बुधवार, 25 दिसंबर 2024

चिट्टा : एक भयावह वास्तविकता : डॉ. राजेश चौहान

 'चिट्टा' शब्द सुनते ही मन में एक अजीब घबराहट और डर का एहसास होता है। यह डर केवल एक नशीले पदार्थ तक सीमित नहीं है, बल्कि उससे जुड़ी उन भयानक कहानियों का है, जो हमारी युवा पीढ़ी के भविष्य को अंधकार में धकेल रही हैं। स्कूलों में पढ़ने वाले मासूम बच्चों से लेकर किशोर युवक-युवतियां तक, इस खतरनाक लत की गिरफ्त में फंसते जा रहे हैं। यह सोचकर दिल दहल जाता है कि जब चिट्टे की लत शरीर पर हावी हो जाती है, तो इसे पूरा करने के लिए युवा चोरी, झूठ और धोखे जैसे अपराध करने को मजबूर हो जाते हैं।


चिट्टा न केवल शरीर को बर्बाद करता है, बल्कि परिवार की इज्जत और समाज का विश्वास भी छीन लेता है। यह उन घरों के बच्चों को भी अपराधी बना देता है, जिनका पालन-पोषण संस्कारों और उच्च आदर्शों के साथ हुआ होता है। यह नशा युवाओं को उनकी जिम्मेदारियों और मूल्यों से विमुख कर देता है। परिवार आर्थिक संकट में फंस जाते हैं, और समाज का हर स्तर इसकी वजह से प्रभावित होता है।




'चिट्टा' शब्द मूल रूप से पंजाबी और उसकी उप-बोलियों में सफेद रंग के लिए उपयोग होता था। ड्रग्स के संदर्भ में यह उन पदार्थों के लिए इस्तेमाल किया जाता है जो सफेद या क्रिस्टलीय होते हैं, जैसे हेरोइन, मेथाम्फेटामीन (मेथ), एमडीएमए (एक्स्टेसी), और एलएसडी। पहले यह शब्द केवल हेरोइन के लिए प्रयुक्त होता था, लेकिन अब यह सभी सफेद या क्रिस्टलीय ड्रग्स का पर्याय बन चुका है।


हेरोइन अफीम से तैयार की जाने वाली अत्यंत नशीली दवा है। 19वीं सदी में इंग्लैंड के रसायनशास्त्री सी.आर. एल्डर राइट ने इसे मॉरफीन से तैयार किया था। 1898 में जर्मन कंपनी बायेर ने इसे दर्द निवारक और खांसी के इलाज के लिए एक 'चमत्कारी औषधि' के रूप में प्रस्तुत किया। लेकिन जल्द ही यह समझ आ गया कि हेरोइन मॉरफीन से कहीं अधिक नशीली और खतरनाक है।


दूसरी ओर, मेथाम्फेटामीन, जिसे 'मेथ' के नाम से भी जाना जाता है, एक सिंथेटिक ड्रग है। इसका क्रिस्टलीय रूप, जिसे 'क्रिस्टल मेथ' कहा जाता है, तेजी से लोकप्रिय हो रहा है। 20वीं सदी में इसका उपयोग फोकस बढ़ाने और थकान मिटाने के लिए किया जाता था। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जर्मन और जापानी सैनिकों को सतर्क रखने के लिए इसका इस्तेमाल किया गया। हालांकि, यह ड्रग मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव डालता है और व्यक्ति को हिंसक और असंवेदनशील बना देता है।


पंजाब, हिमाचल प्रदेश और भारत के अन्य राज्यों में चिट्टे की समस्या ने एक भयावह रूप ले लिया है। यह केवल युवाओं के व्यक्तिगत जीवन को बर्बाद नहीं कर रहा, बल्कि समाज के नैतिक और सांस्कृतिक ताने-बाने को भी तहस-नहस कर रहा है। स्कूल-कॉलेज जाने वाले बच्चे, जो देश का भविष्य हैं, इस नशे की गिरफ्त में आकर अपने सपने और उद्देश्य खो रहे हैं।


चिट्टा उपयोगकर्ताओं की लत बढ़ने के साथ, वे इसे पूरा करने के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं। माता-पिता के गहने और घर का सामान बेच देना, चोरी करना, या यहां तक कि हिंसक अपराधों में लिप्त हो जाना आम बात हो गई है। नशे में धुत्त बच्चे अपने परिवारों को तोड़ रहे हैं और समाज के लिए एक बड़ा खतरा बन रहे हैं।


हेरोइन और मेथाम्फेटामीन दोनों ही शरीर और दिमाग को गंभीर क्षति पहुंचाते हैं। हेरोइन केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को धीमा कर देती है, जिससे व्यक्ति को एक अस्थायी राहत और आनंद का अनुभव होता है। लेकिन इसके उपयोग से शारीरिक और मानसिक निर्भरता इतनी बढ़ जाती है कि व्यक्ति इसका गुलाम बन जाता है।


दूसरी ओर, मेथाम्फेटामीन दिमाग और शरीर के बीच सिग्नल ट्रांसमिशन को तेज करता है। इसका उपयोग व्यक्ति को मानसिक रूप से अस्थिर कर देता है। इसके परिणामस्वरूप भ्रम, अवसाद, आत्मघाती विचार, और 'साइकोसिस' जैसी गंभीर मानसिक बीमारियां होती हैं।


भारत में, चिट्टे की समस्या 1980 और 1990 के दशकों में अफगानिस्तान और पाकिस्तान से तस्करी के जरिए बढ़ी। पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्य इस समस्या से सबसे अधिक प्रभावित हैं। 'गोल्डन क्रिसेंट' ईरान, अफगानिस्तान, और पाकिस्तान का क्षेत्र दुनियां का सबसे बड़ा अफीम उत्पादक क्षेत्र है। यहां से ड्रग्स की तस्करी भारत और अन्य देशों में होती है।


आज, चिट्टा तस्करी और उपयोग के मामले रोज़ सुर्खियों में रहते हैं। पुलिस और अन्य एजेंसियां इस पर कड़ी कार्रवाई कर रही हैं, लेकिन समस्या केवल कानूनी उपायों से हल नहीं होगी। चिट्टे जैसी गंभीर समस्या से निपटने के लिए समाज, परिवार और प्रशासन को मिलकर काम करना होगा। सबसे पहले, नशा मुक्ति केंद्रों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए और उनकी गुणवत्ता में सुधार किया जाना चाहिए। ड्रग्स के शिकार लोगों के लिए मानसिक स्वास्थ्य सहायता और काउंसलिंग जरूरी है।


परिवारों को बच्चों के साथ संवाद बढ़ाने और उनकी गतिविधियों पर नजर रखने की आवश्यकता है। स्कूलों और कॉलेजों में ड्रग्स के दुष्परिणामों के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए कार्यशालाएं और कार्यक्रम आयोजित किए जाने चाहिए। इसके अलावा, सरकार को ड्रग्स की तस्करी और वितरण पर सख्ती से रोक लगानी होगी।


चिट्टा केवल एक नशा नहीं, बल्कि यह समाज को अंदर से खोखला करने वाली चुनौती है। इसे जड़ से मिटाने के लिए सामूहिक प्रयास और दृढ़ संकल्प की आवश्यकता है। समाज का हर सदस्य, चाहे वह युवा हो, माता-पिता हों या प्रशासनिक अधिकारी सभी को इस लड़ाई में अपनी भूमिका निभानी होगी। केवल तभी हम इस समस्या को खत्म कर पाएंगे और अपनी आने वाली पीढ़ियों को सुरक्षित भविष्य दे पाएंगे।


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