रविवार, 19 मार्च 2023

संगीत को समर्पित व्यक्तित्व - प्रो.नंदलाल गर्ग - Dr. Rajesh K Chauhan

संगीत को समर्पित व्यक्तित्व - प्रो.नंदलाल गर्ग ✍

डॉ.राजेेेश चौहान
स्वतंत्र लेखक  

संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार प्राप्त कर प्रोफ़ेसर नंदलाल गर्ग ने हिमाचल के लिए एक और उपलब्धि दर्ज़ की है। 90 वर्षीय प्रो.गर्ग को संगीत विरासत में मिला है। इस उम्र में भी ये अपने कठिन परिश्रम से विरासत में मिली कलानिधि को संजोए रखने में प्रयासरत हैं। इनका जन्म ज़िला शिमला के धामी में हुआ था तत्कालीन पहाड़ी रियासत धामी में हुआ था। ये धामी दरबार के व्यवसायिक कलाकारों के परिवार से संबंध रखते हैं। हिमाचल के धामी घराने का वैशिष्ट्य इनके गायन-वादन में स्पष्टतया दृष्टिगोचर है। इनके पूर्वज पहाड़ी रियासतों के बाहर कला प्रदर्शन करने में विश्वास नहीं रखते थे साथ ही उस समय यातायात के साधनों का अभाव होने के कारण घराने का नाम अधिकतर पहाड़ी रियासतों तक ही सीमित रहा। इनके घराने में कई ख़्याति प्राप्त गायक, सितार वादक, तबला वादक एवं मृदंग वादक हुए। मौलक राम, घूम राम, टी.आर. कलावंत, उमद, कुमद, वज़ीर आदि धामी घराने के प्रसिद्ध कलाकार रहे हैं। इस घराने के टी.आर. कलावंत ने गायन की शिक्षा महान शिक्षा विभूति पं. विष्णु दिगंबर जी से प्राप्त की तथा इनके पिताजी तथा चाचा आदि को संगीत का प्रशिक्षण दिया।
प्रो.गर्ग ने संगीत की शिक्षा अपने पूज्य दादाजी एवं चाचा से प्राप्त की। दुर्भाग्यवश बाल्यकाल में ही इनके पिताजी का देहान्त हो गया। पिताजी के देहांत के तत्पश्चात इनके चाचा ने इन्हें संगीत की तालीम दी। इन्होंने सर्वप्रथम अपने चाचा से गायन एवं तबला वादन की शिक्षा प्राप्त की तत्पश्चात अपने घराने की वादन शैली के अनुसार सितार सीखी।


 व्यवसायिक शिक्षा के अन्तर्गत इन्होंने संगीत प्रवीण (सितार) और संगीत प्रभाकर (गायन एवं नृत्य) तक शिक्षा प्राप्त की।  शैक्षणिक योग्यता प्राप्त करने के साथ-साथ इन्होंने अपना अधिकतर समय संगीत साधना में व्यतीत किया। इन्होंने गायन और वादन में अपने दादा व चाचाओं से बहुत ही दुर्लभ बंदिशें सीखी। ये 1955 से आकाशवाणी तथा 1966 से दूरदर्शन के कलाकार हैं। ये कई मर्तबा आकाशवाणी दिल्ली के राष्ट्रीय कार्यक्रम में भाग ले चुके हैं। ये 1960 में सरकारी सेवाओं में आए। 1972 में इनकी नियुक्ति संगीत विभाग हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में हुई तथा 1993 में सेवानिवृत्त हुए। इन्होंने अपने 33 वर्ष के अध्यापन काल में एम.ए और एम.फिल. में अनेकों विद्यार्थियों को शिक्षित किया। इनके निर्देशन में बहुत से विद्यार्थियों ने शोध कार्य भी किए हैं। वर्तमान समय में इनके अनेकों शिष्य विभिन्न संस्थाओं में विभिन्न पदों पर कार्यरत हैं जैसे- अध्यापक, प्राध्यापक, आकाशवाणी, दूरदर्शन कलाकार, तथा कला संस्कृति एवं लोक संपर्क विभाग इत्यादि।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी प्रो.नंदलाल विभिन्न मंचों पर अनेकों कार्यक्रम प्रस्तुत कर चुके हैं। ये अपने सितार वादन की प्रस्तुतियां  देश-विदेशों के अनेक प्रतिष्ठित मंचों पर दे चुके हैं। अमेरिका, कनाडा, दिल्ली, महाराष्ट्र, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, जम्मू- कश्मीर तथा हिमाचल प्रदेश के समाचार-पत्र तथा पत्रिकाओं में प्रकाशित समाचार इनके मंच प्रदर्शन की ख्याति के गवाह हैं।


उत्तर क्षेत्रीय संस्कृति विभाग पटियाला द्वारा सन् 1989 में एक संगीत गोष्ठी आयोजित की गई थी जिसमें पड़ोसी देश पाकिस्तान के कलाकारों ने शास्त्रीय गायन प्रस्तुत किया था। इस कार्यक्रम में इन्हें विशेष तौर पर सितार वादन के लिए आमंत्रित किया गया था। इस कार्यक्रम में इनके सितार वादन की श्रोताओं एवं समाचार पत्रों के द्वारा बहुत सराहना की गई थी।
कुछ समय पूर्व इन्होंने दिल्ली में सितार वादन अमेरिका के कलाकारों तथा देश के जाने-माने कलाकारों के सम्मुख प्रस्तुत किया। इस प्रस्तुति की भूरी भूरी प्रशंसा हुई। ग्रीक के संगीतकारों ने इनका सितार वादन रिकॉर्ड भी किया और विदेश में संगीत प्रेमियों को सुनाया।
इनका सितार तथा अन्य भारतीय वाद्ययंत्रों का वादन उदाहरण सहित आकाशवाणी दिल्ली द्वारा रिकॉर्ड किया गया तथा आकाशवाणी दिल्ली से प्रसारित किया गया। इसके अतिरिक्त प्रो. गर्ग अपना सितार वादन विभिन्न उत्सवों संगीत समारोहों, सेमिनारों एवं महफिलों में प्रस्तुत कर चुके हैं।
इन्होंने बहुत से वाद्य वृंदों का निर्माण भी किया है। इनमें शास्त्रीय संगीत पर आधारित एवं लोक संगीत पर आधारित वाद्य वृंद रहे हैं। इनमें से कुछ वाद्य वृंद इनके निर्देशन में जाने-मानें वादकों द्वारा भी बजाए गए हैं। इनके द्वारा निर्मित एवं निर्देशित बहुत से वृंद वादन हिमाचल प्रदेश के युवा समारोहों में भी बजाए जा चुके हैं।  ये वृंद वादन का प्रदर्शन राष्ट्रपति के सम्मुख भी कर चुके हैं। इनके संगीत अनेक लेख और गीत-स्वरलिपि सहित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं जैसे-हिमप्रस्थ, पंचजगत, हिमवाणी एवं हिम-प्रताप में भी प्रकाशित हुए हैं। शास्त्रीय संगीत के अतिरिक्त लोक संगीत, लोकनाट्य, करियाला एवं कविता लेखन में भी इनका अच्छा अनुभव है। इन्होंने कुछ पुस्तकें भी लिखी हैं जिनमें से कुछ प्रकाशित हो चुकी हैं और कुछ प्रकाशन के लिए तैयार हैं।
जिनमें से प्रमुख हैं - हिमाचल के प्राचीनतम संगीत वाद्य (संगीत नाटक अकादमी दिल्ली द्वारा प्रकाशित), द्रुत गति के प्रकार,  हिम लोक गीत,  करयाला लोक नाटक इत्यादि। इसके अतिरिक्त इन्होंने हिंदी नाटक भी लिखे हैं जिनका विभिन्न मंचों पर मंचों हो चुका है। इनमें से प्रमुख हैं- दूसरी शादी, जागीरदार, अछूत का भूत, छल-कपट, स्वांग करियाला इत्यादि।
इन्होंने बहुत से हिंदी और पहाड़ी गीत भी विभिन्न पहलुओं को लेकर लिखे हैं। इन गीतों को स्वरलिपि बद्ध कर पुस्तक में भी प्रकाशित किया गया है। इनके द्वारा रचित रचनाएं हिमाचल के विभिन्न कलाकारों द्वारा आकाशवाणी और दूरदर्शन के माध्यम से प्रसारित की जा चुकी हैं। इन्होंने पारंपरिक पहाड़ी गीतों की कैसेट भी बनाई जो कि जनमानस में काफी प्रसिद्ध हुई।
संगीत नाटक अकादमी द्वारा इनके निर्देशन में हिमाचली लोकनाट्य करियाला पर फ़िल्म भी तैयार करवाई गई। संगीत नाटक अकादमी द्वारा ही "शिव डमरु" एवं "शिव गुफाएं"  नामक दो चलचित्र भी प्रोफेसर नंदलाल गर्ग द्वारा निर्मित एवं निर्देशित करवाए गए। इसके अतिरिक्त उत्तर क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्र पटियाला द्वारा निर्मित दो चल चित्रों का निर्देशन भी इन्होंने किया जिसमें सौ से अधिक कलाकारों ने भाग लिया था। अकादमी द्वारा इनके निर्देशन में हिमाचल के प्राचीनतम वाद्ययंत्रों पर वाद्य वृंद तैयार करवाया गया जिसकी रिकॉर्डिंग अकादमी के पास सुरक्षित है। इनका जीवन वृत्त और संगीत के क्षेत्र में योगदान विभिन्न समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में छप चुका है। इन्हें चौमुखी कलाकार के नाम से जाना जाता है।
इनका मानना है कि संगीत कला को उपाधियों तथा अंकों के आधार पर नहीं आंका जाना चाहिए तथा महान कलाकारों की सेवाएं भी संस्थाओं में ली जानी चाहिए। कलाकार को स्वर, लय तथा ताल का ज्ञान होना चाहिए और संगीत के विद्यार्थी में अपने गुरु के प्रति श्रद्धा, समर्पण होना अनिवार्य है।
चहुंमुखी प्रतिभा के धनी कलाकार प्रोफ़ेसर नंदलाल गर्ग ने संगीत कला में पारंगत होने के लिए कठिन साधना और नियम से घंटों रियाज़ किया है। ये कहते हैं कि रियाज़ के बिना कोई भी किसी भी कला में निपुण नहीं हो सकता। हर कला में पारंगत होने के लिए कठोर साधना की आवश्यकता होती है। इनके कठिन परिश्रम की ही बदौलत ये संगीत की हर विधा में पारंगत हैं चाहे वह गायन हो, वादन हो या नृत्य हो।
प्रो.गर्ग यूनेस्को तथा संगीत नाटक अकादमी के सदस्य रह चुके हैं। हिम कलाकार संगम के अध्यक्ष तथा विभिन्न संगीत संस्थाओं से इनका नाता रहा है। यह पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने हिमाचल प्रदेश के लोक संगीत को दूरदर्शन तक पहुंचाया और हिमाचल के लोक संगीत का देश विदेश में प्रचार-प्रसार किया। इन्हें पहले ऐसे हिमाचली कलाकार होने का गौरव भी प्राप्त है जो वाद्यवृंद के रचनाकार भी रहे हैं। इन्होंने हिमाचल प्रदेश के पारंपरिक लोक वाद्यों का अध्ययन किया है। यह नगाड़ा, ढोल, बांसुरी, सितार, तबला, हारमोनियम, वायलिन इत्यादि वाद्यों को बजाने में निपुण हैं। यह हिमाचल के पहले कलाकार हैं जिन्होंने आकाशवाणी शिमला के खुलने के लिए हिमाचली वाद्ययंत्रों पर लोकधुन तैयार की थी जिसे कार्यक्रम शुरु करने से पहले परिचयात्मक धुन के रूप में आकाशवाणी शिमला द्वारा बजाया जाता था।  
प्रो.नंदलाल गर्ग इस उम्र में भी अथक, अनवरत संगीत और लोक-संस्कृति की सेवा में अपना जीवन यापन कर रहे हैं। छोटे से गांव से निकलकर देश-विदेश में हिमाचल का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रो. गर्ग को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिलना हर हिमाचली के लिए गौरव की बात है। युवाओं को इनके जीवन से  बिना किसी लालच के अनवरत अपने क्षेत्र में कार्य करने की प्ररेणा लेनी चाहिए। 


शुक्रवार, 10 मार्च 2023

नारी बलिदान से जनित अनुपम कृति है रुक्मणी कुंड - Dr. Rajesh K Chauhan

नारी बलिदान से जनित अनुपम कृति है रुक्मणी कुंड

डॉ.राजेेेश चौहान 
स्वतंत्र लेखक 

हमारे समाज में नारी की भूमिका सदैव पूजनीय एवं गरिमामयी रही है। वह परिवार और समाज की धुरी है - केन्द्र बिन्दु है। एक ओर प्रेम की प्रतिमूर्ति तो दूसरी तरफ़ संहार स्वरुपा भी है। नारी ने एक ओर कुशल गृहणी बनकर परिवार का संचालन किया तो दूसरी ओर आवश्यकता पड़ने पर अपनी शक्तियों का प्रदर्शन भी किया। परहित में उसका योगदान किसी भी सूरत में पुरुषों से कम नहीं है। नारी के त्याग और बलिदान ने भारत के इतिहास को शून्य नहीं होने दिया। उसके रक्त से लिखा इतिहास आज भी हमें वह पन्ने खोल कर दिखाता है जिस पर नारी रक्त के छींटे अभी भी सूखे नहीं है। नारी महान है। वह देवी है। वह महान शक्ति है।


हिमाचल प्रदेश के हर गांव, कस्बे में भी हमें महिलाओं के त्याग से सम्बंधित कोई न कोई किस्सा, कहानी या जनश्रुति सुनने मिल जाती है। यहां देवी स्वरुपा नारी से जुड़ी ऐसी अनेक कहानियां-किवदंतियां हैं, जिन्हें सुलझाने में बड़े-बड़े वैज्ञानिक और तीस मार खां भी उलझ कर रह गए। आज ऐसे ही हैरान करने वाले स्थल की बात करते हैं जहां मुझे कुछ दिन पूर्व जाने का अवसर मिला। नैसर्गिक सौंदर्य से परिपूर्ण इस स्थल पर पहुंचने पर जितना सुकून मिलता है उतनी ही पीड़ा इस जगह से जुड़ी कहानी सुनकर होती है। भले ही यह जगह आज पर्यटक स्थल के रुप में विकसित रही है बावजूद इसके इतिहास के पन्नें हृदय विदारक दौर बयां करते हैं। अपने कुल, गांव और क्षेत्र वासियों के लिए ये किसी देवी स्वरुपा स्त्री का सर्वोच्च बलिदान था। आज भी  क्षेत्र वासियों से जब इस स्थल से जुड़ी घटना पर बात की जाती है तो उनकी आंखों से अनायास ही आंसू छलक पड़ते हैं। 


ज़िला बिलासपुर के घुमारवीं नगर से लगभग सात किलोमीटर की दूरी पर सलासी नामक गांव में 'रुक्मणी कुंड' नामक पर्यटक स्थल है। यहां स्थित प्राकृतिक कुंड इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और धार्मिक मान्यता के कारण आकर्षक का केन्द्र बना हुआ है। जनश्रुति के अनुसार इस कुंड का उद्भव एक स्री के बलिदान के कारण हुआ है। जन-मान्यतानुसार रियासती काल में घुमारवीं उपमंडल के अन्तर्गत आने वाले औहर क्षेत्र में एक बार पानी की भारी किल्लत हो गई। पूरे इलाके में हर तरफ सूखा ही सूखा पड़ गया। पानी न मिलने के कारण पशु-पक्षी प्यास से मरने लगे। गांव वासी पानी की तलाश में इधर-उधर भटकने लगे। पानी न मिलने के कारण अपनी प्रजा की ऐसी हालत देखकर राजा चिंतित हो गया। 

एक रात सपने में उसे उसकी कुल देवी ने दर्शन देकर इस विकराल समस्या से छुटकारा पाने का उपाय बताया। देवी ने कहा कि ‘यदि तुम अपने बड़े बेटे की बलि देते हो तो पानी की समस्या दूर हो जाएगी’ इतना कहकर देवी मां अंतर्ध्यान हो गई। इस सपने के बाद राजा अधिक चिंतित रहने लगा। उसकी बहू रुक्मणी उस समय अपने दुधमुहे बेटे के साथ 'तरेड़' गांव अपने मायके गई हुई थी। एक तरफ क्षेत्र में पानी की किल्लत लगातार बढ़ती जा रही थी तो दुसरी ओर बेटे की बलि के बारे में सोचकर राजा अत्यधिक व्याकूल हो गया था। राजा ने अधीर होकर इस बारे में अपने राज पुरोहित के साथ सलाह मशवरा किया। पुरोहित ने पहले राजा को बिल्ली की बलि देने की सलाह दी लेकिन राजा ने ये कहकर मना कर दिया कि यदि वो ऐसा करेगा तो अगले सात जन्मों तक पाप का भागी बन जाएगा। इसके बाद पुरोहित ने बहू की बलि देने की बात कही। पहले तो राजा यह बात सुनकर अधीर हुआ लेकिन बाद में मान गया। राजा ने अविलंब रुक्मणी को मायके से बुलाने के आदेश जारी किए। रुक्मणी भी बिना देर किए मायके से ससुराल आ गई। उसे ससुराल पहुंचने पर राजा ने सारी बात बताई। अपने पति के बदले क्षेत्र वासियों के हित में उसने अपनी बलि देना सहर्ष स्वीकार कर बलिदान की नई परिभाषा को जन्म दिया। वहीं दूसरी तरफ पुरुष प्रधान समाज का कड़वा सत्य भी उजागर होता है जिसमें हर परिस्थिति में त्याग, बलिदान बेटे की जगह बेटी को ही देना है। सामाजिक परिदृश्य में आदर्श बहु का कर्त्तव्य निभाते हुए उसने अपने ससुर की बात का विरोध नहीं किया। 


पुरोहित की सलाह के अनुसार दिन और जगह निश्चित हुई।  रुक्मणी का दुल्हन की भांति श्रृंगार कर उसे पालकी में बिठाकर उस स्थान पर ले जाया गया जहां उसे जिंदा दीवार में चिनवा देना था। चिनाई शुरू होते ही रुक्मणी ने मिस्त्री से गुहार लगाई कि वह उसके पैरों के अंगूठों को ईंट और गारा मत लगाएं क्योंकि उसकी भाभियां उसके पैर छूने आएंगी। इसी से संबंधित गीत की कुछ पंक्तियां :-

"पैरां रे गुठुआं जो ईंट देख्यां लगांदे

गारा देख्यां लगांदे,गारा देख्यां लगांदे

भाभियां मेरे पैर बंदणे आउणा "

चिनाई करते-करते मिस्त्री जब छाती तक पहुंचे तो रुक्मणी फिर प्रार्थना करने लगी कि हे मिस्त्री, कृपया मेरी छाती (स्तनों) को चिनाई से बाहर रखें, क्योंकि मेरा बेटा अभी बहुत छोटा है वह दूध पीने यहां आया करेगा और यदि आप ऐसा नहीं करोगे तो मेरा जिगर का टुकड़ा मर जाएगा।

"दुधुआं जो मेरे ईंट देख्यां लगांदे

गारा देख्यां लगांदे,गारा देख्यां लगांदे

बालका जो दुध मैं पलाणा"


जब चिनाई बाज़ू तक पहुंची तो रुक्मणी ने मिस्त्रियों से आग्रह किया कि मेरी बाज़ुओं को खुले रहने देना ताकि जब मेरे भाई आएं तो मैं उनसे गले मिल सकूंगी।



"बांईं जो मेरिया जो ईंट देख्यां लगांदे

गारा देख्यां लगांदे, गारा देख्यां लगांदे

भाईए मेरे मिलणे जो आउणा"

चिनाई मुंह तक पहुंचने पर रुक्मणी रोते-रोते कहती है कि हे मिस्त्री, मेरा मुंह खुला रहने देना जब मेरी मां आएगी तो वह मुझे बड़े प्यार से रोटी खिलाएगी।

"मुंहा जो मेरे जो ईंट देख्यां लगांदे

गारा देख्यां लगांदे, गारा देख्यां लगांदे

अम्मां मिंजो रोटी ख्वाणी"

 पुरोहित के कहे अनुसार राजा ने मिस्त्रियों से चिनाई करवाई। जैसे ही चिनाई का कार्य पूर्ण हुआ उसके कुछ समय पश्चात रुक्णणी के स्तनों से दूध की धारा बहने लगी और कुछ समय पश्चात् यह दूध की धारा जलधारा में परिवर्तित हो गई। शन्नै-शन्नै रुक्मणी की छाती से निकलने वाली जलधारा से वहां एक कुंड का निर्माण हो गया जिसे हम आज रुक्मणी कुंड के नाम से जानते हैं। इस पवित्र कुंड के पास आज भी वो पत्थर स्पष्ट देखे जा सकते हैं जो रुक्मणी की चिनाई करने में प्रयुक्त हुए थे। त्याग, बलिदान एवं साहस की प्रतिमूर्ति देवी रुक्मणी मर कर भी सदा के लिए अमर हो गई। 

कहा जाता है कि रुक्मणी के दुधमुहे बेटे को हर रोज़ दूध पिलाने उस स्थल पर ले जाया जाता था। लेकिन मां को देखने के वियोग में उसकी मृत्यु हो गई। लोगों की मान्यता है कि मृत्यु के पश्चात वह सांप बन गया और आज भी वह कुंड के इर्द-गिर्द घूमता है। कोई भाग्यशाली व्यक्ति ही उसके दर्शन कर पाता है। तब से लेकर अब तक इस कुंड में जलधारा अनवरत बहती चली जा रही है। रुक्मणी के बलिदान के उपरांत इस क्षेत्र में जल संकट दूर हो गया। इस कुंड का पानी आज दर्जनों गावों की प्यास बुझा रहा है। गौरतलब है कि इस कुंड का पानी रुक्मणी के मायके (तरेड़ गांव) वाले आज भी नहीं पीते हैं। 

देवी रुक्मणी के सर्वोच्च बलिदान को स्मरण रखने के लिए वर्तमान समय में कुंड के पास उनका मंदिर बनाया गया है। मंदिर के सामने एक गुफ़ा है कहा जाता है कि यह गुफ़ा पहाड़ी की दूसरी तरफ गेहड़वीं से कुछ ही दूरी पर स्थित गुग्गाजी मंदिर तक जाती है। प्रत्येक आगंतुक माता रुक्मणी का आशीर्वाद लेता है और कुंड के पवित्र जल में आस्था की डुबकी लगाता है। यहां महिलाओं और पुरुषों के नहाने के लिए स्नानागार बने हुए हैं। कुछ लोग इस कुंड में तैराकी का भी आनंद भी उठाते हैं। ऐसी मान्यता है कि यहां नहाने से चर्म रोगों में लाभ मिलता है। ऐसा भी कहा जाता है कि इस कुंड की गहराई आज तक कोई नहीं माप सका है। 


बैसाखी के अवसर पर हर वर्ष यहां मेले तथा  छिंज का आयोजन किया जाता है। बैसाखी एवं अन्य त्योहारों के अवसर पर लोग यहां स्नान करने आते हैं। हरे भरे वृक्षों से आच्छादित दुर्गम पहाड़ियों के बीच रुक्मणी कुंड एक रमणीय स्थल है। यहां के पर्वत, जंगल से गुज़रता रास्ता और हरे भरे पेड़ प्रत्येक आगंतुक को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। आज के सन्दर्भ में दूसरों की भलाई के लिए इतना बड़ा बलिदान देना व्यवहारिक नहीं लगता। रियासती काल में घटित इस घटना को वर्तमान समय में अधिकांश लोग एक मनघड़ंत कहानी के तौर पर देखेंगे। लेकिन आज भी तरेड़ गांव के लोगों द्वारा इस कुंड के पानी को न पिया जाना कहीं न कहीं इस जनश्रुति की सत्यता को प्रमाणित करता है। पुराने ज़माने में पशु और नर-नारी बलि आम बात थी। हमारे धार्मिक शास्त्र, मान्यताएं, त्योहार, कहानियां और किंवदंतियां इस बात की पुष्टि करती हैं। हो सकता है रुक्मणी की बलि से वह जलधारा प्रवाहित न हुई हो, रुक्मणी का बेटा मरने के बाद सांप न बना हो लेकिन रुक्मणी के बलिदान को हम मनघड़ंत कहानी कहकर झुठला भी नहीं सकते हैं। जनश्रुति के माध्यम से सैंकड़ों वर्षों से पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों तक पहुंची इस कथा का संबंध लोगों की आस्था से जुड़ा है। उस काल की साधारण बेटी रुक्मणी असाधारण कार्य की वजह से आज देवी की प्रतिमूर्ति बन चुकी है। 

आज दूर-दूर से लोग रुक्मणी कुंड आते हैं। बलिदान की देवी के मंदिर में शीश नवाते हैं। देवी मां से सुख समृद्धि की अरदास लगाते हैं और मनोकामना पूर्ण होने पर नंगे पांव पैदल चलकर पवित्र कुंड में स्नान करते हैं। इतिहास जो भी रहा हो लेकिन सरकार को इस मनोरम स्थल को प्रदेश के मानचित्र पर एक पर्यटक स्थल के रुप में विकसित करना चाहिए। हालांकि अभी भी बहुत से लोग इधर-उधर से जानकारी एकत्रित कर यहां पहुंच जाते हैं परन्तु यदि सरकार इस स्थल को विकसित करने की दिशा में सकारात्मक पहल करे तो स्थानीय लोगों के लिए रोज़गार के नए अवसर भी यहां सृजित किए जा सकते हैं। 

नववर्ष 2025: नवीन आशाओं और संभावनाओं का स्वागत : Dr. Rajesh Chauhan

  नववर्ष 2025: नवीन आशाओं और संभावनाओं का स्वागत साल का अंत हमारे जीवन के एक अध्याय का समापन और एक नए अध्याय की शुरुआत का प्रतीक होता है। यह...