संस्कार विहीन युवा समाज के लिए हानिकर
-डॉ. राजेश के चौहान न्यू शिमला |
पुरातन समय से मानव जीवन में संस्कारों का अत्यधिक महत्व रहा है। मानव समाज को संस्कारों ने परिष्कृत और शुद्ध किया तथा उसकी भौतिक एवं आध्यात्मिक आकांक्षाओं को पूर्ण किया। व्यक्तित्व निर्माण एवं अनेक सामाजिक समस्याओं का निदान भी इन्हीं में है। अच्छे संस्कार पशुता को भी मनुष्यता में परिणत कर देने की क्षमता रखते हैं। संस्कार संस्कृति को जीवित रखते हैं। संस्कार की मोहर जीवन के सिक्के को बहुमूल्य बना देती है। संस्कार विहीन बालक का जीवन अंधकारमय हो जाता है। संस्कारों के बीज विशाल वटवृक्ष को जन्म देते हैं। जिस प्रकार कोरे कागज़ का कोई मूल्य नहीं, उसी प्रकार संस्कार विहीन व्यक्ति का जीवन शून्य होता है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में संस्कार विहीन युवा चिंता और परिचर्चा का विषय बन कर उभरा है। हमारी साक्षरता दर प्रतिशतता जितनी तेज़ी से बढ़ रही है उसी गति से संस्कारों का ह्रास भी दृष्टिगोचर है। माता-पिता अपने बच्चों को महंगे से महंगी शिक्षा प्रदान करवा रहे हैं लेकिन बिना किसी कीमत के मिलने वाले 'संस्कार नहीं दिला पा रहे हैं।
पाश्चात्यीकरण की दौड़ में भारतीय युवा अधर में लटका नज़र आ रहा है। न तो वह पूर्णत: पाश्चात्यता को अपना पा रहा है और न ही भारतीय रह पा रहे है। मैं इस नई संस्कृति को 'इण्डोपाश्चात्तीय' संबोधित कर रहा हूं। भारत में तेज़ी से पनपती यह इण्डोपाश्चात्तीय संस्कृति वास्तविकता में ही चिंतनीय विषय है।
इस नव प्रस्फुटित संस्कृति के अनुयायी युवा सुप्राचीन भारतीय संस्कृति को धूमिल कर रहे हैं। वर्तमान परिवेश में अधिकतर युवा बड़े-बुज़ुर्गों का सम्मान करना भूल गए हैं, कर्तव्यनिष्ठा का ह्रास हो रहा है, अपनों से छोटों के प्रति उचित बर्ताव नहीं रहा, ईमानदारी बेईमानी में तबदील हो रही है, त्याग, संयम, सत्य-अहिंसा, देशप्रेम की भावना आदि मूल्यों का अभाव दृष्टिगोचर है। बूढ़े माता-पिता को वृद्धावस्था आश्रम में भेजना और शादी से पहले लिव-इन रिलेशनशिप में रहना नया रिवाज़ बन गया है। ये तो हमारी संस्कृति नहीं थी।
भारतीय संस्कृति समूचे विश्व को आकर्षित करती है, लेकिन वैश्वीकरण और आधुनिकीकरण की चकाचौंध में युवा वर्ग हमारी पुरातन संस्कृति की महान विरासत को भूले जा रहा हैं। भारतीय युवा अपनी संस्कृति से दूर होते जा रहें हैं। दिन प्रतिदिन हम पश्चात्य संस्कृति को अपनाते जा रहे हैं और हमारी संस्कृति सिर्फ पुस्तकों और कहानियों में ही कहीं गुम होती जा रही है। सबसे अहम है हमारे सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा करना। त्याग, सम्मान, संयम, सत्य, अहिंसा, अध्यात्म ये सभी हमारी संस्कृति की पहचान रहे हैं। जहां हम कभी गर्व करते थे अपनी संस्कृति पर, वहीं आज का युवा वर्ग का मोह पश्चिमी संस्कृति की तरफ बढ़ता जा रहा है। रहन-सहन तो पूरी तरह बदल ही चुका है, अपने सिद्धान्तों और मूल्यों से भी दूरी बनानी शुरू कर दी है।
आज की युवा पीढ़ी अपने ही हाथों अपने जीवन और भविष्य को बर्बाद करने के रास्ते पर चल पड़ी है। बाहरी दिखावटों, पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित होकर अपने आदर्शों और संस्कारों को खोती चली जा रही है। जोश, जुनून, दृढ़ संकल्प, इच्छाशक्ति, हौसले की जगह नशा, वासना, लालच, हिंसा उसके जीवन में शामिल हो गए हैं। दिन-प्रतिदिन आज की युवा पीढ़ी दिशाहीन होकर बुराई और अपराधों के गहरे गर्त में गिरती चली जा रही है।
भारतीय समाज सदियों से संस्कारों से पूर्ण रहा है। लोग संयुक्त परिवार में रहते थे। संयुक्त परिवार ऐसे परिवार होते थे जिनमें छोटे बच्चे से ले कर वयोवृद्ध तक की उम्र के लोग होते थे। सीमित आय और सीमित संसाधनों में तमाम कमियों के बाद भी परिवार के लोग मिल जुल कर और आपस में काम बांट कर जीवन यापन करते थे। इसकी सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि यह होती थी कि सभी संस्कार, त्योहार और आयोजन परिवार में होते रहने के कारण परिवार के बढ़ते हुए बच्चे सभी संस्कारों से अच्छे से परिचित हो जाते थे और परिजनों के साथ रहने के कारण सदैव ही संयमित, संस्कारित और सीमित जीवन जीते थे। अमर्यादित जीवन आचरण का प्रश्न ही नहीं उठता था।
वर्तमान समय में ये सब बातें कहीं पीछे छूट रही हैं। नई पीढ़ी के अधिकांश युवा एकांकी परिवार में पल-बढ़ रहे हैं, जिनमें संयम और धीरज की कमी देखी जा रही है। ज्यादातर माता-पिता अपने बच्चों को जरूरत से ज्यादा खुशियां देना चाहते हैं। बच्चों को मेहनत के काम करवाना , अच्छी सीख देना , परेशानियों का सामना करने देना अब कोई माता-पिता नहीं चाहते हैं। परिणामस्वरुप युवाओं में जीवन के अनुभवों , भविष्य के प्रति आशावादिता और धैर्य की अत्यन्त कमी हो चली है। आज की गला काट प्रतिस्पर्धी शिक्षा प्रणाली ने इस सारे ताने-बाने को और भी कमज़ोर कर दिया है। पुरातन काल से चले आ रहे मेहनत और कलाकारी के काम धीरे धीरे खत्म होते जा रहे हैं। पहले प्रत्येक व्यक्ति हर काम में माहिर होता था। अब युवा अपने ही पैतृक पेशे को अपनाने से कतराने लगे हैं। अधिकांश को कुर्सी- टेबल वाली नौकरी ही भाती है जो हर युवा को मिले ऐसा असंभव है।
इस जगत में कुछ भी अपरिवर्तनशील नहीं है। समय के साथ परिवर्तन होना निश्चित है लेकिन परिवर्तन यदि हमारे नैतिक मूल्यों और पुरातन संस्कृति को दाव पर लगाकर हो रहा है तो वह सभ्य समाज के लिए सर्वदा घातक है। समाज में सकारात्मक बदलाव हेतु व्यक्ति में अच्छे गुणों की आवश्यकता होती है और उसकी नींव हमें बाल्यकाल में ही रखनी पड़ती है। विद्यालय में विद्यार्थी को अन्य विषयों के साथ नैतिक मूल्यों की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए इस से उसके जीवन में बदलाव आएगा और वे परिवार, समाज, और देश सेवा में आगे बढ़ेगा। आज जो राष्ट्रव्यापी अनैतिकवाद का प्रदूषण हमारे समाज और देश को दूषित कर रहा है उसका कारण सिर्फ बच्चों में संस्कार और शिक्षा का अभाव है जिसके दोषी हम हैं। हम मात्र झूठे दिखावे के लिए अपने भारतीय अमूल्य संस्कारों के प्रति उदासीन होते जा रहे हैं। पाश्चात्यीय सभ्यता का आँख मूंद कर अनुसरण करना हमें और हमारे बच्चों को पथभ्रष्ट कर रहा है।
शिक्षा का अंततम् लक्ष्य सुंदर चरित्र निर्माण है। शिक्षा मनुष्य के व्यक्तित्व के सभी पहलुओं का पूर्ण और संतुलित विकास करती है। बच्चों में सांसारिक और आध्यात्मिक शिक्षा दोनों की नितांत आवश्यता है क्योंकि शिक्षा हमें जीविका देती है और संस्कार जीवन को मूल्यवान बनाते हैं। शिक्षा में ही संस्कार का समावेश है। यदि हम अपने बच्चों में भारतीय संस्कृति, भारतीय परम्पराएँ, भाईचारा, एकता आदि का बीजारोपण करतें हैं तो उसमें सवत: ही संस्कार आ जाते हैं जिसकी जिम्मेदारी माता-पिता, परिवार और शिक्षक की होती है।
बाल्यवस्था में परिवार के बाद विशेष रूप से बच्चों को संस्कार विद्यालय में सिखाए जाते हैं। अतः शिक्षकों का कर्तव्य बनता है कि वे कक्षा तथा खेल के मैदान में ऐसे वातावरण का निर्माण करें जिससे बच्चों में शिक्षा और संस्कार दोनों का विकास हो। विद्यालय स्तर पर ऐसी गतिविधियों का आयोजन होना चाहिए जिनसे बच्चों में अनुशासन, उत्तरदायित्व, आत्मसंयम, आज्ञाकारिता, विनयशीलता, सहानुभूति, सहयोग, प्रतिस्पर्धा आदि गुणों का विकास हो सके। अधिकांशतः सरकारी स्कूलों में गरीब परिवारों के बच्चे पढ़ने आते हैं। उनमें से अधिकांश विद्यार्थियों के माता-पिता उतने जागरुक नहीं होते कि वे अपने बच्चों का सही मार्गदर्शन कर सकें। इसलिए सरकारी स्कूलों में शिक्षकों को अधिक परिश्रम करने की आवश्यकता है। बच्चे देश के भविष्य हैं इन्हें कुशल नागरिक बनाना हमारी ज़म्मेदारी है।
शिक्षक और अभिभावकों द्वारा रोपित मूल्यों के आधार पर ही बालक के चरित्र का निर्माण होगा। बालक के चरित्र का निर्माण उसके जन्म से ही आरम्भ हो जाता है। पहले उसके मूल प्रवृत्यात्मक व्यवहार की भूमिका चरित्र-निर्माण में होती है। कालान्तर में अर्जित की गई अच्छी तथा बुरी आदतों के द्वारा चरित्र एक निश्चित रूप लेने लगता है। आज का युवा कल का भविष्य है। हम जैसे संस्कार उसे देंगे वह वैसा ही बनेगा। हमें यह निर्धारित करना ही होगा कि हमारा भविष्य संस्कारयुक्त हो या संस्कारमुक्त।
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