गुरुवार, 29 अगस्त 2024

जन्माष्टमी के सामाजिक एवं सांस्कृतिक मायने - Dr. Rajesh k Chauhan

 


जन्माष्टमी हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण त्योहार है जिसे पूरे देश में धूमधाम से मनाया जाता है। यह पर्व भाद्रपद माह की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। मान्यता के अनुसार इस दिन कन्हैया का जन्म हुआ था। श्रीकृष्ण का जन्म, जिन्हें विष्णु का आठवां अवतार माना जाता है, पृथ्वी पर धर्म की पुनः स्थापना और अधर्म के नाश के लिए हुआ था। उनके जीवन और शिक्षाओं का प्रभाव न केवल धार्मिक है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से भी अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इस दिन देश के सभी कृष्ण मंदिरों को भव्य और शानदार तरीके से सजाया जाता है। भक्तों की भीड़ इन मंदिरों में पूजा और दर्शन करने के लिए इस दिन उमड़ पड़ती है। कुछ लोग अपने घरों में भी कान्हा की मूर्ति घर लाकर भव्य तरीके से पूजा-अर्चना करते हैं और उपवास रखते हैं। बाज़ारों में खासी रौनक रहती है। 

 

जन्माष्टमी के अवसर पर बच्चों के लिए कई विशेष गतिविधियाँ और कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। स्कूलों और धार्मिक संस्थानों में बच्चों को कृष्ण और राधा की पोशाक पहनाई जाती है और वे भगवान कृष्ण के जीवन से संबंधित नाटकों और झांकी में भाग लेते हैं। अनेक स्थानों पर  बच्चों के लिए मटकी फोड़ प्रतियोगिता का आयोजन करवाया जाता है। बच्चे मटकी को फोड़ने का प्रयास करते हैं, ठीक जैसे भगवान कृष्ण ने मक्खन चुराने के लिए किया था। मंदरों में भजन और नृत्य के कार्यक्रम होते हैं, जहाँ बच्चे भगवान कृष्ण से संबंधित गीतों पर नृत्य करते हैं। बच्चों को खासतौर से जन्माष्टमी के अवसर पर माखन, मिश्री, और अन्य मिठाइयों का प्रसाद दिया जाता है, जो इस त्योहार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। इस अवसर पर भगवान कृष्ण को झूले में बिठाने की परंपरा  है। बच्चे इस झूलन उत्सव का आनंद लेते हैं और भगवान को झूला झुलाते हैं। ये सारी गतिविधियाँ बच्चों को भगवान कृष्ण के जीवन और उनकी लीलाओं के प्रति जागरूक और प्रेरित करती हैं।


प्रभु श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा में कंस के कारागार में हुआ था। उनके माता-पिता देवकी और वासुदेव थे। कंस, जो मथुरा का राजा था और अत्याचारी था, को भविष्यवाणी हुई थी कि उसकी बहन देवकी का आठवां पुत्र उसका वध करेगा। इसलिए कंस ने देवकी और वासुदेव को बंदी बना लिया और उनके सभी बच्चों को मार डाला। लेकिन जब श्रीकृष्ण का जन्म हुआ, तो उन्हें कंस के अत्याचारों से बचाने के लिए वासुदेव ने उन्हें रात के अंधेरे में यमुना नदी पार कर गोकुल में नंद और यशोदा के घर पहुँचा दिया। वहां उनका पालन-पोषण हुआ। 

श्रीकृष्ण को कन्हैया, माधव, श्याम, गोपाल, केशव, द्वारकेश या द्वारकाधीश, वासुदेव आदि नामों से भी उनको जाना जाता है। कन्हैया ने बाल्यकाल में अनेक लीलाएं कीं, जिनमें पूतना वध, कालिय नाग दमन, और गोवर्धन पर्वत उठाने की घटनाएं प्रमुख हैं। युवावस्था में वे महाभारत युद्ध के समय अर्जुन के सारथी बने और उन्हें गीता का उपदेश दिया, जो आज भी मानवता के लिए सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक और दार्शनिक ग्रंथ माना जाता है।


जन्माष्टमी का सबसे बड़ा धार्मिक महत्व यह है कि यह भगवान श्रीकृष्ण के जीवन और उनके उपदेशों को याद करने और मनाने का अवसर प्रदान करता है। इस दिन भक्त श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहते हैं, व्रत रखते हैं, भजन-कीर्तन करते हैं और उनकी लीलाओं का स्मरण करते हैं। मंदिरों को सजाया जाता है और झांकियां निकाली जाती हैं, जिनमें कृष्ण के जन्म, उनकी बाल लीलाओं और महाभारत से जुड़े दृश्यों को चित्रित किया जाता है। इस पर्व के दौरान दही-हांडी का आयोजन विशेष रूप से महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में होता है। इस आयोजन में युवाओं की टोली मटकी को फोड़ने का प्रयास करती है, जो भगवान कृष्ण की बाल लीलाओं का प्रतीक है, जब वे गोपियों के मटके से माखन चुरा लिया करते थे। 


श्रीकृष्ण के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण हिस्से में से एक है उनका गीता का उपदेश। गीता के माध्यम से उन्होंने अर्जुन को कर्मयोग, भक्ति योग और ज्ञान योग का मार्ग बताया। यह उपदेश जीवन के संघर्षों में कैसे खड़ा रहा जाए, इस पर आधारित है। गीता का प्रमुख संदेश है कि व्यक्ति को अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए और फल की चिंता नहीं करनी चाहिए।भगवान कृष्ण के जीवन से हमें प्रेम, भक्ति, सेवा, और सत्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती है। उनका जीवन सिखाता है कि हर स्थिति में सत्य और धर्म का पालन करना चाहिए। चाहे कितनी भी कठिन परिस्थितियाँ हों, भगवान कृष्ण का जीवन हमें धैर्य, साहस, और आत्मविश्वास से भर देता है। 



आज के समय में भी जन्माष्टमी का महत्व कम नहीं हुआ है। आधुनिक समाज में जहां नैतिक मूल्यों में गिरावट आई है, वहां श्रीकृष्ण के जीवन और उपदेशों का महत्व और भी बढ़ गया है। उनका जीवन हमें सिखाता है कि धर्म और सत्य का मार्ग कभी भी आसान नहीं होता, लेकिन वह हमेशा सही होता है। इसके अलावा, जन्माष्टमी का पर्व सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। यह पर्व आपसी भाईचारे और सामूहिकता का प्रतीक है। लोग एक साथ मिलकर इस त्योहार को मनाते हैं, जिससे समाज में एकता और समर्पण की भावना का विकास होता है। भारत के विभिन्न हिस्सों में जन्माष्टमी को अलग-अलग तरीकों से मनाया जाता है। मथुरा और वृंदावन में, जहां भगवान कृष्ण ने अपना बाल्यकाल बिताया था, जन्माष्टमी का उत्सव विशेष रूप से भव्य होता है। यहां मंदिरों में विशेष पूजा, झांकियां, और रासलीला का आयोजन किया जाता है। 


महाराष्ट्र में दही-हांडी का आयोजन बहुत लोकप्रिय है, जहां युवाओं की टोली मटकी फोड़ने का प्रयास करती है। यह मटकी ऊंचाई पर बांधी जाती है और इसे फोड़ने के लिए युवाओं को पिरामिड बनाना पड़ता है। यह आयोजन न केवल मनोरंजन का स्रोत है, बल्कि यह टीम वर्क और साहस का प्रतीक भी है। उत्तर भारत के मंदिरों में कृष्ण जन्म के समय मध्यरात्रि को विशेष पूजा का आयोजन होता है, और भगवान कृष्ण की मूर्ति को झूले में झुलाया जाता है। लोग व्रत रखते हैं और मध्यरात्रि के समय भगवान कृष्ण के जन्म का उत्सव मनाते हैं। 


जन्माष्टमी भगवान श्रीकृष्ण के जीवन और उनकी लीलाओं का स्मरण करने का अवसर है। यह त्योहार हमें सिखाता है कि कैसे हमें जीवन की चुनौतियों का सामना करना चाहिए और धर्म के मार्ग पर अडिग रहना चाहिए। श्रीकृष्ण के उपदेश और जीवन से हम प्रेम, भक्ति, सेवा, और सत्य की प्रेरणा प्राप्त करते हैं। उनका जीवन हमें दिखाता है कि कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी हमें अपने धर्म और कर्तव्य का पालन करना चाहिए। 

जन्माष्टमी का पर्व न केवल एक धार्मिक उत्सव है, बल्कि यह समाज और व्यक्ति के जीवन में नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों का भी संवर्धन करता है।



शनिवार, 24 अगस्त 2024

नम्बरों की रेस में पिछड़ता कौशल : डॉ. राजेश चौहान

 नम्बरों की रेस में पिछड़ता कौशल 

डॉ. राजेश चौहान 

स्वतन्त्र लेखक 


विद्यालय जीवन हमारे जीवन का वह महत्वपूर्ण चरण है, जहां एक बच्चे की मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक विकास की नींव रखी जाती है। यह वह समय होता है जब बच्चे में न केवल अकादमिक ज्ञान बल्कि उसकी व्यक्तिगत पहचान और क्षमता भी आकार लेती है। परंतु, हमारी शिक्षा प्रणाली में कई बार बच्चों की स्वाभाविक प्रतिभा और रुचियों की अनदेखी हो जाती है। विद्यालय स्तर पर कौशल (स्किल) आधारित शिक्षा को दबा देना या सीमित करना एक बड़ी समस्या है, जो न केवल छात्रों की रचनात्मकता और व्यक्तिगत विकास को बाधित करता है बल्कि उनके भविष्य के करियर और आत्मनिर्भरता को भी प्रभावित करता है। कौशल-आधारित शिक्षा का उद्देश्य केवल किताबी ज्ञान तक सीमित नहीं होता, बल्कि यह छात्रों में व्यावहारिक ज्ञान, समस्याओं को हल करने की क्षमता, और विभिन्न प्रकार के कौशलों का विकास करना है। दुर्भाग्य से, पारंपरिक शैक्षणिक ढांचे में अक्सर इन पहलुओं की अनदेखी की जाती है।


 विद्यालयों में पाठ्यक्रम और परीक्षा प्रणाली का मुख्य फोकस अब भी रटने और परीक्षा परिणामों पर है। इसके चलते, शिक्षक और छात्र दोनों केवल उन विषयों और पाठ्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित करते हैं जिनसे बेहतर अंक प्राप्त किए जा सकते हैं। इसके कारण कौशल विकास के लिए आवश्यक गतिविधियों, जैसे कि परियोजनाओं, प्रायोगिक कार्यों, रचनात्मक लेखन, और अन्य स्किल-आधारित विषयों को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है। अनेक विद्यार्थी परिणाम के दबाव में मानसिक रोगी बन जाते हैं और अच्छा परिणाम प्राप्त न कर पाने की स्थिति में आत्महत्या जैसे गलत कदम तक उठा लेते हैं। 


 विद्यालय स्तर पर छात्रों को सीमित विषय चुनने की स्वतंत्रता दी जाती है, खासकर दसवीं और बारहवीं कक्षा के बाद। विज्ञान, वाणिज्य, और कला जैसे पारंपरिक स्ट्रीम में बांधकर छात्रों की रुचि और कौशल के अनुरूप शिक्षा को सीमित कर दिया जाता है। इसके परिणामस्वरूप, कई छात्रों को अपने कौशल या रुचि वाले क्षेत्रों में पढ़ाई करने का अवसर नहीं मिल पाता, जैसे कि संगीत, खेल, कला, तकनीकी शिक्षा, और शिल्पकला। हालाँकि नई शिक्षा नीति 2020 में प्रारंभिक स्तर से ही कौशल पर आधारित व्यावसायिक शिक्षा पर ज़ोर दिया गया है। 


 जब विद्यालयों में केवल किताबी ज्ञान और परीक्षा प्रणाली पर जोर होता है, तो रचनात्मकता और नवाचार की भावना को विकसित करने के लिए आवश्यक वातावरण गायब हो जाता है। छात्र ऐसे वातावरण में सीखते हैं जहां उनसे केवल उत्तर देने की उम्मीद की जाती है, बजाय इसके कि वे नई चीजों को सीखने और अपनी क्षमताओं का प्रयोग करने की स्वतंत्रता पाएं। यह नवाचार और नए विचारों के विकास को बाधित करता है। शिक्षक भी केवल पाठ्यक्रम पूरा करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। उन्हें स्किल-आधारित शिक्षा देने के लिए प्रशिक्षित नहीं किया जाता, या उनकी प्राथमिकता यह नहीं होती। इसके कारण स्किल डिवेलपमेंट की गतिविधियां विद्यालय स्तर पर हाशिये पर चली जाती हैं।



 कौशल-आधारित शिक्षा छात्रों को विभिन्न करियर विकल्पों के लिए तैयार करती है। आज के वैश्विक और अत्यधिक प्रतिस्पर्धी युग में, केवल शैक्षणिक डिग्री ही पर्याप्त नहीं होती; इसके साथ ही विशेष कौशल भी आवश्यक होते हैं। जैसे-जैसे दुनिया तकनीकी और डिजिटल क्षेत्रों में बढ़ रही है, तकनीकी कौशलों की मांग बढ़ रही है। कौशल आधारित शिक्षा छात्रों को आत्मनिर्भर बनने में मदद करती है। वे केवल शैक्षणिक ज्ञान पर निर्भर नहीं रहते बल्कि अपने व्यक्तिगत कौशलों से नए अवसरों का निर्माण कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, यदि कोई छात्र संगीत, चित्रकला, हस्तकला, प्रोग्रामिंग, ग्राफिक डिजाइनिंग, फोटोग्राफी या खाना पकाने जैसी स्किल्स में प्रशिक्षित होता है, तो वह जल्दी ही स्वावलंबी बन सकता है।


 कौशल आधारित शिक्षा से छात्रों में वास्तविक जीवन की समस्याओं को हल करने की क्षमता विकसित होती है। इससे वे अपने जीवन और करियर में आने वाली चुनौतियों का सामना कर सकते हैं और उनके लिए उपयुक्त समाधान ढूंढ सकते हैं। जब छात्र अपनी रुचि और कौशलों के अनुसार शिक्षा प्राप्त करते हैं, तो उनकी रचनात्मकता और आत्म-विश्वास में वृद्धि होती है। वे न केवल अपनी प्रतिभाओं को पहचानते हैं बल्कि उन्हें समाज में सार्थक योगदान देने का अवसर भी मिलता है। विद्यालयों के पाठ्यक्रम में कौशल आधारित शिक्षा को अनिवार्य रूप से शामिल किया जाना चाहिए। इसके लिए स्कूलों को व्यावसायिक शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, और रचनात्मक कार्यों को पाठ्यक्रम में जोड़ना चाहिए। देश के सभी राज्यों को नई शिक्षा नीति को यथाशीघ्र प्रभावी ढंग से लागू करना चाहिए।



व्यवसायिक विषयों के अध्यापन के नए विशेषज्ञ शिक्षकों की नियुक्ति तथा उन्हें कौशल विकास की दिशा में प्रशिक्षित करना आवश्यक है। उन्हें नए-नए तकनीकों और शिक्षण पद्धतियों से अवगत कराया जाना चाहिए ताकि वे छात्रों को बेहतर तरीके से कौशल-आधारित शिक्षा प्रदान कर सकें। विद्यालयों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हर छात्र को उसकी रुचि और क्षमताओं के अनुसार शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिले। इससे न केवल छात्रों का विकास होगा बल्कि शिक्षा का स्तर भी बेहतर होगा। कौशल विकास के लिए सरकार और निजी संस्थानों को साथ मिलकर काम करना चाहिए। स्कूलों में विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षण कार्यक्रम, वर्कशॉप और परियोजनाएं आयोजित की जानी चाहिए, जिससे छात्रों को व्यावहारिक अनुभव मिल सके।


विद्यालय स्तर पर कौशल आधारित शिक्षा को महत्व देना छात्रों के संपूर्ण विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है। जिस क्षेत्र में विद्यार्थी की अधिक रूचि होती है उसे उसी क्षेत्र में कॅरियर बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। आज की प्रतिस्पर्धी और तेजी से बदलती दुनिया में केवल किताबी ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है। छात्रों को स्किल आधारित शिक्षा की आवश्यकता होती है, ताकि वे आत्मनिर्भर बन सकें और अपने करियर में सफलता प्राप्त कर सकें। यदि सचिन तेंदुलकर को गाना और लता मंगेशकर क्रिकेट सिखाते तो शायद ये दोनों भी गुमनाम भीड़ का हिस्सा होते।





सोमवार, 19 अगस्त 2024

बेटियों की सुरक्षा: देश की बड़ी चिंता - Dr. Rajesh k Chauhan


 बेटियों की सुरक्षा: देश की बड़ी चिंता


भारत में जहां नारी को देवी का स्वरूप माना जाता है, वहीं दूसरी ओर बेटियों की सुरक्षा एक गंभीर समस्या बनती जा रही है। बेटियों के प्रति बढ़ती हिंसा और अपराध न केवल हमारे समाज की असंवेदनशीलता को दर्शाते हैं, बल्कि यह हमारे सामाजिक ताने-बाने की कमजोरी को भी उजागर करते हैं। यह विषय आज के समय में इसलिए भी महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि यह केवल एक सामाजिक मुद्दा नहीं है, बल्कि एक राष्ट्रीय चिंता का विषय बन चुका है।


 हाल ही में कोलकाता के आर.जी. कर मेडिकल कॉलेज में द्वितीय वर्ष की स्नातकोत्तर प्रशिक्षु डॉक्टर मौमिता देबनाथ की बलात्कार के बाद निर्मम हत्या ने इस चिंता को और बढ़ा दिया है। 16 दिसंबर 2012 को देश की राजधानी दिल्ली में हुए निर्भया काण्ड के बाद 21 मार्च, 2013 को बलात्कार के कानून में महत्वपूर्ण बदलाव किए गए और इसे और भी सख्त किया गया। आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम 2013 में बलात्कार को फिर से परिभाषित करते हुए बलात्कार के दोषियों के लिए सजा में बढ़ोतरी के साथ साथ बार बार बलात्कार के मामले में आरोपी के लिए मौत की सजा का प्रावधान किया गया। इस कानून के तहत बलात्कार के एसिड हमलों, पीछा करने और लड़कियों को घूरने वालों को कड़ी सजा का प्रावधान है लेकिन बावजूद इसके महिलाओं के साथ आपराधिक मामले थमने का नाम नहीं ले रहे।


देश के विभिन्न हिस्सों से बेटियों के खिलाफ अपराधों की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं। इनमें छेड़छाड़, यौन उत्पीड़न, बलात्कार, दहेज हत्या, कन्या भ्रूण हत्या, और एसिड अटैक जैसी घटनाएं प्रमुख हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, देश में हर साल महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों में बढ़ोतरी देखी जा रही है। यह न केवल कानून व्यवस्था की विफलता को दर्शाता है, बल्कि समाज में व्याप्त विकृत मानसिकता को भी उजागर करता है।



भारत जैसे पितृसत्तात्मक समाज में बेटियों की स्थिति सदियों से चुनौतीपूर्ण रही है। उन्हें अक्सर एक बोझ के रूप में देखा जाता है, और इस मानसिकता का असर उनकी सुरक्षा पर भी पड़ता है। समाज में महिलाओं और पुरुषों के बीच व्याप्त असमानता और लैंगिक भेदभाव, बेटियों के प्रति होने वाले अपराधों का मुख्य कारण है। लड़कियों को कई बार शिक्षा, स्वास्थ्य, और सुरक्षा के अधिकारों से वंचित रखा जाता है, जिससे उनकी स्थिति और भी कमजोर हो जाती है।


बेटियों की सुरक्षा के लिए कानून बनाए गए हैं, लेकिन उनका प्रभावी कार्यान्वयन एक बड़ी चुनौती है। यौन उत्पीड़न, बलात्कार, और घरेलू हिंसा जैसे अपराधों के लिए सख्त कानून हैं, लेकिन इनकी सही तरीके से अनुपालना नहीं हो पाती। पुलिस और न्याय प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है ताकि अपराधियों को समय पर सजा मिले और पीड़िताओं को न्याय मिल सके। निर्भया केस के बाद कई कानूनों में संशोधन किए गए, लेकिन उसके बावजूद भी अपराधों में कमी नहीं आई। इसका मुख्य कारण कानून के कार्यान्वयन में ढिलाई और समाज में व्याप्त विकृत मानसिकता है।


समाज की भूमिका बेटियों की सुरक्षा में सबसे महत्वपूर्ण है। जब तक समाज में बेटियों के प्रति सम्मान और सुरक्षा की भावना विकसित नहीं होगी, तब तक केवल कानून बनाने से कुछ नहीं होगा। इसके लिए सामाजिक जागरूकता की आवश्यकता है। परिवार, स्कूल, और समुदाय को मिलकर इस दिशा में काम करना होगा। बच्चों को बचपन से ही लैंगिक समानता, महिलाओं के प्रति सम्मान, और नैतिक मूल्यों के बारे में सिखाया जाना चाहिए। समाज में बेटियों के प्रति हो रहे अपराधों के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत और साहस विकसित करना होगा।


बेटियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने में शिक्षा का बहुत बड़ा योगदान है। शिक्षित लड़कियां अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होती हैं और खुद की रक्षा करने में सक्षम होती हैं। उन्हें आत्मरक्षा के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए ताकि वे किसी भी विषम परिस्थिति में खुद की रक्षा कर सकें। इसके साथ ही, लड़कों को भी महिलाओं के प्रति सम्मानजनक व्यवहार सिखाया जाना चाहिए। शिक्षा वह माध्यम है जो समाज में बदलाव ला सकता है और बेटियों के प्रति होने वाले अपराधों को कम कर सकता है।


सरकार की भूमिका भी इस दिशा में महत्वपूर्ण है। सरकार को सख्त कानून बनाकर उनका कठोरता से अनुपालन सुनिश्चित करना चाहिए। साथ ही, महिलाओं और बच्चों के लिए हेल्पलाइन, शेल्टर होम, और अन्य सुरक्षा सुविधाओं का विस्तार किया जाना चाहिए। सरकार को शिक्षा और जागरूकता कार्यक्रमों के माध्यम से समाज में बदलाव लाने के प्रयास करने चाहिए।


तकनीकी प्रगति ने सुरक्षा के नए आयाम खोले हैं। बेटियों की सुरक्षा के लिए कई तरह के मोबाइल ऐप्स और डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म उपलब्ध हैं, जो उन्हें किसी भी संकट के समय सहायता प्रदान करते हैं। लेकिन इन तकनीकों का सही उपयोग तभी संभव है जब बेटियां और उनके परिवार इसके प्रति जागरूक हों। डिजिटल साक्षरता को बढ़ावा देना और इन तकनीकों का सही उपयोग सिखाना समय की मांग है।


बेटियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए एक सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है। इसमें सरकार, समाज, परिवार, और व्यक्तिगत स्तर पर सभी की जिम्मेदारी बनती है। बेटियों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए एक सुरक्षित और सम्मानजनक वातावरण का निर्माण करना होगा। हमें यह समझना होगा कि बेटियों की सुरक्षा केवल उनके ही नहीं, बल्कि पूरे समाज के भविष्य से जुड़ी हुई है।


निर्भया हो या मौमिता बेटियों की सुरक्षा देश की बड़ी चिंता है, जिसे केवल कानून और सुरक्षा बलों के माध्यम से हल नहीं किया जा सकता। इसके लिए समाज की मानसिकता में बदलाव लाना आवश्यक है। बेटियों को शिक्षा, सुरक्षा, और समान अवसर प्रदान करना हमारे समाज की जिम्मेदारी है। यदि हम सचमुच अपनी बेटियों को सुरक्षित और सशक्त बनाना चाहते हैं, तो हमें अपने समाज में व्याप्त उन सभी विकृतियों को दूर करना होगा, जो बेटियों की सुरक्षा में बाधा बनती हैं। एक सशक्त और सुरक्षित समाज ही देश की प्रगति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है, और यह तभी संभव है जब हमारी बेटियां सुरक्षित और सम्मानित महसूस करेंगी।

नववर्ष 2025: नवीन आशाओं और संभावनाओं का स्वागत : Dr. Rajesh Chauhan

  नववर्ष 2025: नवीन आशाओं और संभावनाओं का स्वागत साल का अंत हमारे जीवन के एक अध्याय का समापन और एक नए अध्याय की शुरुआत का प्रतीक होता है। यह...