नारी बलिदान से जनित अनुपम कृति है रुक्मणी कुंड
डॉ.राजेेेश चौहान स्वतंत्र लेखक
हमारे समाज में नारी की भूमिका सदैव पूजनीय एवं गरिमामयी रही है। वह परिवार और समाज की धुरी है - केन्द्र बिन्दु है। एक ओर प्रेम की प्रतिमूर्ति तो दूसरी तरफ़ संहार स्वरुपा भी है। नारी ने एक ओर कुशल गृहणी बनकर परिवार का संचालन किया तो दूसरी ओर आवश्यकता पड़ने पर अपनी शक्तियों का प्रदर्शन भी किया। परहित में उसका योगदान किसी भी सूरत में पुरुषों से कम नहीं है। नारी के त्याग और बलिदान ने भारत के इतिहास को शून्य नहीं होने दिया। उसके रक्त से लिखा इतिहास आज भी हमें वह पन्ने खोल कर दिखाता है जिस पर नारी रक्त के छींटे अभी भी सूखे नहीं है। नारी महान है। वह देवी है। वह महान शक्ति है।
हिमाचल प्रदेश के हर गांव, कस्बे में भी हमें महिलाओं के त्याग से सम्बंधित कोई न कोई किस्सा, कहानी या जनश्रुति सुनने मिल जाती है। यहां देवी स्वरुपा नारी से जुड़ी ऐसी अनेक कहानियां-किवदंतियां हैं, जिन्हें सुलझाने में बड़े-बड़े वैज्ञानिक और तीस मार खां भी उलझ कर रह गए। आज ऐसे ही हैरान करने वाले स्थल की बात करते हैं जहां मुझे कुछ दिन पूर्व जाने का अवसर मिला। नैसर्गिक सौंदर्य से परिपूर्ण इस स्थल पर पहुंचने पर जितना सुकून मिलता है उतनी ही पीड़ा इस जगह से जुड़ी कहानी सुनकर होती है। भले ही यह जगह आज पर्यटक स्थल के रुप में विकसित रही है बावजूद इसके इतिहास के पन्नें हृदय विदारक दौर बयां करते हैं। अपने कुल, गांव और क्षेत्र वासियों के लिए ये किसी देवी स्वरुपा स्त्री का सर्वोच्च बलिदान था। आज भी क्षेत्र वासियों से जब इस स्थल से जुड़ी घटना पर बात की जाती है तो उनकी आंखों से अनायास ही आंसू छलक पड़ते हैं।
ज़िला बिलासपुर के घुमारवीं नगर से लगभग सात किलोमीटर की दूरी पर सलासी नामक गांव में 'रुक्मणी कुंड' नामक पर्यटक स्थल है। यहां स्थित प्राकृतिक कुंड इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और धार्मिक मान्यता के कारण आकर्षक का केन्द्र बना हुआ है। जनश्रुति के अनुसार इस कुंड का उद्भव एक स्री के बलिदान के कारण हुआ है। जन-मान्यतानुसार रियासती काल में घुमारवीं उपमंडल के अन्तर्गत आने वाले औहर क्षेत्र में एक बार पानी की भारी किल्लत हो गई। पूरे इलाके में हर तरफ सूखा ही सूखा पड़ गया। पानी न मिलने के कारण पशु-पक्षी प्यास से मरने लगे। गांव वासी पानी की तलाश में इधर-उधर भटकने लगे। पानी न मिलने के कारण अपनी प्रजा की ऐसी हालत देखकर राजा चिंतित हो गया।
एक रात सपने में उसे उसकी कुल देवी ने दर्शन देकर इस विकराल समस्या से छुटकारा पाने का उपाय बताया। देवी ने कहा कि ‘यदि तुम अपने बड़े बेटे की बलि देते हो तो पानी की समस्या दूर हो जाएगी’ इतना कहकर देवी मां अंतर्ध्यान हो गई। इस सपने के बाद राजा अधिक चिंतित रहने लगा। उसकी बहू रुक्मणी उस समय अपने दुधमुहे बेटे के साथ 'तरेड़' गांव अपने मायके गई हुई थी। एक तरफ क्षेत्र में पानी की किल्लत लगातार बढ़ती जा रही थी तो दुसरी ओर बेटे की बलि के बारे में सोचकर राजा अत्यधिक व्याकूल हो गया था। राजा ने अधीर होकर इस बारे में अपने राज पुरोहित के साथ सलाह मशवरा किया। पुरोहित ने पहले राजा को बिल्ली की बलि देने की सलाह दी लेकिन राजा ने ये कहकर मना कर दिया कि यदि वो ऐसा करेगा तो अगले सात जन्मों तक पाप का भागी बन जाएगा। इसके बाद पुरोहित ने बहू की बलि देने की बात कही। पहले तो राजा यह बात सुनकर अधीर हुआ लेकिन बाद में मान गया। राजा ने अविलंब रुक्मणी को मायके से बुलाने के आदेश जारी किए। रुक्मणी भी बिना देर किए मायके से ससुराल आ गई। उसे ससुराल पहुंचने पर राजा ने सारी बात बताई। अपने पति के बदले क्षेत्र वासियों के हित में उसने अपनी बलि देना सहर्ष स्वीकार कर बलिदान की नई परिभाषा को जन्म दिया। वहीं दूसरी तरफ पुरुष प्रधान समाज का कड़वा सत्य भी उजागर होता है जिसमें हर परिस्थिति में त्याग, बलिदान बेटे की जगह बेटी को ही देना है। सामाजिक परिदृश्य में आदर्श बहु का कर्त्तव्य निभाते हुए उसने अपने ससुर की बात का विरोध नहीं किया।
पुरोहित की सलाह के अनुसार दिन और जगह निश्चित हुई। रुक्मणी का दुल्हन की भांति श्रृंगार कर उसे पालकी में बिठाकर उस स्थान पर ले जाया गया जहां उसे जिंदा दीवार में चिनवा देना था। चिनाई शुरू होते ही रुक्मणी ने मिस्त्री से गुहार लगाई कि वह उसके पैरों के अंगूठों को ईंट और गारा मत लगाएं क्योंकि उसकी भाभियां उसके पैर छूने आएंगी। इसी से संबंधित गीत की कुछ पंक्तियां :-
"पैरां रे गुठुआं जो ईंट देख्यां लगांदे
गारा देख्यां लगांदे,गारा देख्यां लगांदे
भाभियां मेरे पैर बंदणे आउणा "
चिनाई करते-करते मिस्त्री जब छाती तक पहुंचे तो रुक्मणी फिर प्रार्थना करने लगी कि हे मिस्त्री, कृपया मेरी छाती (स्तनों) को चिनाई से बाहर रखें, क्योंकि मेरा बेटा अभी बहुत छोटा है वह दूध पीने यहां आया करेगा और यदि आप ऐसा नहीं करोगे तो मेरा जिगर का टुकड़ा मर जाएगा।
"दुधुआं जो मेरे ईंट देख्यां लगांदे
गारा देख्यां लगांदे,गारा देख्यां लगांदे
बालका जो दुध मैं पलाणा"
जब चिनाई बाज़ू तक पहुंची तो रुक्मणी ने मिस्त्रियों से आग्रह किया कि मेरी बाज़ुओं को खुले रहने देना ताकि जब मेरे भाई आएं तो मैं उनसे गले मिल सकूंगी।
"बांईं जो मेरिया जो ईंट देख्यां लगांदे
गारा देख्यां लगांदे, गारा देख्यां लगांदे
भाईए मेरे मिलणे जो आउणा"
चिनाई मुंह तक पहुंचने पर रुक्मणी रोते-रोते कहती है कि हे मिस्त्री, मेरा मुंह खुला रहने देना जब मेरी मां आएगी तो वह मुझे बड़े प्यार से रोटी खिलाएगी।
"मुंहा जो मेरे जो ईंट देख्यां लगांदे
गारा देख्यां लगांदे, गारा देख्यां लगांदे
अम्मां मिंजो रोटी ख्वाणी"
पुरोहित के कहे अनुसार राजा ने मिस्त्रियों से चिनाई करवाई। जैसे ही चिनाई का कार्य पूर्ण हुआ उसके कुछ समय पश्चात रुक्णणी के स्तनों से दूध की धारा बहने लगी और कुछ समय पश्चात् यह दूध की धारा जलधारा में परिवर्तित हो गई। शन्नै-शन्नै रुक्मणी की छाती से निकलने वाली जलधारा से वहां एक कुंड का निर्माण हो गया जिसे हम आज रुक्मणी कुंड के नाम से जानते हैं। इस पवित्र कुंड के पास आज भी वो पत्थर स्पष्ट देखे जा सकते हैं जो रुक्मणी की चिनाई करने में प्रयुक्त हुए थे। त्याग, बलिदान एवं साहस की प्रतिमूर्ति देवी रुक्मणी मर कर भी सदा के लिए अमर हो गई।
कहा जाता है कि रुक्मणी के दुधमुहे बेटे को हर रोज़ दूध पिलाने उस स्थल पर ले जाया जाता था। लेकिन मां को देखने के वियोग में उसकी मृत्यु हो गई। लोगों की मान्यता है कि मृत्यु के पश्चात वह सांप बन गया और आज भी वह कुंड के इर्द-गिर्द घूमता है। कोई भाग्यशाली व्यक्ति ही उसके दर्शन कर पाता है। तब से लेकर अब तक इस कुंड में जलधारा अनवरत बहती चली जा रही है। रुक्मणी के बलिदान के उपरांत इस क्षेत्र में जल संकट दूर हो गया। इस कुंड का पानी आज दर्जनों गावों की प्यास बुझा रहा है। गौरतलब है कि इस कुंड का पानी रुक्मणी के मायके (तरेड़ गांव) वाले आज भी नहीं पीते हैं।
देवी रुक्मणी के सर्वोच्च बलिदान को स्मरण रखने के लिए वर्तमान समय में कुंड के पास उनका मंदिर बनाया गया है। मंदिर के सामने एक गुफ़ा है कहा जाता है कि यह गुफ़ा पहाड़ी की दूसरी तरफ गेहड़वीं से कुछ ही दूरी पर स्थित गुग्गाजी मंदिर तक जाती है। प्रत्येक आगंतुक माता रुक्मणी का आशीर्वाद लेता है और कुंड के पवित्र जल में आस्था की डुबकी लगाता है। यहां महिलाओं और पुरुषों के नहाने के लिए स्नानागार बने हुए हैं। कुछ लोग इस कुंड में तैराकी का भी आनंद भी उठाते हैं। ऐसी मान्यता है कि यहां नहाने से चर्म रोगों में लाभ मिलता है। ऐसा भी कहा जाता है कि इस कुंड की गहराई आज तक कोई नहीं माप सका है।
बैसाखी के अवसर पर हर वर्ष यहां मेले तथा छिंज का आयोजन किया जाता है। बैसाखी एवं अन्य त्योहारों के अवसर पर लोग यहां स्नान करने आते हैं। हरे भरे वृक्षों से आच्छादित दुर्गम पहाड़ियों के बीच रुक्मणी कुंड एक रमणीय स्थल है। यहां के पर्वत, जंगल से गुज़रता रास्ता और हरे भरे पेड़ प्रत्येक आगंतुक को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। आज के सन्दर्भ में दूसरों की भलाई के लिए इतना बड़ा बलिदान देना व्यवहारिक नहीं लगता। रियासती काल में घटित इस घटना को वर्तमान समय में अधिकांश लोग एक मनघड़ंत कहानी के तौर पर देखेंगे। लेकिन आज भी तरेड़ गांव के लोगों द्वारा इस कुंड के पानी को न पिया जाना कहीं न कहीं इस जनश्रुति की सत्यता को प्रमाणित करता है। पुराने ज़माने में पशु और नर-नारी बलि आम बात थी। हमारे धार्मिक शास्त्र, मान्यताएं, त्योहार, कहानियां और किंवदंतियां इस बात की पुष्टि करती हैं। हो सकता है रुक्मणी की बलि से वह जलधारा प्रवाहित न हुई हो, रुक्मणी का बेटा मरने के बाद सांप न बना हो लेकिन रुक्मणी के बलिदान को हम मनघड़ंत कहानी कहकर झुठला भी नहीं सकते हैं। जनश्रुति के माध्यम से सैंकड़ों वर्षों से पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों तक पहुंची इस कथा का संबंध लोगों की आस्था से जुड़ा है। उस काल की साधारण बेटी रुक्मणी असाधारण कार्य की वजह से आज देवी की प्रतिमूर्ति बन चुकी है।
आज दूर-दूर से लोग रुक्मणी कुंड आते हैं। बलिदान की देवी के मंदिर में शीश नवाते हैं। देवी मां से सुख समृद्धि की अरदास लगाते हैं और मनोकामना पूर्ण होने पर नंगे पांव पैदल चलकर पवित्र कुंड में स्नान करते हैं। इतिहास जो भी रहा हो लेकिन सरकार को इस मनोरम स्थल को प्रदेश के मानचित्र पर एक पर्यटक स्थल के रुप में विकसित करना चाहिए। हालांकि अभी भी बहुत से लोग इधर-उधर से जानकारी एकत्रित कर यहां पहुंच जाते हैं परन्तु यदि सरकार इस स्थल को विकसित करने की दिशा में सकारात्मक पहल करे तो स्थानीय लोगों के लिए रोज़गार के नए अवसर भी यहां सृजित किए जा सकते हैं।
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