जिसकी जिम्मेदारी माता-पिता, परिवार और शिक्षक की होती है।

       बाल्यवस्था में परिवार के बाद विशेष रूप से बच्चों को संस्कार विद्यालय में सिखाए जाते हैं। अतः शिक्षकों का कर्तव्य बनता है कि वे कक्षा तथा खेल के मैदान में ऐसे वातावरण का निर्माण करें जिससे बच्चों में शिक्षा और संस्कार दोनों का विकास हो। विद्यालय स्तर पर ऐसी गतिविधियों का आयोजन होना चाहिए जिनसे बच्चों में अनुशासन, उत्तरदायित्व, आत्मसंयम, आज्ञाकारिता, विनयशीलता, सहानुभूति, सहयोग, प्रतिस्पर्धा आदि गुणों का विकास हो सके। अधिकांशतः सरकारी स्कूलों में गरीब परिवारों के बच्चे पढ़ने आते हैं। उनमें से अधिकांश विद्यार्थियों के माता-पिता उतने जागरुक नहीं होते कि वे अपने बच्चों का सही मार्गदर्शन कर सकें। इसलिए सरकारी स्कूलों में शिक्षकों को अधिक परिश्रम करने की आवश्यकता है। बच्चे देश के भविष्य हैं इन्हें कुशल नागरिक बनाना हमारी ज़म्मेदारी है।

शिक्षक और अभिभावकों द्वारा रोपित मूल्यों के आधार पर ही बालक के चरित्र का निर्माण होगा। बालक के चरित्र का निर्माण उसके जन्म से ही आरम्भ हो जाता है। पहले उसके मूल प्रवृत्यात्मक व्यवहार की भूमिका चरित्र-निर्माण में होती है। कालान्तर में अर्जित की गई अच्छी तथा बुरी आदतों के द्वारा चरित्र एक निश्चित रूप लेने लगता है। आज का युवा कल का भविष्य है। हम जैसे संस्कार उसे देंगे वह वैसा ही बनेगा। हमें यह निर्धारित करना ही होगा कि हमारा भविष्य संस्कारयुक्त हो या संस्कारमुक्त। 

नववर्ष 2025: नवीन आशाओं और संभावनाओं का स्वागत : Dr. Rajesh Chauhan

  नववर्ष 2025: नवीन आशाओं और संभावनाओं का स्वागत साल का अंत हमारे जीवन के एक अध्याय का समापन और एक नए अध्याय की शुरुआत का प्रतीक होता है। यह...